ज्वाला कोई जले निरंतर
बरस रहा है कोई अविरत
झर-झर झर-झर, झर-झर झर-झर
भीग रहा कब कोई पागल
ढूँढे जाता सरवर, पोखर !
प्रीत गगरिया छलक रही है
युगों-युगों से सर-सर सर-सर,
प्यासे कंठ न पीते लेकिन
अकुलाये से खोजें निर्झर !
ज्वाला कोई जले निरंतर
बहे उजाला मद्धिम-मद्धिम,
राह टटोले नहीं मिले पर
अंधकार में टकराते हम !
शब्दों में वह नहीं समाये
अंतर को ही अम्बर कर लें,
कैसे जग को उसे दिखाएँ
रोम-रोम में जिसको भर लें !
गाए रुन-झुन, रिन-झिन, निशदिन
हँसता हिम शिखरों के जैसा,
रत्ती भर भी जगह न छोड़े
बसा पुष्प में सौरभ जैसा !
रग-रग रेशा-रेशा पुलकित
कण-कण गीत उसी के गाये ,
रिसता मधु सागर के जैसा
श्वास-श्वास में वही समाये !
आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" मंगलवार 21 फरवरी 2023 को साझा की गयी है
जवाब देंहटाएंपाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
बहुत बहुत आभार यशोदा जी!
हटाएंशब्दों में वह नहीं समाये
जवाब देंहटाएंअंतर को ही अम्बर कर लें,
कैसे जग को उसे दिखाएँ
रोम-रोम में जिसको भर लें !
बहुत सुंदर, परमात्मा को हम शब्दों में गढ़ते हैं और मुर्तियो में ढूंढते नहीं ढूंढते तो अपने भीतर,सादर नमन आपको 🙏
स्वागत व आभार कामिनी जी!
हटाएंसुंदर प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार ज्योति जी!
हटाएंअकुलाए से खोजें निर्झर । बहुत सुंदर गीत ।
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार संगीता जी !
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जवाब देंहटाएंरग-रग रेशा-रेशा पुलकित
कण-कण गीत उसी के गाये ,
रिसता मधु सागर के जैसा
श्वास-श्वास में वही समाये !
बहुत सुंदर भावाभिव्यक्ति!
स्वागत व आभार जिज्ञासा जी !
जवाब देंहटाएंरग-रग रेशा-रेशा पुलकित
जवाब देंहटाएंकण-कण गीत उसी के गाये ,
रिसता मधु सागर के जैसा
श्वास-श्वास में वही समाये !
सटीक एवं उत्कृष्ट
लाजवाब।
स्वागत व आभार सुधा जी!
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