बुधवार, फ़रवरी 22

किंतु न जानूँ पथ पनघट का


किंतु न जानूँ पथ पनघट का

पंथ निहारा, राह बुहारी 

लेकिन तुम आए नहीं श्याम, 

नयन बिछाए की प्रतीक्षा 

बीत गए कई आठों याम !


अंतर में संसार भरा था 

शायद तुम एकांत  निवासी, 

कहाँ बिठाती इस दुविधा से 

बचा गए मुझको घनश्याम !


अब यह सूनापन भाता है 

हर आहट पर हृदय धड़कता, 

एक नज़र ही पा जाए मन 

नहीं औरों से मुझको काम !


नगरी तेरी दूर  नहीं है 

किंतु न जानूँ पथ पनघट का, 

जीवन की संध्या  घिर आयी 

कब दर्शन  मिले  मनोभिराम !


7 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" बुधवार 23 फरवरी 2023 को साझा की गयी है......... पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
    अथ स्वागतम शुभ स्वागतम।

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  2. मन में रमे श्याम तो फिर कहाँ दुनिया में लागे मन
    बहुत सुन्दर प्रस्तुति
    https://www.youtube.com/@rawatkavitauk

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  3. नगरी तेरी दूर नहीं है

    किंतु न जानूँ पथ पनघट का,

    जीवन की संध्या घिर आयी

    कब दर्शन मिले मनोभिराम !

    बहुत ही सुन्दर सृजन 🙏

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  4. बहुत उम्दा अभिव्यक्ति आदरणीय मेम ।

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