सोमवार, फ़रवरी 20

ज्वाला कोई जले निरंतर

ज्वाला कोई जले निरंतर
बरस रहा है कोई अविरत
झर-झर झर-झर, झर-झर झर-झर
भीग रहा कब कोई पागल 
ढूँढे जाता सरवर, पोखर !

प्रीत गगरिया छलक रही है
 युगों-युगों से सर-सर सर-सर,
प्यासे कंठ न पीते लेकिन
 अकुलाये से खोजें निर्झर !

ज्वाला कोई जले निरंतर
बहे उजाला मद्धिम-मद्धिम,
राह टटोले नहीं मिले पर  
अंधकार में टकराते हम !

शब्दों में वह नहीं समाये
अंतर को ही अम्बर कर लें,
कैसे जग को उसे दिखाएँ
रोम-रोम में जिसको भर लें !

गाए रुन-झुन, रिन-झिन, निशदिन
हँसता हिम शिखरों के जैसा,
रत्ती भर भी जगह न छोड़े
बसा पुष्प में सौरभ जैसा !

रग-रग रेशा-रेशा पुलकित
कण-कण गीत उसी के गाये  ,
रिसता मधु सागर के जैसा
श्वास-श्वास में वही समाये !


12 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी लिखी रचना  ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" मंगलवार 21 फरवरी 2023 को साझा की गयी है
    पाँच लिंकों का आनन्द पर
    आप भी आइएगा....धन्यवाद!

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  2. शब्दों में वह नहीं समाये
    अंतर को ही अम्बर कर लें,
    कैसे जग को उसे दिखाएँ
    रोम-रोम में जिसको भर लें !

    बहुत सुंदर, परमात्मा को हम शब्दों में गढ़ते हैं और मुर्तियो में ढूंढते नहीं ढूंढते तो अपने भीतर,सादर नमन आपको 🙏

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  3. अकुलाए से खोजें निर्झर । बहुत सुंदर गीत ।

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  4. रग-रग रेशा-रेशा पुलकित
    कण-कण गीत उसी के गाये ,
    रिसता मधु सागर के जैसा
    श्वास-श्वास में वही समाये !
    बहुत सुंदर भावाभिव्यक्ति!

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  5. स्वागत व आभार जिज्ञासा जी !

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  6. रग-रग रेशा-रेशा पुलकित
    कण-कण गीत उसी के गाये ,
    रिसता मधु सागर के जैसा
    श्वास-श्वास में वही समाये !
    सटीक एवं उत्कृष्ट
    लाजवाब।

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