सोमवार, जुलाई 31

खुले न द्वार हृदय का जब तक

खुले न द्वार हृदय  का जब तक 


जीवन चिर बसंत सा मिलता 

यदि  कोई बाधा मत डाले, 

सुरभित ब्रह्मकमल सा खिलता 

आत्ममुग्धता ग़र तज डाले !


दिग दिगंत में जो फैला है 

छोटा सा बन हुआ संकुचित, 

खुले न द्वार हृदय  का जब तक 

कैसे मिलन घटेगा समुचित !


 रूप धरा वामन, विराट है

छा जाता भू-स्वर्ग हर कहीं, 

मिट जाये जो पा लेता है 

 नहीं जानता उर राज यही !


जो पहले था, सदा  रहेगा 

उसका स्वाद जरा लग जाये, 

दिल दीवाना रहे ठगा सा 

बार-बार मिट रहे रिझाये !


शनिवार, जुलाई 29

मन का कैनवास

मन का कैनवास 


सिकुड़ जाता है मन का चोला 

तो घुटने लगती हैं श्वासें 

और जन्म होता है हिंसा का 

शायद आत्मरक्षा में 

मन घायल करता है 

पहले स्वयं को 

फिर अपनों को 

यदि शांत न हो पीड़ा तो 

समाज और  

संसार को, 

युद्धों का जन्म ऐसे ही होता है 

सिकुड़ी संकुचित चेतना का परिणाम है क्रोध !

जब फैल जाता है मन का कैनवास 

जिसमें समा जाते हैं धरती और आकाश 

अपने-पराये सब हो अनुकूल 

प्राणी, पशु, पौधे, चट्टान, फूल 

तो प्रेम का जन्म होता है 

प्रेम मुक्त करता है 

सहलाता है 

भर जाता है आनंद से 

सारी कायनात को 

तो किसको चुनेंगे 

संकुचन या विस्तार 

हिंसा या प्यार ! 


मंगलवार, जुलाई 25

पुरनम सी यह हवा


पुरनम सी यह हवा


तेरा पता मिला है औरों से क्या मिलें

पहुँचेंगे तेरे दर अरमान ये खिलें


तुझे छू के आ रही पुरनम सी यह हवा

सब को मेरी दुआ से मिलने लगी शफा


जब से यह बाँधा बंधन थम सा कुछ गया 

माटी का तन तपाया कंचन ह्रदय हुआ 


 दुनिया का सच आखिर आ गया है सम्मुख

फानी है सब जहाँ सुख या कि कोई दुःख


दिल यह मिला है ख़ुद से जब से मिले नयन

पहले पहल थी चिनगी भभकी हुई सघन


जलते हुए जगत में शीतल किया है मन

कैसी अनोखी ज्वाला बुझने लगी तपन


शनिवार, जुलाई 22

ऐसा एक मिलन था अद्भुत


ऐसा एक मिलन था अद्भुत

प्रिय ब्लॉगर मित्रों,

बरसों पहले घर में परिवार के सभी लोग इक्कट्ठे हुए, जब एक कुनबा एक साथ होता है तो कई नई यादें मनों में घर कर लेती हैं भविष्य में आने वाली पीढ़ियों तक वह यादें किसी न किसी तरह पहुँच जाती हैं. कुछ यादें मैंने इस कविता में उतारी थीं, इसे पढ़कर शायद आपको भी अपने परिवार के मिलन की कोई  स्मृति हो आये...

कई बरस के बाद मिले थे

ह्रदय सभी के बहुत खिले थे,

इक छत के नीचे वे चौदह

चले बातों के सिलसिले थे !


दिवस सुहाने, माह नवम्बर

न ही गर्मी न सर्दी का डर,

कारण पापा की बीमारी

लेकिन खुश वे, उन्हें देखकर !


वाराणसी से डिब्रूगढ़ का

राजधानी में सफर चला,

मुम्बई से उड़े विमान में

फिर असम भूमि का दर्श मिला !


सँग लाए वे भेटें अनुपम

मिठाई का पूरा भंडार,

दीवाली के बाद मिले थे

मीठा मीठा करें व्यवहार !


मलाई गिलौरी, गोंद-पाक 

बूंदी चूर, बरफ़ी अनगिन

मेवों, सेव से बने व्यंजन

खाए मिलजुल सबने हरदिन !


वजन बढ़ा या घटा औंस भर

नापा करते बारी बारी,

अभी नाश्ता समाप्त हुआ न

दोपहरी की हो तैयारी !


फिर बारी भ्रमण  की आती

दो वाहनों  में सभी समाते,

रोज नापते असम की धरती

चाय बागानों में जाते !


नदी किनारे, पुल के ऊपर

पार्क के झूले मन मोहते

पंछी, धूप, हवा, पानी सँग

हरी घास पर सभी झूमते !


ओ सी एस में इक अजूबा

पानी में थी लपट अग्नि की,

देख सभी रह गए अचम्भित

साँसें  सबकी रह गयी रुकीं !


बच्चों ने भी लीं तस्वीरें

मन में यादें भरीं सुनहरी,

दो सौ तेरह में सोये सब

दो सौ सात में की दुपहरी !


मिलकर उनो व कैरम खेला

झूले में भी पींग बढाई,

पौधों को नहलाया जल से

ग्रुप में फोटो खूब खिचाई !


मोनोपली का खेला खेल  

 सभी थे हाज़िर फेसबुक पर  ,

एक जगत जो यह दिखता है 

​​दूसरा आभासी  स्क्रीन  पर  I


मेलजोल से हर दिन बीता

खुशियाँ जैसे झलक रहीं थीं,

योग, प्राणायाम के बल पे

सेहत सबकी ठीक रही थी !


ऐसा एक मिलन था अद्भुत

कविता में जो व्यक्त हुआ है ,

सभी दिलों में जो अंकित है

बड़े प्रेम से खुदा हुआ है !


इसी तरह का प्यार सदा ही

सबके मन में बसा रहेगा 

पापा-माँ की मिलें दुआएं

जीवन सुंदर सदा रहेगा  !!





शुक्रवार, जुलाई 21

अक्सर


अक्सर 


हम जिससे बचना चाहते हैं 

बच ही जाते हैं

जैसे कि कर्त्तव्य पथ की दुश्वारियों से 

अपने हिस्से के योगदान से 

कुछ भी न करके 

हम पाना चाहते हैं सब कुछ 

जगत जलता रहे 

हम सुरक्षित हैं 

जब तक आँच की तपन 

हमें झुलसाने नहीं लगती 

हम हिलते ही नहीं 

अकर्मण्यता की ऐसी ज़ंजीरों ने जकड़ लिया है 

कभी भय, कभी असमर्थता की आड़ में 

हम छुप जाते हैं 

छुपना पलायन है 

पर कृष्ण अर्जुन को भागने नहीं देते 

हर आत्मा को लड़ना ही पड़ता है

एक युद्ध 

प्रमाद के विरुद्ध 

यदि उसे पाना है अनंत 

ऊपर उठना होगा अपनी अक्षमताओं से 

प्रेम को ढाल नहीं कवच बनाकर 

उतरना होगा 

कर्त्तव्य पथ पर !  


बुधवार, जुलाई 19

आत्मा का फूल


आत्मा का फूल 

जहां प्रमाद है वहाँ अहंकार है 

जहां अहंकार है वहाँ प्यार नहीं 

जहां प्यार नहीं वहाँ राग-द्वेष है 

अर्थात वे दो असुर 

जिन्होंने देवों का धरा वेश है 

राग प्रिय से बाँधता है 

द्वेष अप्रिय से बचना चाहता है 

पर हर बंधन दुःखदायी है 

और बचने की कामना ही 

और जोरों से बाँधती आयी है

जिसे पकड़ा है 

वह छूट जाता है 

जिसे छोड़ना चाहा 

वह बना रहता है मन में 

इन असुरों का अंत किए बिना 

प्रेम का राज्य नहीं मिलता 

और प्रेम के बिना 

आत्मा का फूल नहीं खिलता !  



सोमवार, जुलाई 17

एक बांसुरी की सरगम दिल

एक बांसुरी की सरगम दिल 


बस कशमकश है ज़िंदगी, या 

प्रीत रागिनी मधुर बज रही, 

क्यों इसको संघर्ष बनाते 

निशदिन रस की धार बह रही !


सुरमई साँझ, केसरिया दिन 

लपटों में घिर-घिर जाते क्यों, 

एक बांसुरी की सरगम दिल 

व्यर्थ शोर में बदल रहा ज्यों !


प्रेम गुज़ारिश, एक बंदगी 

फ़रमानों की भेंट चढ़ गया, 

जहां सरसता उग सकती थी 

अरमानों का रक्त बह गया !


चंद खनकते सिक्कों आगे 

दिल का दर्द न पड़ा दिखायी, 

अहंकार की भाषा जीती 

सदा प्रीत की ही रुसवाई !


लेकिन आख़िर कब तक बोलो 

जीवन दुर्दम बोझ सहेगा, 

तोड़ बंधनों की सीमाएँ 

नव अंकुर सा उमग बहेगा !


रविवार, जुलाई 16

शायद

शायद 

तुम्हें पता नहीं है 

 तुम बहुत दिनों से मुस्कुराए नहीं हो 

खिल जाता था तुम्हारा चेहरा 

पहले जिन्हें देखकर 

अब हँसना तो दूर 

लगता है नाराज़ हो किसी से 

या शायद ख़ुद से 

छोटी-छोटी बातों पर 

खिलखिला कर हंस देते थे 

तुम्हारी वह निश्चल हँसी

पैसे कमाने में कहीं खो गई

तरक़्क़ी की चाह में बह 

मुस्कान भी छोटी होती गई 

तुम्हें ज्ञात ही नहीं 

किस बात पर ख़फ़ा हो 

 अच्छी नहीं लगती 

किसी की कोई सलाह तुम्हें

 कहीं हो न जाओ और उदास

किसी को कुछ कहते भी तुमसे 

डर लगता है 

लेकिन एक बार तो 

ज़ोर से खिलखिलाओ 

दिल बार-बार कहता है ! 


आज की पीढ़ी पता नहीं किस दौड़ में शामिल होकर जीना ही भूल गई है

आभासी दुनिया में रहते-रहते वास्तविक जीवन की छोटी-छोटी ख़ुशियों को नज़र अंदाज़ कर रही है।



बुधवार, जुलाई 12

स्पंदन

स्पंदन 


जो भी सृजित है 

गढ़ा गया है 

निरंतर गतिमान है 

सृजन के क्षण से 

तरंगित और कंपित है  

परमाणु में घूम रहे हैं 

सूक्ष्म इलेक्ट्रॉन 

अनवरत नाभि के चारों ओर 

जैसे घूमती है धरा 

अपनी सीमा में 

श्वास की धुन बज रही है रातदिन 

धारा मन की बहती जाती है 

नींद में भी 

किन्ह अनजान तटों को छू आती है 

समय का अश्व दौड़ा जा रहा है 

युग पर युग बीतते जाते हैं 

पर नहीं चूकती है ऊर्जा की यह 

अजस्र खान  

जो इस सारे आयोजन का

 आधार है 

इसीलिए तो मनुज को 

भगवान से प्यार है !