खुले न द्वार हृदय का जब तक
जीवन चिर बसंत सा मिलता
यदि कोई बाधा मत डाले,
सुरभित ब्रह्मकमल सा खिलता
आत्ममुग्धता ग़र तज डाले !
दिग दिगंत में जो फैला है
छोटा सा बन हुआ संकुचित,
खुले न द्वार हृदय का जब तक
कैसे मिलन घटेगा समुचित !
रूप धरा वामन, विराट है
छा जाता भू-स्वर्ग हर कहीं,
मिट जाये जो पा लेता है
नहीं जानता उर राज यही !
जो पहले था, सदा रहेगा
उसका स्वाद जरा लग जाये,
दिल दीवाना रहे ठगा सा
बार-बार मिट रहे रिझाये !