गुरुवार, सितंबर 28

रहे साधते वीणा के स्वर


रहे साधते वीणा के स्वर
कितनी बार झुकें आखिर हम 
कितनी बार पढ़ें ये आखर,
जीवन सारा यूँ ही बीता 
रहे साधते वीणा के स्वर !

श्वास काँपती ह्रदय डोलता 
हौले-हौले सुधियाँ आतीं,
कितनी बार कदम लौटे थे 
रह-रह वे यादें धड़कातीं !

निज पैरों का लेकर सम्बल
इक ना इक दिन चढ़ना होगा,
छोड़ आश्रय जगत के मोहक 
सूने पथ पर बढ़ना होगा !

कितने जन्म सोचते बीते 
जल को मथते रहे बावरे,
कब तक स्वप्न देख समझाएँ 
कब तक रस्ता तकें सांवरे ! 

12 टिप्‍पणियां:

  1. अनजान पथ के अजनबी रास्तों पर चलना ही नियति का अंतिम सत्य है।
    सादर।
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    जी नमस्ते,
    आपकी लिखी रचना शुक्रवार २९ सितंबर २०२३ के लिए साझा की गयी है
    पांच लिंकों का आनंद पर...
    आप भी सादर आमंत्रित हैं।
    सादर
    धन्यवाद।

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  2. बहुत ही प्रेरक विचार से सुसज्जित रचना अनीता जी! स्वयं की ऊर्जा संग चलने में ही जीवन की सार्थकता है! बाकी संबल क्षद्म और अस्थायी हैं! 🙏❤️

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