रहे साधते वीणा के स्वर
कितनी बार झुकें आखिर हम
कितनी बार पढ़ें ये आखर,
जीवन सारा यूँ ही बीता
रहे साधते वीणा के स्वर !
श्वास काँपती ह्रदय डोलता
हौले-हौले सुधियाँ आतीं,
कितनी बार कदम लौटे थे
रह-रह वे यादें धड़कातीं !
निज पैरों का लेकर सम्बल
इक ना इक दिन चढ़ना होगा,
छोड़ आश्रय जगत के मोहक
सूने पथ पर बढ़ना होगा !
कितने जन्म सोचते बीते
जल को मथते रहे बावरे,
कब तक स्वप्न देख समझाएँ
कब तक रस्ता तकें सांवरे !
अनजान पथ के अजनबी रास्तों पर चलना ही नियति का अंतिम सत्य है।
जवाब देंहटाएंसादर।
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जी नमस्ते,
आपकी लिखी रचना शुक्रवार २९ सितंबर २०२३ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
सादर
धन्यवाद।
बहुत बहुत आभार श्वेता जी !
हटाएंसुन्दर
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार !
जवाब देंहटाएंसुन्दर पंक्तियाँ
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार !
हटाएंबहुत ही प्रेरक विचार से सुसज्जित रचना अनीता जी! स्वयं की ऊर्जा संग चलने में ही जीवन की सार्थकता है! बाकी संबल क्षद्म और अस्थायी हैं! 🙏❤️
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार रेणु जी !
हटाएंबेहद खूबसूरत रचना
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार !
हटाएंसुंदर रचना
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार !
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