मंगलवार, अक्तूबर 24

विजयादशमी

विजयादशमी 

माँ को पूज कर राम ने

पाया विजय का वरदान, 

किया विनाश दशानन का 

मिला दुनिया में सम्मान !


राम तभी अवतार बने 

जिस पल निज शीश झुकाया, 

विधिपूर्वक करी प्रार्थना 

अहम् भाव पूर्ण मिटाया !


सीता से फिर हुआ मिलन 

दोनों के सब कष्ट मिटे, 

सेना में जय घोष उठा 

अंधकार के मेघ छँटे !


हम निज अल्प प्राप्ति पर भी 

गर्वित हों कब शोभा दे,   

माँ की शक्ति से ही सदा 

तन-मन का अस्तित्व रहे !


वही करावन हारा है 

उसी को सौंपें हर भार 

हल्के हो जगत में रहें 

यदि करना स्वयं उद्धार !



सोमवार, अक्तूबर 23

शिकायत ख़ुद से भी अनजान हुई



  शिकायत ख़ुद से भी अनजान हुई 



खुद से खुद की जब पहचान हुई

ज़िंदगी फ़ज़्र की ज्यों अजान हुई 


जिन्हें गुरेज था चंद मुलाक़ातों से 

गहरी हरेक से जान-पहचान हुई 


तर था दामन अश्रुओं से जिनका 

मोहक अदा सहज मुस्कान हुई 


दिलोजां लुटाते हैं अब जमाने पर

  शिकायत ख़ुद से भी अनजान हुई 


फासले ही हर दर्द का सबब बनते 

मिटी दूरी सुलह सबके दरम्यान हुई 

गुरुवार, अक्तूबर 19

अनजाने पथ पर वह सहचर

अनजाने पथ पर वह सहचर

नव सृजन घटे नव द्वार खुलें

 कदम पड़ेगा जब अनंत का,

नूतन राग जगेंगे,  जैसे 

 शीश उठाये कोमल दूर्वा !


नव भाषा, नव छंद, शब्द नव 

है अपार उसका भंडारा,  

मिलकर जिससे जीवन जी ले 

मिले सदा के लिए सहारा !


पुष्प खिलेंगे जब श्रद्धा के 

 इक अभिनव मुस्कान उठेगी, 

हर लेगी हर तमस भाव वह 

शुभ्र ज्योत्सना छा जाएगी !


चहुँ दिशाओं में गुंजित सदा 

  तान नशीली प्रेम की अमर, 

हाथ पकड़ कर ले जाता है 

अनजाने पथ पर वह सहचर !


अंतर्यामी मन का वासी 

जो आह्लादित पल-पल रहता, 

अति निकटता के क्षण में कभी  

मौन मुखर उसका हो जाता !


 अपना वही नहीं जो सपना 

हाथ बढ़ाकर छूलें जिसको, 

जिसके होने से ही जग है 

कैसे भला बिसारें उसको !


मंगलवार, अक्तूबर 17

अबकी बार नवरात्रों में

अबकी बार नवरात्रों में 


तंद्रा, प्रमाद सताते हैं 

देह को अथवा मन को  

आत्मा सदा ही सचेतन है !

पर जैसे काली हो जाये चिमनी

 तो प्रकाश नहीं आता 

प्रमादी हो जाये देह या मन तो 

आनंद आत्मा का बाहर नहीं आता !

देह-दीपक जब साफ़ नहीं रहता 

तो मन-स्नेह कैसे भरा जाएगा उसमें 

देह दीपक में स्नेहिल मन हो 

तभी न आत्मा की ज्योति जगमगायेगी 

और देख वह जोत, अबकी बार 

नवरात्रों में माँ हमारे घर आएगी 

योग से देह-दीपक सजाना है 

ध्यान से मन-स्नेह जलाना है 

तब प्रकटेगी वह अखंड ज्योति 

जो अभी सोयी है 

अंधकार में भटक रोयी है !


रविवार, अक्तूबर 15

माँ प्राण का आधार भी है


माँ प्राण का आधार भी है 

 

जो थामती है हर विपद में 

 दे ज्ञान दीपक पथ दिखाती,

माँ प्राण का आधार भी है 

  रात्रि बनकर  विश्राम देती !


सौंदर्य की देवी कहाए

इस जगत को आकार देती, 

शिव से मिलन की प्रेरणा दे 

ले कर स्वयं कैलाश जाती !


अपार ऊर्जा धारे देवी 

 दर्शन परम अनंत कराती, 

 जगत दात्री बनी सिद्धि रिद्धि

निःशंका जो सदा विचरती !


महातपस्विनी जगत माता  

पराम्बा, जया, महायोगिनी, 

शिव प्रिया,  अंबा, महागौरी 

जगत तोषिणी दिव्यतोषिणी !


गुरुवार, अक्तूबर 12

नवरात्रि का करें स्वागत

नवरात्रि का करें स्वागत 


बस दो दिनों की प्रतीक्षा 

फिर देवी का आगमन होगा 

गरबे की धूम मचेगी 

घरों में कलश स्थापन होगा 

मिलजुल कर उत्सव मनाना 

भारत की संस्कृति है 

इन दिनों पूरा वैभव लुटाती प्रकृति है 

हरसिंगार के फूल भोर में झरते हैं 

सारे आलम को दैवीय सुगंध से भरते हैं 

संग मखाने की खीर, कोटू की रोटी 

व साबूदाने की खिचड़ी की महक 

सुबह शाम धूप, अगर बत्ती 

मन्दिरों में अखंड दीपक !

व्रत, उपवास, जप, ध्यान 

दुर्गा सप्तशती का पारायण भी 

कुछ दिनों के लिए 

सोशल मीडिया से पलायन भी !

माँ के आने से खिला-खिला है धरा का मन 

राम लौटेंगे, मनेगा विजयादशमी का दिन !

है शरद का आकाश भी कितना निर्मल 

फैलता हर तरफ़ श्रद्धा का भाव अमल 

नृत्य, संगीत और कलाओं का सृजन करें 

मिलकर भजन और एकांत में मनन करें 

आत्मशक्ति को जगायें हम, माँ बताना चाहे 

उसकी शक्ति है सदा साथ, यह जताना चाहे ! 


बुधवार, अक्तूबर 11

साक्षी

साक्षी 


जैसे दर्पण में झलक जाता है जगत 

दर्पण ज्यों का त्यों रहता है 

पहले देखती हैं आँखें

फिर मन और तब उसके पीछे ‘कोई’ 

पर वह अलिप्त है 

उस पर्दे की तरह 

जिस पर दिखायी जा रही है फ़िल्म 

पर्दा नहीं बनाता चित्र 

पर ‘वही’ बन जाता है जगत 

जैसे सागर ही लहरें बन जाए 

पर पीछे खड़ा देखता रहे 

उठना-गिरना लहरों का   

मन भी दिखाता है एक दुनिया 

विचारों, भावनाओं की 

पर उससे निर्लिप्त नहीं रह पाता 

यही तो माया है !


सोमवार, अक्तूबर 9

अपनों का प्यार

अपनों का प्यार

यहाँ कुछ और नहीं 

जीवन ही साध्य है 

हर सुख टिका है जिस पर 

भौतिक, मानसिक, आत्मिक 

स्वास्थ्य ही प्राप्य है 

श्वासें जो भीतर जा रहीं 

अनमोल हैं 

 बिना उनके देह पड़ी हो सम्मुख 

न उसका कोई मोल है 

  हों निरोगी

हैं जो अस्वस्थ 

 धन पाएँ निर्धन

 जगे सौभाग्य अभागों का

 न्याय 

मिले पीड़ितों को

वंचितों को 

उनका अधिकार 

अकेले हैं जो उन्हें 

अपनों का प्यार !


शनिवार, अक्तूबर 7

हल्का हो मन उड़े

हल्का हो मन उड़े


यादों की गठरी ले 

तन-मन ये चलते हैं, 

कल का ही जोड़ आज 

 संग लिए फिरते हैं !


कोई तो उतारे बोझ

हल्का हो मन उड़े, 

एक बार बिना भार 

ख़ुद से फिर आ जुड़े !


असलियत जान वह 

राज यही खोलेगा, 

प्रियतम है साथ सदा 

बात हर तोलेगा !


बुधवार, अक्तूबर 4

भावों का अभाव उर खलता


भावों का अभाव उर खलता


बनता सहज अभाव का भाव

 भावों का अभाव उर खलता

टिकी ‘नहीं’ पर  नज़र  सदा ही 

मन ‘है’ को  देख नहीं पाता  !


जग, सोने का अभिनय करता

नूतन रंग सपन में भरता,

पल दो पल का भ्रम है सपना 

 सत्य  देखने से यह डरता  !


 कठिन जगाना जगे हुए को

 जल से तेल न होता हासिल,

फिर भी जतन यहाँ जारी है 

दूर दिखायी देता साहिल !


कभी होश आ खुलेगी आँख 

नभ निज होगा जगेंगी पाँख,

देर न हो जाये डर यह है

रिसता जीवन लाखों सुराख !