मेघा ढूँढें आसमान को
मंज़िल पर ही बैठ पूछता
और कहाँ ? कितना जाना है ?
क्यों न कहें उर को दीवाना
अब तक भेद नहीं जाना है !
सागर में रहकर ज्यों लहरें
घर का पता पूछती मिलतीं,
मेघा ढूँढें आसमान को
घोर घटाएँ नीर खोजतीं !
लिए प्रेम का एक सरोवर
प्यासा उर प्यासा रह जाता,
पनघट तीर खड़ा है राही
इधर-उधर तक टोह लगाता !
भीतर एक आँख जगती है
कोई साथ चला करता है,
देख न पाये चाहे उसको
योग-क्षेम धारण करता है !
आराध्य बना लेगा अंतर
मस्तक जिस दिन झुक जाएगा,
गीत समर्पण के फूटेंगे
प्राणों में बसंत छायेगा !
आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों के आनन्द में" रविवार 24 दिसम्बर 2023 को लिंक की जाएगी .... http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा ... धन्यवाद! !
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत आभार यशोदा जी !
हटाएंसुन्दर रचना
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार !
हटाएंबहुत सुंदर रचना
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार !
हटाएंबहुत सुंदर 👌👌
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार !
हटाएंबहुत सुन्दर !
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार !
हटाएंसुंदर रचना
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार !
हटाएंखेल तो अंतर का ही है बस ... उसे समझाना आसान कहाँ ...
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार !
हटाएं