हर दिन नयी भोर उगती है
दिन भी सोया सोया गुजरा
दु:स्वप्नों में बीती है रात,
जाग जरा, ओ ! देख मुसाफ़िर
प्रमाद लगाये बैठा घात !
चाह अधूरी सर्प सी लिपट
कर्मों की गठरी भी सिर पर,
कदम थके हैं, भय अंतर में
कैसे पहुँचेगा अपने घर !
जीवन चारों ओर खिला है
तू कूपों का बना मंडूक,
जो भी कदम उठे सच्चा हो
अबकी न बाज़ी जाये चूक !
हर दिन नयी भोर उगती है
जब भी जागो तभी सवेरा,
जब निर्भय होकर जीना है
क्यों अतीत ने मन को घेरा !
बेशक, जिंदगी चारों ओर खिला है। देखने का हुनर चाहिए....
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार राहुल जी !
हटाएंसुन्दर
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार !
हटाएंचाह अधूरी सर्प सी लिपट
जवाब देंहटाएंकर्मों की गठरी भी सिर पर,
कदम थके हैं, भय अंतर में
कैसे पहुँचेगा अपने घर !
आध्यात्मिक भाव से ओतप्रोत बहुत ही सुन्दर सृजन अनीता जी 🙏
स्वागत व आभार कामिनी जी !
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