मंगलवार, जनवरी 16

हर दिन नयी भोर उगती है

हर दिन नयी भोर उगती है


दिन भी सोया सोया गुजरा 

दु:स्वप्नों में बीती है रात, 

जाग जरा, ओ ! देख मुसाफ़िर 

प्रमाद लगाये बैठा घात !


चाह अधूरी सर्प सी लिपट

कर्मों की गठरी भी सिर पर, 

कदम थके हैं, भय अंतर में 

कैसे पहुँचेगा अपने घर !


जीवन चारों ओर खिला है 

तू कूपों का बना मंडूक, 

जो भी कदम उठे सच्चा हो 

अबकी न बाज़ी जाये चूक !


हर दिन नयी भोर उगती है 

जब भी जागो तभी सवेरा, 

जब निर्भय होकर जीना है 

क्यों अतीत ने मन को घेरा !


6 टिप्‍पणियां:

  1. बेशक, जिंदगी चारों ओर खिला है। देखने का हुनर चाहिए....

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  2. चाह अधूरी सर्प सी लिपट

    कर्मों की गठरी भी सिर पर,

    कदम थके हैं, भय अंतर में

    कैसे पहुँचेगा अपने घर !

    आध्यात्मिक भाव से ओतप्रोत बहुत ही सुन्दर सृजन अनीता जी 🙏

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