रविवार, जून 23

सत्य



सत्य 


‘मैं’ तुममें विलीन हो जाये 

यही चाह होती है प्रेम की 

यही चाह लघु मन की है 

जो विशाल मन में डुबाना चाहता है ख़ुद को 

अनंत में खोकर अपने बूँद जैसे अस्तित्त्व को 

सागर बनाना चाहता है 

जैसे अग्नि का एक स्फुलिंग 

पुन:  गिर जाये अग्निकुंड में

सूर्य की एक किरण उसमें लौट जाये 

तो बन जाएगी महासूर्य 

और फिर लौटे 

उसके गुणधर्म अलग होंगे 

वह जान लेगी अपना सत्य 

वह वही है 

तत् त्वम्असि श्वेतकेतु ! 



बुद्ध 


नहीं बनाया कोई मंदिर 

 राज महल न ही कोई गढ़ा,

किंतु बुद्ध सम्राट हृदय के 

 यह जग सम्मुख नत हुआ खड़ा ! 


 विदाई 


विदाई की बेला है 

दुख तो स्वाभाविक है 

नम होंगे नयन 

जार-जार अश्रु भी बहेंगे 

पर याद रखना होगा 

हर अंत एक नयी शुरुआत है 

हर रात का होता प्रभात है !


6 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों के आनन्द में" सोमवार 24 जून 2024 को लिंक की जाएगी ....  http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा ... धन्यवाद! !

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  2. तीनों रचनाएँ अनुपम। पहली रचना में जीवनदर्शन प्रभावित कर गया। सादर।

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