बुधवार, अक्तूबर 30

एक दीप अंतर करुणा का

एक दीप अंतर करुणा का


दीप जलायें शुभ स्मृतियों के 

स्मरण करें राघव, माँ सीता,

इस बार दिवाली में हम मिल 

वरण करें कान्हा की गीता !


 साधें सुमिरन आत्मज्योति का

सुदीप जलायें दिवाली में, 

याद करें सभी प्रियजनों को 

जो अंतर में गहरे बसते  ! 


 अवतारों, सिद्धों को पूजा 

 स्मृति में उनकी ज्योति जलायें,  

करुणामय माँ, परम पिता की  

याद का दीप जले हृदय में !


चैतन्य का दीपक प्रज्ज्वलित 

अपने लक्ष्यों को याद करें, 

मंज़िल तक राहों पर पग-पग 

दीप जलायें संकल्पों के ! 


बहे उजियाला संतोष  का 

आशा का भी दीप जलायें,

दीप जलायें उसी स्नेह से 

पिघल-पिघल जो बहे ह्रदय से !


इस धरती को रोशन कर दे 

भाव व्यक्त हों, बहे उजाला, 

दीप जले श्रद्धा का अनुपम  

एक दीप अंतर करुणा का !




सोमवार, अक्तूबर 28

ऑरोविल - प्रभात की नगरी


ऑरोविल - प्रभात की नगरी 

{दूसरा भाग}


संध्या काल में हम आश्रम के निकट स्थित समुद्र तट पर गये, जहाँ कई लोग आये हुए थे। लंबे तट पर जगह-जगह काले बड़े-बड़े पत्थरों से ऊँचे मार्ग बनाये गये थे, जो समुद्र में भीतर तक जाते थे, जिनपर बैठकर या चलकर लोग बिना भीगे सागर की लहरों के नृत्य का आनंद ले सकते थे। आकाश का नीला रंग प्रतिबिंबित होकर सागर को भी गहरा नीला रंग प्रदान कर रहा था, सागर की  मचलती लहरें सदा से हरेक को आकर्षित करती आयी हैं।हमने कई तस्वीरें उतारीं, पुत्र ने ड्रोन से कुछ वीडियो बनाये। कुछ स्थानीय लोग भी आकर अपना वीडियो बनवाने में उत्सुक हो गये। रेतीले तट से पूर्व हरे घास के मैदान थे, जिस पर कई दुकानें भी लगी हुई थीं। पश्चिम में सूर्यास्त हो रहा था, आकाश गुलाबी हुआ फिर सलेटी, और हम अगले दिन सूर्योदय देखने का निर्णय लेकर वापस लौट आये। 


सुबह उठकर हम पुदुचेरी का एक अन्य समुद्र तट ‘पौंडी मरीना बीच’ देखने गये। पूर्व दिशा में उगते हुए सूर्य का गोला पानी में पिघलते हुआ सोने जैसा लग रहा था। गगन में कई रंग छाये थे। हमने पानी में उतरकर लहरों का स्पर्श किया, तेज गति से आती हुई लहरें और पैरों के नीचे से खिसकती हुई रेत का रोमांच जाना-पहचाना सा लग रहा था। धूप तेज हो गई तो हम एक अच्छे से रेस्तराँ में नाश्ता करने गये। इसके बाद बारी थी नौकायन की, बैक वॉटर बोट यात्रा के बारे में कई जगह सुना व पढ़ा था। नाविक ने बताया वह हमें पहले  मैंग्रोव वन ले जाएगा फिर गिंगी नदी के मुहाने पर। नदी में लहरें शांत थीं, दोनों ओर तट बहुत सुंदर और हरियाली से पूर्ण थे। पेड़ों की शाखाएँ नदी को छू रही थीं, जानगल और नदी जैसे एक-दूसरे में समा गये थे। नौका विहार के लिए यह एक लोकप्रिय स्थान है। हमने कई तस्वीरें लीं। नाविक हमें अरिकमेडु नामक पुरातत्व स्थल पर ले गया। प्राचीन काल में यह भारत, रोम और यूनान के मध्य व्यापार का एक केंद्र था।हमने वहाँ किसी प्रचान क़िले के अवशेष देखे, सारा वातावरण दर्शनीय था, अनेक यात्री दो हज़ार वर्ष पुरानी दीवारों के सामने तस्वीरें खिंचवा रहे थे।कुछ देर वहाँ बिताने के बाद हम पुन: मोटर बोट में बैठ गये। नदी के मुहाने पर जाते ही जहाँ से समुद्र आरंभ होता है, वहाँ लहरें तेज हो गयीं, हमारी दस सीटों वाली छोटी नौका डोलने लगी, सभी यात्री रोमांच का अनुभव कर रहे थे। दोपहर को हम साधना फ़ॉरेस्ट देखने गये, यह एक स्वयं सेवी संस्था है जो ऑरोविल से कुछ दूर एक हरे-भरे  स्थान पर स्थित है। एक साधिका ने उसका इतिहास बताया, २००३ में एक इज़राइली जोड़े ने इस ख़ाली पड़ी पथरीली बंजर ज़मीन को देखा था, और जंगल उगाने की शुरुआत की थी।आज यहाँ घना जंगल है, उनकी संस्था भारत में मेघालय और अफ़्रीका के कुछ स्थानों पर भी जंगल लगाने और जल के संग्रह व सरंक्षण का काम करती है।एक स्वयं सेविका ने हमें जंगल का टूर करवाया, जिसकी बातें सुनकर सभी आश्चर्य चकित रह गये। साधना वन में प्रति वर्ष एक हजार स्वयंसेवकों को स्थानीय, प्राकृतिक सामग्रियों से निर्मित झोपड़ियों में निःशुल्क आवास प्रदान किया जाता है। यहाँ पर्माकल्चर पाठ्यक्रम और जलवायु संरक्षण के लिए विभिन्न कार्यशालाएं आयोजित की जाती हैं, राष्ट्रीय वन विभाग के वनवासियों को भी प्रशिक्षित किया गया है ।यहाँ इस्तेमाल होने वाली बिजली सौर ऊर्जा से बनायी जाती है। पुरानी वस्तुओं को रीसाइकिल किया जाता है। पानी की एक-एक बूँद को बचाने का उपाय किया जाता है।मानवीय व सभी तरह के अपशिष्ट से कंपोस्ट खाद बनायी जाती है, जो जंगल में नये वृक्षों को बढ़ने में मदद देती है। उनके आवासों में एसी तो दूर पंखा भी नहीं था। आस-पास के गांवों के बच्चे और युवा इस परियोजना में उत्साहित होकर सक्रिय भाग लेते हैं। हमें बताया गया कि हर शुक्रवार शाम 4:30 बजे जंगल का टूर कराया जाता है, एक इको फ़िल्म दिखायी जाती है और निःशुल्क शाकाहारी जैविक रात्रिभोज भी कराया जाता है। इसके बाद हमने एक ऑर्गेनिक फार्म में उगाये अनाज व सब्ज़ियों से बनाये गये स्थानीय भोजन का आनंद लिया, जो केले के पत्तों पर परोसा गया था। लाल चावल का स्वाद विशिष्ट था। 


पूर्व में क्रांतिकारी रहे स्वतंत्रता आंदोलन के महान नेता महर्षि अरविंद के आश्रम में प्रवेश करते ही एक गहन शांति का अनुभव होता है,  वहाँ इस मौसम में भी सैकड़ों फूल खिले थे। महर्षि तथा श्री माँ की समाधि को फूलों से अति आकर्षक ढंग से सजाया गया था। श्री अरविंद आश्रम 1910 में शिष्यों के एक छोटे से समुदाय से तब विकसित हुआ, जब श्री अरविंद, जेल में एक आध्यात्मिक अनुभव प्राप्त होने के बाद, राजनीतिक जीवन से  सेवानिवृत्त होकर पांडिचेरी में बस गये  थे। 24 नवंबर 1926 को एक प्रमुख आध्यात्मिक अनुभूति के बाद श्री अरविंद अपनी साधना जारी रखने के लिए सार्वजनिक जीवन से से हट कर पूर्ण एकांत में चले गए। इस समय उन्होंने साधकों के आंतरिक और बाहरी जीवन और आश्रम की पूरी जिम्मेदारी अपनी आध्यात्मिक सहयोगी, श्री माँ को सौंप दी, जो मूलत: फ़्रांस की निवासी थीं और जिनका नाम मीरा अलफ़स्सा था। हमने श्री अरविंद की लिखी कुछ पुस्तकें ख़रीदीं।


क्रमश:


शनिवार, अक्तूबर 26

ऑरोविल - प्रभात की नगरी

ऑरोविल - प्रभात की नगरी 


पांडिचेरी को पहले पुदुचेरी के नाम से जाना जाता था।तमिल भाषा के अनुसार पुदुचेरी का अर्थ है “नया शहर”।पहली शताब्दी में रोम से व्यापार के लिए प्रसिद्ध इस शहर को "पोर्ट टाउन" भी कहा जाता था। यह स्थान कभी वेदों में पारंगत विद्वानों का निवास बना था, इसलिए इसे वेदपुरी के नाम से भी जाना जाता है।उपनिवेश काल से पहले यहाँ पल्लवों का शासन था।उसके बाद  चोल तथा पांड्य राजवंशों ने तेहरवीं शताब्दी तक राज्य किया।14वीं शताब्दी के दौरान पुदुचेरी विजयनगर साम्राज्य के शासन के अधीन आया, बाद में जिसे बीजापुर के सुल्तान ने जीत लिया था। सुल्तान के शासन काल में पुर्तगाली और डेनिश व्यापारी इस स्थान को व्यापारिक केंद्र के रूप में इस्तेमाल किया करते थे


उपनिवेश काल की शुरुआत पुर्तगालियों से हुई क्योंकि वे पहले यूरोपीय व्यापारी थे. पुडुचेरी के समृद्ध व्यापार ने फ्रांसीसियों को भी आकर्षित किया और उन्होंने यहाँ एक फ्रांसीसी बस्ती बसायी। ब्रिटिश काल के दौरान भी पुडुचेरी पर फ्रांसीसियों का नियंत्रण था।एक सौ अड़तीस वर्षों के शासन के बाद अंततः 31 अक्टूबर, 1954 को यह फ्रांसीसियों से मुक्त हुआ ।वर्तमान में यह भारत का एक केन्द्रशासित प्रदेश है।


दो वर्ष पूर्व भी हम पुदुचेरी की छोटी सी यात्रा पर गये थे, जहाँ के शांत और स्वच्छ समुद्र तट, फ़्रांसीसी बस्ती, अरविंद आश्रम और ऑरोविल की यादें जब-तब पुन: आमंत्रण देती सी लगती थीं। इस बार नवरात्रि के बाद हमने चार दिनों के लिए पुदुचेरी की यात्रा का कार्यक्रम बनाया तो निश्चय किया कि ऑरोविल के भीतर स्थित किसी अतिथि निवास को ही रहने के लिये चुना जाये।ऑरिविल को सिटी ऑफ़ डॉन अर्थात प्रभात की नगरी भी कहा जाता है।यह पुदुचेरी के  निकट तमिलनाडु में स्थित चार हज़ार एकड़ में फैली एक वैश्विक, प्रायोगिक नगरी है। १९६८ में इसकी स्थापना श्री माँ द्वारा यह स्वप्न देखकर की गई थी कि यहाँ किसी भी देश के नागरिक धर्म, जाति, लिंग,राष्ट्रीयता से ऊपर उठकर बिना किसी भेदभाव के एक साथ रह सकें। इसका उद्देश्य मानवीय एकता की भावना को मूर्त रूप देना है। 


ऑरोविल आश्रम के ‘सारंगा अतिथि गृह’ में प्रवेश करते ही ऐसा लगा मानो हरियाली के सागर में आ गये हों। यहाँ पास-पास इतने अधिक पौधे, लताएँ और पेड़ लगाये गये हैं कि आकाश नज़र ही नहीं आता, वर्षा समाप्त हो जाने के बाद भी पेड़ों की शाखाओं और पत्तों से टप-टप बूँदें बरसती रहती हैं, एक नमी और गीलेपन का अहसास मन में भीतर तक उतर जाता है। एक छोटी चिड़िया मीठे स्वर में गाकर न जाने किसे पुकार रही थी। अतिथि गृह में पुराने समय के अनुसार लाल दीवारों और लाल फ़र्श वाले झोपड़ी नुमा छत वाले कमरे हैं, और हर कमरे के बाहर मिट्टी के विशाल कलात्मक घट रखे हुए हैं, जगह-जगह वृक्षों के तने के नीचे काले पत्थर की गणेश की मूर्ति स्थापित की गई है, एक स्थान पर राधा-कृष्ण व गाय-वत्स की श्वेत मूर्तियाँ भी रखी हैं, जो वातावरण को दिव्य बनाती हैं। अतिथि गृह से मुख्य सड़क पर जाने के रास्ते कच्चे हैं, जिन्हें लाल मिट्टी से समतल किया गया है, हरे-भरे घने वृक्षों के मध्य लाल घुमावदार मार्ग पैदल चलने या साइकिल चलाने के लिए आमंत्रित करते से प्रतीत होते हैं। स्वागत कक्ष के बायीं ओर कुछ बत्तख़ें विचर रही थीं, हमारे निकट जाते ही वे एक स्वर में बोलने लगीं, जैसे कोई चेतावनी दे रही हों, या कौन जाने स्वागत कर रही हों। अतिथि गृह में स्वयं भोजन बनाने की सुविधा भी प्रदान की गई है। खुला-खुला डाइनिंग हॉल छत के नीचे तथा  बाहर बगीचे तक फैला हुआ है। चारों और बाग-बगीचे हैं, जिनमें टेराकोटा के सुंदर विशाल घड़ों व गमलों में पौधे उगाये गये हैं। हम चार दिन वहाँ रहे,  हर दिन थम-थम कर वर्षा होती रही। ऑरोविल में ऐसे कई अतिथि गृह हैं। वहाँ के प्रसिद्ध सोलर किचन में दोपहर व रात्रि का भोजन किया जा सकता है, स्वादिष्ट व पौष्टिक  प्रातः राश अतिथिगृह में मिलता है। पूरे आश्रम में  कैश के रूप में धन का उपयोग नहीं किया जाता है, हर अतिथि को ज़रूरत के अनुसार मूल्य का एक ऑरो कार्ड दिया जाता है,  जो हर जगह इस्तेमाल कर सकते हैं। 


क्रमश:


गुरुवार, अक्तूबर 24

जीवन यही तो माँगता

जीवन यही तो माँगता


हम कौन हैं ? यह याद है ?

गर याद,  दिल आबाद है 

आबाद है इक ख़्वाब से 

मंज़िल यहीं, इस बात से  !

 

 है याद? हमको क्या मिला?

गर याद है तो क्या गिला !

पग धरने को धरती मिली 

उड़ने को आसमां मिला !


साँसे मिलीं, इक मन मिला 

 मन में बसा प्रियतम मिला, 

 यह याद है ? क्या भेंट दी 

गर याद है तो क्या किया ? 


माँगा सदा चाहा सदा 

सिमटा ह्रदय बाँटा कहाँ,

जो पास अपने गर लुटा 

रोशन रहे दिल का जहाँ  !


सुख-चैन बरसेगा अगर 

चलता रहे दिन-रात बस 

हम कौन?हमको क्या मिला? 

से क्या दिया? का सिलसिला !


मंगलवार, अक्तूबर 22

देव और असुर

देव और असुर 


किन्हीं सबल क्षणों का नाम देव 

और दुर्बल क्षणों का नाम असुर रखकर 

मानव ने मुक्ति पा ली !


जब मन स्वस्थ है, सजग है 

आशान्वित है 

देव है हमारे साथ !


जब क्लांत है मन 

घिरा-घिरा किन्हीं अशुभ ग्रहों से 

माना कहीं नहीं है !


किंतु क्यों रहे मन में विषाद 

क्यों उखड़ें श्वासें 

क्यों निकले स्वेद बिंदु 

क्यों उर तड़पे 

सत्कर्म नहीं कुछ 

सिर्फ़ अक्रियता 

यही है असुर !

सोचें सारी कुंद हो जातीं 

जब साथ नहीं देव !


रविवार, अक्तूबर 20

यात्रा

यात्रा 


मन के पार

एक अजाना लोक छिपा है 

 जहाँ से रह-रह कर 

आहट आती है शांति की 

गूँज सुनायी देती है 

किसी अन्य काल की 

यात्री को आगे बढ़ना है 

और आगे 

जिसने अनंत को चुन लिया 

फिर विश्राम कैसा 

स्वयं के अप्रतिम रूप से 

अपरिचय कैसा 

अपने घर लौटने में संकोच कैसा 

सहेजने में अपनी विरासत को 

गुरेज़ कैसा 

माँ के चरणों में बैठने से 

हम क्यों चूक जायें 

पिता के स्नेह पर हम क्यों न

अपना अधिकार जतायें 

जो शाश्वत है उससे क्यों न नाता जोड़ें 

माया में बंधकर ख़ुद से मुख मोड़ें 

अनमोल हीरे हमने छिपाये है 

व्यर्थ पत्थरों को ख़रीद लाये हैं 

जब जागो, तभी सवेरा है 

उस का तो लगता हर घड़ी फेरा है ! 



गुरुवार, अक्तूबर 17

हकीकत



हकीकत 


"हर रात सपनों से भरी थी 

दिवस कोई ख़ाली कहाँ था 

कहाँ पाते ओ ! रब तुझे हम 

बंद जग का हर इक मकाँ था" 



जाना कहाँ था, पहुँचे कहाँ हैं 

दाता का दर सदा ही खुला है 


 भटके थे राह अब चेत आया 

क्या वह मिलेगा जो था गँवाया 


भूले हुए जब घर लौट आते 

कहते हैं, फिर न भूले कहाते 


माँ देखे पथ पिता बाट तकते 

जल्दी जरा ठिकाने को लौटें 


अब भी समय है इसे न गँवायें 

अपनी हकीकत जानें, जतायें 


शुक्रवार, अक्तूबर 11

बदलता हुआ बनारस


बदलता हुआ बनारस 

कल दोपहर हम असम से कोलकाता के लिए रवाना हुए। एयरपोर्ट से सीधे स्टेशन का रुख़ किया, जहां से हमें बनारस के लिए कालका मेल पकड़नी थी। सुबह नींद खुली तो सासाराम आ गया था। खेतों में सुनहरी फसल खड़ी थी, कहीं कट रही थी, कहीं कटने के इंतज़ार में। कहीं मीलों तक फैले खेत ख़ाली पड़े थे। खेतों में आदमी और औरतें दोनों काम कर रहे थे। मुगलसराय स्टेशन पर उतरते ही एक टैक्सी वाला सामने आ गया, उसके पास अम्बेस्डर कार थी। कहने लगा एक दो वर्षों में यह कारें दिखना बंद हो जायेंगी, अब पुर्ज़े नहीं मिलते इसके।ननद के घर पहुँचे तो सामान ऊपर तक पहुँचा गया, बनारस में ही ऐसे टैक्सी ड्राइवर मिल सकते हैं। अगले हफ़्ते पुत्र भी आ रहा है, कह कर गया है, उसे भी वही लेने जायेगा।कल सुबह नाश्ते के बाद हम सभी को गंगा घाट जाना है, परसों वापस लौटेंगे। गंगा स्नान, मणिकर्णिका घाट और विश्वनाथ मंदिर के दर्शन करने हैं। परसों शाम को पंचकर्मा केंद्र जाना है। दुनिया के कई देशों से लोग बनारस आते हैं। बाबा विश्वनाथ की इस नगरी को प्राचीन सप्तपुरियों में स्थान मिलने के कारण काशी की महिमा अपार है। 

सुबह नींद जल्दी खुल गई। अस्तित्त्व हमें हर पल अपनी ओर बुलाता है। उसके सान्निध्य में हम एक पल में ही तृप्त हो सकते हैं,  पर अगले ही पल हमारी बुद्धि अनेक क्षेत्रों में भ्रमण करने लगती है। सदा उपलब्ध दिव्य ऊर्जा को हम यूँ ही गँवा देते हैं। हमारा होटल बिल्कुल गंगा घाट पर स्थित है। इसका नाम मीर घाट है, अपेक्षाकृत काफ़ी साफ़-सुथरा और आरामदेह है।बाहर की गर्मी का अहसास इस कमरे की ठंडक में नहीं हो रहा है। सामान रखकर हम सभी दशाश्वमेध घाट तक गये। शीतला माता के मंदिर के सामने लोगों की क़तार लगी हुई थी। आस-पास की गंदगी से जैसे उन्हें कोई फ़र्क़ ही नहीं पड़ रहा था।कीचड़, सूखे हुए फूल, पत्ते और कहीं कागज के टुकड़े, प्लास्टिक की थैलियाँ इधर-उधर बिखरी हुई थीं। शायद सुबह सफ़ाई हुई होगी, पर यहाँ दिन भर यात्रियों का ताँता लगा रहता है, और अधिकतर गाँवों से आने वाले लोग होते हैं, जिन्हें शायद साफ़-सफ़ाई से ज़्यादा लगाव नहीं होता। विविध दृश्यों को देखते हुए हम कुछ फल ख़रीद कर वापस लौटे। 


दोपहर बाद हम मणिकर्णिका घाट गये, जहां का दृश्य विचित्र था। दस-बारह शव जल रहे थे, जैसे ही एक शव जलता, वे चिता पर पानी डालकर उसे ठंडा कर देते व फूल चुनकर गंगा में बहा देते थे। सीढ़ियों पर कुछ लोग बैठे थे, जिनके प्रियजन उस पार जा रहे थे, पर कोई रोना-धोना नहीं था। उत्सव सा ही लग रहा था, मृत्यु का उत्सव ! लकड़ियों के ढेर लगे थे और तेज हवा में चितायें धू-धू कर जल रही थीं। पुआल में एक अंगारा रखकर चिता जलाने के लिए लाया जाता था, देखते ही देखते नई-नई देहें चिता पर रखी जा रही थीं। यह क्रम चौबीस घंटे चलता रहता है। कहते हैं काशी में मरने वालों को मोक्ष मिल जाता है। शिव का स्थान है काशी। गंगा की धारा हज़ारों वर्षों से बह रही है, मृतकों को अपने आश्रय में लेती आ रही है, फिर भी लोग इसे पावनी गंगा मानते हैं। अभी कुछ देर बाद हम भी इसकी धारा में स्नान करेंगे। अपने अंदर के कल्मष को दूर करने में यह स्नान अवश्य ही सहायक होगा। 


दोपहर बाद चार बजे हम नाव में सवार होकर गंगा पार गये, जहाँ पहले से कुछ नावें खड़ी थीं, लोग स्नान कर रहे थे। पानी पहले तो शीतल लगा फिर तन अभ्यस्त हो गया। गंगा के पावन जल का स्पर्श अत्यंत सुखकारक था, कभी-कभी पैरों के नीचे लोगों के छोड़े हुए वस्त्र छू जाते थे। सफ़ाई की बहुत आवश्यकता है यहाँ पर, लोगों की भीड़ अनवरत आती रहती है कि सफ़ाई के लिए अलग से समय निकालना कठिन होता होगा। वापस आकर शाम को हम दशाश्वमेध घाट पर आरती देखने गये। गोदौलिया चौराहे के आगे कोई वाहन नहीं जाता, लोगों का विशाल हुजूम यहाँ रोज़ ही आता है, जैसे कोई मेला लगा हो। किसी त्योहार के होने पर यात्रियों की भीड़ कुछ अधिक ही बढ़ जाती है। घाट का वातावरण दिव्य प्रतीत हो रहा था। आरती के लिए विशेष मंच बनाये जाते हैं, जिनपर फूलों की पंखुड़ियाँ बिछायी गई थीं। सुंदर वस्त्रों से सुसज्जित सात पुजारियों ने मंत्रोच्चरण व घंटा ध्वनि के साथ आरती आरम्भ की। गायक और वादकगण के साथ  वेदी पर बैठकर सुनने का सौभाग्य मिला। भजन सुमधुर थे और आरती भव्य थी।अद्भुत क्षण थे वे, परमात्मा की कृपा का अनुभव हो रहा था। आरती समाप्त होने पर होटल में स्वादिष्ट भोजन ग्रहण किया। पुन: बाहर निकले, आगे बढ़ते हुए हम काशी विश्वनाथ कारिडोर के मुख्य द्वार पर पहुँच गये। भारत माता के नक़्शे के साथ मूर्ति भी विशाल प्रांगण में बायीं और लगी थी और दूसरी ओर अहल्याबाई की मूर्ति थी। बाबा विश्वनाथ के मंदिर के दर्शन किए, वहाँ पुलिस का सख़्त इंतज़ाम था। वहाँ से लौटते हुए मार्ग में  माँ अन्नपूर्णा  का मंदिर, शनिदेव, बड़े हनुमान, माँ विशालाक्षी तथा कुछ अन्य छोटे मंदिर भी देखे। एक जगह मलाई वाला दूध बिक रहा था, उसका आनंद लिया और होटल लौट आये। आकाश में चंद्रमा देदीपम्यान हो रहे थे और हवा शीतल थी। कुछ देर ध्यान किया। साढ़े दस बजे सुबह चार बजे का अलार्म लगाकर हम निद्रादेवी की शरण में चले गये।



अब प्रातः काल हो गया है। आकाश में हल्की लालिमा दिखनी शुरू हो गई है। होटल के कमरे से बाहर बालकनी से सूर्योदय का दृश्य हमने कैमरे में क़ैद कर लिया है।अब सूर्योदय का दर्शन करते हुए हम साधना करना चाहते हैं। गंगा तट पर प्राणायाम तथा योगासन करने का सुअवसर बार-बार नहीं मिलता। कुशल योग शिक्षक ने तट पर योगासन करवाए। उसके बाद सभी उस दुकान पर चाय पीने गये, जो यहाँ अति प्रसिद्ध है। वहाँ लोग पंक्ति में खड़े थे, दुकानदार हरेक को ताजी चाय बनाकर देता था, लेमन टी या मसाला चाय। एक वृद्ध वहाँ खड़ा था, मैंने उसे अपना कप पकड़ा दिया, वह तत्क्षण हमारा शुभचिंतक हो गया। जब दुकानदार ने शेष पैसे वापस नहीं दिये  तो वह चिंतित हो गया, बाद में हमने एक चाय और ली, तब वह निश्चिंत होकर चला गया। वहाँ से लौटे तो मन में घाट पर ध्यान करने की इच्छा प्रबल हो गई थी, एक चबूतरे पर बैठकर गंगा की लहरों से आती ठंडक तथा सूर्य की नव रश्मियों का स्पर्श करते हुए कुछ देर ध्यान किया। साढ़े आठ बजे हम नाश्ते के लिए गये। मार्ग में वाराही देवी के मंदिर में दर्शन किए, यह मंदिर एक गली में स्थित है, यहाँ दर्शन भी विचित्र ढंग से होते हैं, ऊपर से एक चौकोर छेद में से झांककर नीचे देखना था, नीचे जिस कक्ष में मूर्ति रखी थी, वहाँ जाना संभव नहीं था। वाराणसी की हर गली में कोई न कोई छोटा बड़ा मंदिर है। अद्भुत नगरी है है यह।  इसके बाद नौका में गंगा विहार की बारी थी। नाव चलाते हुए नाविक कई रोचक बातें बता रहा था। जिन फ़िल्मों की शूटिंग गंगा किनारे हुई है, उनके नाम उसे याद थे। नदी में सैकड़ों पक्षी आ-जा रहे थे। हमने उन्हें दान डाला, वे आवाज़ लगाने पर निकट आते और दाना लेकर उड़ जाते। 



शाम को चार बजे हम ‘स्पर्श आयुर्वैदिक केंद्र’ के लिए निकले।जहां का अनुभव वर्णनातीत है। कपूर मिले सुगंधित तेल से शिरोधारा का हमारा पहला अनुभव था। इसके बाद वाष्प स्नान करवाया गया।वहाँ से लौटे तो तन-मन हल्के हो गये थे। रात्रि को अच्छी नींद आयी। अगले दिन कुछ मित्र परिवारों से मिलने जाना था। पहले मित्र की बिटिया की नन्ही गुड़िया से पहली बार मिले, बहुत नटखट है। दूसरी जगह गये तो वहाँ शोक का माहौल था, कुछ समय पहले परिवार के मुखिया की मृत्यु हो गई थी। कुछ देर में सब सामान्य हो गया।शाम को हम निकट स्थित पार्क में टहलने गये। वापसी में अंधेरा हो गया था। सब तैयार हुए, एक शादी में जाना था। मंडप सुंदर सजा था। भोजन भी अच्छा था। दाल बाटी चूरमा का आनंद लिया। देर रात घर लौटे। 


अगले दिन सुबह अस्सी घाट पर सुबह के समय होने वाली भव्य व अलौकिक आरती में भाग लिया।पाँच तत्त्वों के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करते हुए युवा साधिकाओं ने वेद के मंत्रों का उच्चारण किया। धूप, कपूर, अग्नि, मोर पंख तथा चंवर आदि से आरती संपन्न हुई। हमने पुष्पांजलि अर्पण की। इसके बाद शास्त्रीय संगीत का कार्यक्रम था। तब तक पूर्व में लालिमा प्रगाढ़ हो गई थी। सूर्य का लाल गोला जल से ऊपर उठ रहा था।हमने सुंदर चित्र उतारे, मिट्टी के कप में चाय पी और न चाहते हुए भी गंगा के सान्निध्य को छोड़कर वापस लौट आये। दिन का समय ख़रीदारी के लिए रखा था, धूप बहुत तेज थी। शायद धूप लग गई, रात को स्वास्थ्य बिगड़ गया। सुबह ननद ने आमपन्ना बनाकर पिलाया, आम के छिलकों से हथेली व पैरों के तलवों की मालिश की। शाम को पुदीने का शरबत और भी कुछ घरेलू उपाय किए। मोहल्ले के डाक्टर भी घर आकर देख गये। फ़ीस भी नहीं ली। उनकी बातों से बहुत उत्साह मिला। बनारस की हवा में कुछ बात है, लोग ख़ुशदिल हैं और बड़े दिल वाले भी। एक पुरानी परिचिता का फ़ोन आया, वह अपने घर आमंत्रित कर रही थीं। एक पुराने मित्र दंपति मिलने आये। गृहणी की बातें बड़ी रोचक थीं। हरी-भरी सब्ज़ी देखकर उनकी तबियत हरी-भरी हो जाती है और चाय का पानी खौले उसके पहले उनका खून खौलने लगता है।देवरानी की शिकायत कर रही थीं और बहू के सुस्त होने की भी। उनके जाते ही मन ही मन जीवन जीने की कला के सूत्र दोहराये, मन की समता बनाये रखना, जो जैसा है उसे वैसा ही स्वीकार करना, दूसरों की बातों से प्रभावित न होना, अन्यों की भूलों को क्षमा करना, वर्तमान में रहना। आत्मीयता, सरलता और सरसता जीवन में हों तो विकार नहीं सताते। कल हमें कोलकाता जाना है।


आज दोपहर हम कोलकाता के गेस्ट हाउस पहुँचे हैं। रात को एक मित्र परिवार की बिटिया के विवाह में सम्मिलित होना है। शाम तक का समय बिताना था सो हम निकट स्थित फ़ोरम मॉल देखने चले गये।गुड्डू ने हमारे लिए चाय मंगायी और अपने लिए कॉफ़ी, साथ में कुकीज़। चाय काफ़ी बड़े से सुंदर कपों में परोसी गई थी, बिल भी काफ़ी आया होगा। शानदार चमकती हुई दुकानें थी फ़ोरम में। नीचे उतर कर आये तो छोटे-छोटे बच्चे नंगे बदन मिट्टी में खेल रहे थे। जिनके पास घर तक नहीं है, शिक्षा तो दूर की बात है। इस दुनिया में कितना असमानता है। किंतु इस सबके पीछे एक तत्व है जिसने सबको बाँधा  हुआ है, और जो हर हाल में भीतर शक्ति देता है। 


कल सुबह लगभग दस बजे हम विवाह स्थल पर पहुँचे थे। बहुत अच्छा इंतज़ाम था। पूजा चल रही थी।मेहँदी की रस्म हुई। दोपहर बाद लौट आये, शाम को पुन: गये। वहाँ कई रस्में हुईं, दूल्हे का स्वागत, जयमाला, फेरे, शुभ दृष्टि और कन्यादान मामा के द्वारा किया गया। कुल मिलाकर सभी कुछ बहुत शांति से और भव्यता के साथ संपन्न हुआ। बंगाली दुल्हन द्वारा मारवाड़ी दूल्हे के चारों और फेरे लेने की प्रथा अनोखी थी। एक समरसता पूरे वक्त बनी हुई थी, दूल्हे की माँ बहुत सुलझे हुए विचारों वाली महिला हैं।आज हमें वापस जाना है। घर पहुँच कर भी कुछ दिन तक हम यात्रा की बातें करते रहे। 

  


बुधवार, अक्तूबर 9

रेत पर टिकते नहीं घर

रेत पर टिकते नहीं घर

​​

स्वप्न ही तो है जगत यह 

टूटना नियति है इसकी, 

सत्य मानो या सहेजो 

छूटना फ़ितरत इसी की ! 


आँख भरकर देख लो बस 

मुस्कुरा लो साथ मिलकर, 

किंतु न बाँधो उम्मीदें 

रेत पर टिकते नहीं घर !


ओस की इक बूँद हो ज्यों 

है यही सौंदर्य इसका, 

गगन में रंगों का मेल 

नदी में ज्यों बहे धारा !


प्रीत की जो बेल बोई 

वह सदा उसके लिए है, 

भ्रम हुआ जब जगत चाहा 

शाश्वत सदा अप्रगट है !


जगत माला में पिरोया 

स्वयं बनकर पूर्ण आया, 

स्वयं को ही देखते हम 

स्वप्न का लेते सहारा !


सोमवार, अक्तूबर 7

असली नवरात्रि

असली नवरात्रि 


कामना जगी तो

 धुआँ-धुआँ कर देती है भीतर 

अग्नि आत्मा की बुझ जाती है 

बुझती नहीं तो छुप जाती है !


हर चाह मन के दर्पण पर 

चिपक जाती है 

धूल की परत बन कर 

झलक आत्मा की खो जाती है 

खोती नहीं तो ढक जाती है !


आत्मा का सूरज जहाँ चमकता है 

वहाँ पारदर्शी होता है मन 

अग्नि प्रज्ज्वलित होती है 

पूरे वैभव में 

इच्छा की सुलगती लकड़ियाँ 

कोई धुआँ नहीं देती 

सारे बीज सुख गये होते हैं संस्कारों के 

जो तड़-तड़ कर जलते हैं !


देदीपम्यान होता है भीतर का आकाश 

और यही लक्ष्य है हर मानव का 

फिर भी ख़ुद को भरमाते हैं 

लड़ते और लड़वाते हैं 

माँ को सौंप दें सारी आकांक्षाएँ 

असली नवरात्रि तभी तो मनेगी 

दिल की बगिया 

फिर-फिर खिलेगी !