सोमवार, नवंबर 22

खिला-खिला मन उपवन होगा

खिला-खिला मन उपवन होगा 


एक अनेक हुए दिखते हैं 

ज्यों सपने की कोई नगरी, 

मन ही नद, पर्वत बन जाता 

एक चेतना घट-घट बिखरी !


कैसे स्वप्न रात्रि में देखें 

कुछ खुद कुछ अज्ञात तय करे, 

जीवन में भी यही घट रहा 

जगकर देखें कहाँ खो गए !


एक जागरण नित्य प्रातः में 

स्वप्नों से जो मुक्ति दिलाए, 

परम जागरण ऐसा भी है 

जीते जी यह जग खो जाए !


एक तत्व में टिकना हो जब 

जीवन तब क्रीडाँगन होगा, 

अपने हाथों दुःख कब बोए 

खिला-खिला मन उपवन होगा !


जिस क्षण थामी बागडोर निज 

सुख-दुःख की ज़ंजीरें टूटीं, 

इक ही अनुभव व्यापा मन में 

समता उपजी ममता छूटी !



5 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी इस कविता में और कुछ इससे पूर्व रची गई कतिपय कविताओं में जीवन-दर्शन है या यूं समझा जाए कि ज़िन्दगी और दुनिया के मुताल्लिक आपकी अपनी फ़िलॉसॉफ़ी है। कोई इसे सरलता से समझ सकता है तो किसी को समझने में कठिनाई आ सकती है। मैंने आपकी इन कविताओं को इनमें डूबकर समझने की कोशिश की है। कहीं मैं आपसे सहमत होता हूँ तो कहीं असहमत। फिर भी आपकी अपने आपको (अपने भावों एवं समझ-बूझ को) अभिव्यक्त करने की प्रतिभा असाधारण है, इसे स्वीकार करने में मुझे कोई संकोच नहीं। अभिनंदन आपका।

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    1. आपने पहले भी कई बार कविता की गहराई में जाकर इसके मर्म को समझने का प्रयत्न किया है,इन कविताओं में आपको जीवन दर्शन नजर आता है, यह आपका दृष्टिकोण हो सकता है पर मेरे लिए इनमें वे सत्य हैं जो समय-समय पर अनुभव होते रहे हैं. ये रचनाएँ बिलकुल सीधीसादी हैं, इनमें काव्य की बारीकियां नहीं हैं, पर हृदय की बात है.हम रोज ही सपने देखते हैं, वर्षों से स्वप्न मुझे अचंभित करते आ रहे हैं, अंततः वे हमारे मन की ही रचना हैं, नींद खुलते ही वे विलीन हो जाते हैं. क्या इसी तरह हम अपने जीवन में मन के द्वारा ही नहीं चलते, मन जो कल्पनाओं का जाल बुनने में सक्षम है, ध्यान में मन भी खो जाता है, मेरी अनेक रचनाएँ ध्यान के अनुभव से उपजी हैं.

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  2. बहुत सुंदर सार्थक चिंतनपूर्ण सृजन आदरणीय अनीता जी,आपको नमन और वंदन ।

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