बुधवार, अक्तूबर 9

रेत पर टिकते नहीं घर

रेत पर टिकते नहीं घर

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स्वप्न ही तो है जगत यह 

टूटना नियति है इसकी, 

सत्य मानो या सहेजो 

छूटना फ़ितरत इसी की ! 


आँख भरकर देख लो बस 

मुस्कुरा लो साथ मिलकर, 

किंतु न बाँधो उम्मीदें 

रेत पर टिकते नहीं घर !


ओस की इक बूँद हो ज्यों 

है यही सौंदर्य इसका, 

गगन में रंगों का मेल 

नदी में ज्यों बहे धारा !


प्रीत की जो बेल बोई 

वह सदा उसके लिए है, 

भ्रम हुआ जब जगत चाहा 

शाश्वत सदा अप्रगट है !


जगत माला में पिरोया 

स्वयं बनकर पूर्ण आया, 

स्वयं को ही देखते हम 

स्वप्न का लेते सहारा !


10 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" पर गुरुवार 10 अक्टूबर 2024 को लिंक की जाएगी ....

    http://halchalwith5links.blogspot.in
    पर आप सादर आमंत्रित हैं, ज़रूर आइएगा... धन्यवाद!

    !

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  2. सांसारिकता के सत्य को उद्घाटित करती बहुत सुन्दर रचना ।

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