दुनिया तो बस इक दर्पण है
फूलों की सुवास बिखरायें
या फिर तीखे बाण चलायें,
शब्द हमारे, हम ही सर्जक
हमने ही तो वे उपजाए !
चेहरा भी व तन का हर कण
रचना सदा हमारी अपनी,
अस्वस्थ हो तन या निरोगी
ज़िम्मेदारी ख़ुद ही लेनी !
डर लगता है, गर्हित दुनिया
हम ही भीतर कहते आये,
अपने ही हाथों क़िस्मत में
दुख के जंगल बोते आये !
कभी लोभवश, कभी द्वेषवश
कभी क्रोध के वश हो जाते,
मन के इस सुंदर उपवन को
पल भर में रौंद चले जाते !
कोई नहीं है शत्रु बाहर
ख़ुद ही काफ़ी हैं इस ख़ातिर,
दुनिया तो बस इक दर्पण है
‘वही’ हो रहा इसमें ज़ाहिर !
सच कहा दुनिया तो बस एक दर्पण है , जब हम अपने भीतर छिपे दर्प का नाश करेंगे तभी दुनिया को नए नजरिए से देख पाएँगे ।
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार!
हटाएंआपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" पर गुरुवार 07 अगस्त 2025 को लिंक की जाएगी ....
जवाब देंहटाएंhttp://halchalwith5links.blogspot.in पर आप सादर आमंत्रित हैं, ज़रूर आइएगा... धन्यवाद!
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बहुत बहुत आभार रवींद्र जी!
हटाएंवाह
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार!
हटाएंबेहतरीन
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार!
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