गुरुवार, मई 31

बापू से आज तक


बापू से आज तक

जिसने भी सुने होंगे वे दिव्य वचन
लगा होगा, व्यर्थ ही है
 इसी तरह और जिए चले जाना....

बदलना होगा..
आमूल-चूल परिवर्तन चाहिए ही
ऐसा ही लगा होगा
किन्तु ऐसा करके बना लिये होंगे
अनेक विरोधी उसने

जो प्रमुख थे 
वे तैयार नहीं थे सुनने को
जो सीख रहे थे
 उनके पास अधिकार नहीं थे

जो मानते थे स्वयं को चतुर
उनकी वास्तविक बुद्धिमानी तो
अभी प्रकट ही नहीं हुई थी

पहले भी हुए थे ऐसे महान
वह भी इस कड़ी में अंतिम नहीं होगा
यह भी पता है उसे
यह श्रंखला जारी रहेगी 
जाने कब तक
सत्य का आधार
 चेतना को ही माना था उसने
और यह कोई दोष तो नहीं...

मंगलवार, मई 29

भाई


भाई
अखबार में आने वाली, 
हर पहेली हल करते
उतार चश्मा, नजदीक लाकर, 
महीन अक्षर पढ़ते.... बड़े भाई
अब भी बचपन को सहेजे हैं...
पाँचवें दशक के अंत तक पहुँचे
देख कर लगता है उन्हें
अब भी पढ़ते होंगे
कभी-कभी बाल कथाएँ
प्यार भरी झिड़कियां सुनते
किशोर बेटी की, हँसकर
भाभी की किटी और कीर्तन को झेलते
कर्मठ, समर्पित अधिकारी विभाग के
बड़े भाई जीवन को शिद्दत से जीते हैं...

अर्ध रात्रि, 
एक बड़ा शहर, भीड़ भरा स्टेशन
कार लेकर आया है मंझला भाई
सामान भारी है..आँखें उनींदी..
घर दुमंजिले पर
गाड़ी में ही छोड़ सामान
सोने चले जाते हैं हम
अलसुबह अकेले ही ले आता है
चुपचाप वह सारा सामान...
सुबह की पहली चाय बनाकर पिलाता...
घर व गाड़ी झाड़ता, संगीत बजाता
और आर्मी कैंटीन में
घंटो पंक्ति में खड़े होकर
दिलाता है मनपसंद सामान...
कार्य व परिवार को पूर्णतया समर्पित 
भाई, मंद मंद मुस्काता है....
 
ट्रेन रूकती है रात के दो बजे, 
वह बारह बजे से आकर बैठा था
कहीं आँख न लग जाये
और ट्रेन आ जाये...
सवा तीन बजे हम उतरते हैं
तो चहकता हुआ
वह करता है स्वागत
मानों अभी-अभी सोकर उठा हो तरोताजा..
प्रेम का जादू ही तो है यह
जो रखता है सचेत
नींद और जागरण में एक सा, 
सामान उठाकर रखता है गाड़ी में
और घर में ठहराता है स्नेह से, 
दफ्तर से आते वक्त लाता है फल, मिठाई
इसरार कर खिलाता है
ओशो के सन्यासी
छोटे भाई का मन नहीं भरता..

सोमवार, मई 28

अब जो भी बाधा है पथ में


अब जो भी बाधा है पथ में

 
तुमको ही तुमसे मिलना है
खुला हुआ है मन उपवन,
जब जी चाहे चरण धरो तुम
सदा गूंजती है धुन अर्चन !

न अधैर्य से कँपतीं श्वासें
शुभ्र गगन से छाओ भीतर,
दिनकर की रश्मि बन छूओ
कुसुमों की या खुशबू बनकर !

कभी न तुमको बिसराया है
जगते-सोते याद तुम्हारी,
उठती-गिरती पलक में झलके
मेघों में ज्यों द्युति चमकारी !

जाने कब वह घड़ी मिलेगी
कब ढ़ुलकोगे अमृत घट से,
टूटेंगी कब सीमाएं सब
प्रकटोगे श्यामल झुरमुट से !

अब जो भी बाधा है पथ में
वह भी दूर तुम्हें करनी है
सौंप दिया जब शून्य, शून्य में
तुम्हें कालिमा भी हरनी है ! 

शुक्रवार, मई 25

जीवन की आपाधापी सच


जीवन की आपाधापी सच

जब दुःख की वीणा छेड़ी थी
पीछे चल रहा जमाना था,
अब सुख का राग उठा जब से
सँग अपने अब वीरानी है !

दुःख ही बोये दुःख ही काटे
सुख की भाषा बेगानी सी,
जीवन की आपाधापी सच
उसकी न कोई निशानी है !

जब बरस रहा सुख का बादल
दुःख की छतरी को ओढ़े हैं,
जब सारा आलम है अपना
तिनके जोड़ें क्यों ठानी है !

कुछ मन को ही सब कुछ मानें
कुछ देह सजाने में शामिल,
कुछ रोग मिलें, कुछ कुंठाएं
क्या व्यर्थ नहीं यह रवानी है !

कोई मांग रहे भिक्षा सुख की
रिश्तों की सांकल खटकाए,
जो स्वयं की प्यास बना घूमे
नयनों से बहता पानी है !

जो नहीं है अपने पास यहाँ
आशा औरों से करते क्यों,
अपने दामन में छिद्र हुए
दोहराई वही कहानी है !  

बुधवार, मई 23

भाभियाँ


भाभियाँ

माँ की तरह इसरार करके
तवे से उतारे
ताजे फुलके खिलातीं
और सफर हेतु
टिफिन पैक कर
छोटी सी डिबिया में
आम के अचार की
दो फांकें रखना
नहीं भूलतीं

शांत स्निग्ध मुस्कान देकर
स्वागत व विदा करतीं
मेहमानों से परिचय करातीं

प्रातः भ्रमण को जातीं  
भाई के सँग
मनपसंद धारावाहिक देखतीं
बिटिया को रस पगे
शब्दों से मनातीं
भजन व पूजा में मग्न
भाव पूर्ण नजर आतीं बड़ी भाभी !

सुबह सवेरे गर्मागर्म नाश्ता
फलों की प्लेट
और सजा हुआ घर...
दीवारों पर कलात्मक छाप छोड़तीं
और मधुर शब्दों से
प्रेम का इजहार करतीं
मनुहार भरे शब्दों से
जगातीं बिटिया को  
भाई के दिल की धड़कन है
मझली भाभी !

गोल, गंदुमी चेहरे पर
चमकती, बड़ी सी लाल बिंदी
और प्यारी सी मुस्कान उन्हें  
विशिष्ट बनाती है....

जोश भरे युवा बेटियों का सा
ओशो की सूक्तियां
जो यदा-कदा दोहराती हैं
प्रेमिल व्यवहार से
सबका मन मोहती

मेहमानों का स्वागत करती
सजग सदा स्वास्थ्य के प्रति
भाई का मन बिना कहे
समझ जाती हैं
छोटी भाभी !
  


सोमवार, मई 21

अब सहज उड़ान भरेगा मन



अब सहज उड़ान भरेगा मन


अब वह भी याद नहीं आता
अब मस्ती को ही ओढ़ा है,
अब सहज उड़ान भरेगा मन
जब से इसने घर छोड़ा है !

वह घर जो बना था चाहों से
कुछ दर्दों से, कुछ आहों से,
अब नया-नया सा हर पल है
अब रस्तों को ही मोड़ा है !

हर क्षण मरना ही जीवन है
गिन ली दिल की हर धड़कन है,
पल में ही पाया है अनंत
अब हर बंधन को तोड़ा है !

अब कदमों में नव जोश भरा
अब स्वप्नों में भी होश भरा,
अंतर से अलस, प्रमाद झरा
अब मंजिल को मुख मोड़ा है !



शनिवार, मई 19

कविता अपनी मर्जी से आयेगी


कविता अपनी मर्जी से आयेगी

कभी उगाएगी फूल
कभी दर्द जगायेगी
उसे लाया नहीं जा सकता उस तरह
जैसे बाजार से लाते हैं सामान
वह उतरती है तब
जब भीतर मौसम गाते हैं
कभी सुख के कभी दुःख के
कुछ पल याद आते हैं !

कविता छिपाएगी नहीं कुछ
खोल कर रख देगी सब
अंदर बाहर सब एक कर देगी
तार तार कर देगी वह द्वंद्वों के वस्त्र
कुंठाओं को चीर.. विवश कर देगी

जब उसकी जैसी इच्छा होगी
वही रंग लाएगी
कविता अपनी मर्जी से आयेगी
वह नहीं है कोई हिसाब घर का
नहीं है लेखा-जोखा जीवन का
वह आग है हर सीने में जलती हुई
जो आखिरी दम तक जलाएगी
कविता अपनी मर्जी से आयेगी

गुरुवार, मई 17

बस जीना भर है



बस जीना भर है

मेह बरस ही रहा है
बस भीगना भर है
सूरज उगा ही है
नजर से देखना भर है
शमा जली है
बस बैठना भर है
धारा बह रही है
अंजुरी भर ओक से पीना भर है

उतार फेंकें उदासी की चादर
कि कोई आया है
परों को तोलने का
आज मौका पाया है...

बुधवार, मई 16

एक अजब सी अकुलाहट है


एक अजब सी अकुलाहट है

तन के कण-कण में विद्युत है
जहाँ जोड़ दो वह भर देती,
इक उलझन भी समाधान भी
घोर अँधेरा अथवा ज्योति !

बाहर प्राण ऊर्जा बिखरी
दैवी भी आसुरी भी है,
जिसे ग्रहण करने को आतुर
उससे युक्त सदा करती है !

द्रष्टा जिससे जुड़ जाता है
वही भाव प्रबल हो जाता,
पृथक रहे यदि वह उससे
क्षोभ न कोई छू भी पाता !

जंग लगे जब मन-बुद्धि में
एक अजब सी अकुलाहट है,
विष जब भीतर बढ़ने लगता
बढ़ती जाती घबराहट है !

रोग बनी फिर तन में रहती
या नृत्य की थिरकन बनती,
एक ऊर्जा जीवन देती
वही प्राण में सिहरन भरती !  

सोमवार, मई 14

पले वहाँ विश्वास का मोती


पले वहाँ विश्वास का मोती


संभल संभल के चलने वाला
गिरने से तो बच जायेगा,
गिरकर भी जो संभल गया
उसका गौरव न पायेगा !

पूर्ण बने कोई इस जग में
इसकी नहीं जरूरत उसको,
हृदय ग्राही, निष्ठावान हो
मंजिल की चाहत हो जिसको !

दोराहे हर मोड़ मिलेंगे
मुँह बाएं है खड़ी चुनौती,
हंसकर झेले तब जो उसको
पले वहाँ विश्वास का मोती !

नहीं परीक्षा लेता रब भी
जिसके कदमों में न बल है,
ठोंक-पीट कर उसको देखे
जिसमें बढ़ने का सम्बल है !

जिसको ऊपर ही जाना है
मुड़-मुड़ कर न पीछे देखे,
इस उलझन में गिर सकता वह
जिसकी राह में सुंदर लेखे ! 

शनिवार, मई 12

सदगुरु के जन्मदिन पर


सदगुरु के जन्मदिन पर

पुलक भरी रेशे-रेशे में
रस में डूबा कण-कण मन का,
हल्का-हल्का सा हो आया
पल-पल छिन-छिन इस जीवन का !

एक मदिर कविता सी बहती
श्वासों की यह धारा अविरत,
एक मधुर रुनझुन सा बजता  
भावों का फौवारा अविरत !  

ठहर गया है काल यात्री
क्षण भर में अनंत समाया,
सँवर गया है मन दर्पण में
रूप अनोखा उसको भाया !

तेरा ही प्रसाद है अनुपम
तेरी दया का आंचल है यह,
बरस रहा है अहर्निश जो
तेरी कृपा का बादल है यह !

रेशम से दिन पहर हुए हैं
मखमल चाँद सी रातें मधुरिम,
एक मौन ऐसा पाया है
एक रौशनी मद्धिम-मद्धिम !

जन्मदिवस पर तेरे गाते
उस अनंत तक हम हो आते,
जिसमें तू रहता है पलपल
उस सागर को हम छू आते !

अनिता निहालानी
१३ मई २०१२