शनिवार, सितंबर 27

शुभकामना

प्रिय ब्लॉगर मित्रों,
आने वाले सभी पर्वों के लिए शुभकामना के साथ अगले दस-बारह दिनों के लिए विदा. आज ही हम बंगलुरु तथा कुर्ग की यात्रा पर जा रहे हैं. आशा है आप सभी के जीवन में विजयादशमी का उत्सव नई विजय की सूचना लेकर आएगा. परमात्मा हर क्षण हम सभी के साथ है.

अनिता 

शुक्रवार, सितंबर 26

देवी का आगमन सुंदर

देवी का आगमन सुंदर



आश्विन शुक्ला नवरात्रि का
उत्सव अद्भुत कालरात्रि का
देवी दुर्गा महामाया का
राज राजेश्वरी, जगदम्बा का I

कल्याणी, निर्गुणा, भवानी
अखिल विश्व आश्रयीदात्री
वसुंधरा, भूदेवी, जननी
धी, श्री, काँति, क्षमा, स्मृति I

श्रद्धा, मेधा, धृति तुम्हीं हो
माता गौरी, दुःख निवारिणी
जया, विजया, धात्री, लज्जा
कीर्ति, स्पृहा, दया कारिणी I

चिन्मयी देवी पराम्बा तुम
उमा, पार्वती, सती, भवानी
ब्रह्मचारिणी, ब्रह्मस्वरूपिणी
सावित्री, शाकम्बरी देवी I

काली माँ, कपालिने अम्बा
स्वाहा तुम स्वधा कहलाती
विश्वेश्वरी, आनन्ददायिनी
शांतिस्वरूपा, आद्याशक्ति I

त्रिगुणमयी, करुणामयी, कमला
चण्डिका, शाम्भवी, सुभद्रा
हे भुवनेश्वरी, माता गिरिजा
मंगल दात्री, हे जगदम्बा!  

सिंह वाहिनी, माँ कात्यायनी
चंद्रघंटा, कुष्मांडा देवी
अष्टभुजा, स्वर्णमयी माँ
त्रिनेत्री तुम सिद्धि दात्री I

इच्छा, कर्म, ज्ञान की शक्ति
अन्नपूर्णा, इड़ा, विशालाक्षी
कोटिसूर्य सम काँति धारिणी
क्षेमंकरी, माँ शैलवासिनी  I

गूंजे घंटनाद व निनाद
नाश किये मुंड और चंड
कुंडलिनी स्वरूपा माता
महिषासुरमर्दिनी प्रचंड  I

शक्ति बिना हैं शिव अधूरे
सृष्टि के कार्य नहीं पूरे
ज्योतिर्मयी, जगतव्यापिनी
सजे मार्ग, मंदिर कंगूरे I

देवी का आगमन सुंदर
उतना ही  भव्य प्रतिगमन
जगह जगह पंडाल सजे हैं
करते बाल, युवा सब नर्तन I

  

      





मंगलवार, सितंबर 23

हँसना यहाँ गुनाह है


हँसना यहाँ गुनाह है



लगा दो पहरे खुशियों पर
क्यों मनुआ बेपरवाह है
हँसना यहाँ गुनाह है !

खुश रहना क्योंकर सीखा है
यह तो गमों की बस्ती है,
आँसूं ही भाते हैं जग को
नहीं हँसी की हस्ती है !

पर काट दो उम्मीदों के
क्यों उड़ने की चाह है
हँसना यहाँ गुनाह है !

पलकों पर क्यों पुष्प सजाये
अविरत पीड़ा बहने दो,  
मुखर हुए क्यों नयन बोलते
चुप ही इनको रहने दो !

पुनः बांध लो जंजीरों को
लम्बी अति यह राह है
 हँसना यहाँ गुनाह है !






शनिवार, सितंबर 20

मरुथल मरुथल फूल खिलाना होगा

मरुथल मरुथल फूल खिलाना होगा  



पीड़ा को श्रृंगार बनाना होगा
काँटों को भी हार बनाना होगा !

चाहे जितनी हों बाधाएँ
मंजिल मिल-मिल कर खो जाये,
अंगारों से द्वार सजाना होगा
पीड़ा को श्रृंगार बनाना होगा !

मुस्कानों का भ्रम न पालें
महा रुदन का अमृत ढालें
मरुथल मरुथल फूल खिलाना होगा  
पीड़ा को श्रृंगार बनाना होगा !

सुख भरमाता आया जग को
छलता आया है हर पग को,
 दुःख का उर को गरल पिलाना होगा
पीड़ा को श्रृंगार बनाना होगा !

सच से आँखें मूंदे बैठे
अंधों बहरों को इस जग में
शंखनाद का रोर सुनाना होगा
पीड़ा को श्रृंगार बनाना होगा !

सुख की बात करें क्या उनसे
दुःख की जो चादर ओढ़े हैं,
करुणा का इक राग बहाना होगा
पीड़ा को श्रृंगार बनाना होगा !

तमस छा रहा हो जब जग में
अंधकार खड़ा हो मग में,
ज्योति पर अधिकार जताना होगा
पीड़ा को श्रृंगार बनाना होगा !



शुक्रवार, सितंबर 19

यायावर का गीत

यायावर का गीत


जग चलता है अपनी राह
उसने लीक छोड़ दी है,
है मंजूर अकेले रहना
हर जंजीर तोड़ दी है !

सदियों घुट-घुट जीता आया
माया के बंधन में बंधकर,
अब न दाल गलेगी उसकी
रार ठनेगी उससे जमकर !

कितनी सीमायें बांधी थी 
जब पहचान नहीं थी निज से,
कितने भय पाले थे उर में
जब अंजान रहा था उस से !

कैसे कोई रोके उसको
दरिया जो निकला है घर से,
सागर ही उसकी मंजिल अब
बाँध न कोई भी गति रोके !

बुधवार, सितंबर 17

विश्वकर्मा पूजा के अवसर पर आप सभी को बधाई

विश्वकर्मा पूजा के अवसर पर



माह सितम्बर तिथि सत्रह पर
पूजा होती आदि शिल्पी की,
तकनीकी, विज्ञान के जनक
देव शिरोमणि विश्वकर्मा की !

स्वर्ग, धरा, ब्रह्मांड बनाया
पंच महाभूतों से जिसने,
जड़–चेतन मय इस सृष्टि के
निर्माता व देव सृजन के !

शास्त्र लिखे, शस्त्र बनाये
रोका मारक तेज सूर्य का,
अमरावती रची इंद्र की
रची मनोहर कृष्ण द्वारका !

चक्र सुदर्शन हो विष्णु का
धनुष राम का, शिव त्रिशूल भी,
विविध कलाओं के सर्जक वे
करें वन्दना उस देव की !

उपजे थे समुद्र मंथन से
कलपुर्जों, औजारों के देव,
वास्तुशास्त्री, ब्रह्मापुत्र भी
बहुआयामी शक्तिमय देव !

पुष्पक के भी थे निर्माता
पांच पुत्र हुए जनक कला के,
काष्ठ कला व मूर्तिकला संग
स्वर्ण, लौह, ताम्र शिल्पी वे !

रहने को घर, वाहन गति को
नित नये उपकरणों की देन,
जीवन को जो सुखमय करते
भर जाते हैं मन में चैन !

करें अर्चना देव शिल्पी की
नतमस्तक हो, हो कृतज्ञ हम,
कार्यक्षेत्र फलें फूलें नित
उत्सव सदा मनाएं हम !


मंगलवार, सितंबर 16

पल-पल सत्य प्रकट हो रहा

पल-पल सत्य प्रकट हो रहा  



दुःख की काली चादर जैसे
रात कोई अंधियारी घोर,
राह नजर न आती जिसमें 
नहीं क्षितिज का दिखता छोर !

कितने अश्रु छिपे हुए थे
बाहर आने को थे आतुर,
गूँज रहे थे अंतर्मन में
जाने कैसी पीड़ा के स्वर !

सुख बस एक छलावा निकला
दुःख ही जीवन का आधार,
खुशियाँ जग को नहीं सुहातीं
दुःख में खिलता है संसार !

आंसू देख देख मुस्काए
ऐसी रीत यहाँ चलती है,
ऊपर ऊपर ही मैत्री
अंतर में नफरत पलती है !

जीवन की यह उहापोह जो
मथ डाले मन का हर कोना,
पीड़ा में जो स्वयं तपता हो
वह है बस एक स्वप्न सलोना !

कोमल उर को छलनी करते
पीड़ा ही जग में बाँटें,
पल-पल सत्य प्रकट हो रहा  
सदा फूल संग होते कांटें !

इतने बरसों बाद मिली है
पर जानी पहचानी सी है,
दुःख की छाया मिथ्या ही हो
पर न यह अनजानी सी है !

ग्रस डाला है आखिर इसने
 राहु बन कर उजियारे को,
कब छूटेगी इससे काया
मुक्ति मिलेगी मन हारे को !

थोड़ा सा जो भीतर था मन
वह भी इसकी भेंट चढ़ेगा,
अब तक जिसको थामा उर ने
हर विचार वह बह निकलेगा !




गुरुवार, सितंबर 4

शिक्षक दिवस पर शुभकामनायें

यह कविता सभी शिक्षकों को समर्पित है 


शिक्षक दिवस पर शुभकामनायें

ज्ञान की मशाल तुम
राह रोशन करो,
त्याग की मिसाल तुम
प्रेरणा बन मिलो !

तृप्ति दो नीर बन
प्रेम की छांह भी,
ठोकरें जब लगीं
थाम ली बांह भी !

था अबोध शिष्य जो
बोधवान बन गया,
पा परस गुरू का
पुष्प सा खिल गया !

दान दो ज्ञान का
नित यज्ञ कर रहे,
सत्य की सुवास शुभ
जगत में भर रहे !

कृतज्ञ है समाज यह
शिक्षकों का सदा,
रात-दिन व्यस्त जो
धो रहे अज्ञानता !

देवी वागेश्वरी
की कृपा बनी रहे,
गुरू और शिष्य की
डोर यह बंधी रहे !


मंगलवार, सितंबर 2

गंगा बहकर जाये सागर

गंगा बहकर जाये सागर


घोर घटाओं में विद्युत् जब
चमक चमक लहरा कर गाती,
गिरने लगतीं बूंदें तड़ तड़
गर्जन घन की नहीं डराती !

घटाटोप सा छाता नभ पर
खो जाती वह शुभ्र नीलिमा,
दूर कहीं से हंसों की इक
पंक्ति फर से उड़ती जाती !

पवन भीग कर थिर हो जाता
हौले-हौले पात डोलते,
चहबच्चों में भर जाता जल
बूँदें गिर कर वृत्त बनातीं !

कुछ निशब्द घास पर गिरतीं
धातु पर कुछ शोर मचातीं,
ध्वनि अनेक जल धार एक है
हर शै उसकी गाथा गाती !

वृष्टि का क्रम चलता अविरत
धरा लहक लहक मुस्काती,
गंगा बहकर जाये सागर
सागर से ही जल भर लाती !




सोमवार, सितंबर 1

कौन हो तुम

कौन हो तुम 

मृत्यु पाश में पड़ा
एक देह छोड़
अभी सम्भल ही रहा था...
कि गहन अंधकार में बोया गया
नयी देह धरा में
शापित था रहने को
उसी कन्दरा में
बंद कोटर में हो जाये ज्यों पखेरू
कैद पिंजर में हो जाये कोई पशु
एक युग के समान था
वह नौ महीनों का समय...

...और फिर आया.. मुक्ति का क्षण..
अपार पीड़ा के बाद
हुआ प्रकाश का दर्शन
मुंद-मुंद जाती थीं आँखें
और तब पेट में पहली बार
उठी वह मरोड़..
मांग हुई भोजन की
कोमल स्पर्श, ऊष्मा और गर्म पेय
पाकर तृप्त हुआ तन
और पड़ा मन पर एक नया संस्कार
रख दी गयी थी नींव उसी क्षण..
एक और जन्म की..
स्मृतियाँ पूर्व की
होने लगीं गड्ड मड्ड
पहचान में आने लगे नए चेहरे
बाल... किशोर.. युवा होते होते
मन ने छोड़ दिया आश्रय मेरा
जैसे छोड़ जाते हैं घरौंदा, पक्षी शावक
हो गया कैद अपने ही कारावास में
जिसकी दीवारें थीं
ऊँची और ऊँची होती हुई महत्वाकांक्षाएं..
कामनाओं.. और लालसाओं.. की छत के नीचे
विषय रूपी चारे को चुग कर
फंसता गया जाल में वह एक नादान पंछी की नाईं
जैसे किसी निर्जन द्वीप पर अकेला फेंक
दिया गया हो
कैद था मन अपने ही भीतर
और यहाँ बात कुछ महीनों की नहीं थी...
जैसे वीणा के टूटे तार
व्यर्थ हैं, व्यर्थ है खाली गागर
व्यर्थ ही बुन रहा था
जाल सपनों के...
और एक दिन..
वह चुप था बेखबर अपने आप से
मैंने झाँका..
उसे खबर तक न हुई मेरे आने की
वरना झट धकेल दिया जाता
मैं उसके साम्राज्य से
मैंने पीछे से समेट लिया उसे
सकपकाया सा बोला, क्या करते हो ?
बुद्धि भी चकराई
उसे यह हरकत पसंद न आई
मैंने सुनी अनसुनी कर दी
क्योकि मन पिघल रहा था मेरे सान्निध्य में
कुछ देर ही चला यह खेल
फिर मैं लौट आया
लेकिन अब मुझे जब-तब सुनाई देती एक पुकार
मन की पुकार
जो पहली बार तृप्त हुआ था मुझसे मिलकर
तुम कौन हो ?
कौन हो तुम ?
कहाँ हो ?
फुसफुसाता हूँ मैं, सुनो
मैं तुम हूँ
मैं वही चेतना हूँ
जो विचार बन कर दौड़ रही है
श्वास बन कर जीवित है
मैं अनंत प्रेम, अनंत शांति और अनंत आनंद हूँ...
लेकिन मेरी आवाज नहीं सुन पाता मन...
कोई सुख बिना कीमत चुकाए नहीं मिलता
प्रतिष्ठा बढ़ाने को बोले गए झूठ
किये गए फरेब
कर्मों के जाल में कैद हुआ
व्यर्थ के मोह जाल में फंसा
असूया के पंक में धंसा
सुख पाने की आकांक्षा में
बोता गया दुःख के बीज...
मन द्वन्द्वों का दूसरा नाम है..
कभी कभी थक कर पुकार लेता है मुझे
और पश्चाताप कर हो जाता है नया
पुनः एक नया खेल खेलने के लिये...
मैं प्रतीक्षा रत हूँ
कब थकेगा वह
कब लौटेगा मुझ तक
कब ..?