रविवार, मार्च 29

गाँव बुलाता आज उन्हें फिर

गाँव बुलाता आज उन्हें फिर 


सुख की आशा में घर छोड़ा 
मन में सपने, ले आशाएँ, 
आश्रय नहीं मिला संकट में 
जिन शहरों में बसने आये !

गाँव बुलाता आज उन्हें फिर 
टूटा घर वह याद आ रहा,
वहाँ नहीं होगा भय कोई 
माँ, बाबा का स्नेह बुलाता !

कदमों में इतनी हिम्मत है 
मीलों चलने का दम भरते, 
इस जीवट पर अचरज होता  
क्या लोहे का वे दिल रखते !

एक साथ सब निकल पड़े हैं 
नहीं शिकायत करें किसी से,
भारत के ये अति वीर श्रमिक 
बचे रहें बस कोरोना से !

दिहाड़ी मजदूर

दिहाड़ी मजदूर 


सिर पर छोटी से इक गठरी रखे 
जिसमें दो जोड़ी कपड़े भी न समाएं 
वही है कुल जमा पूंजी उनकी 
तेज धूप में तपती सड़क पर 
चले पड़े हैं वे अपने घर की ओर
जो एक दो नहीं, दूर है सैकड़ों मील
दूसरे शहर में... नहीं, दूसरे राज्य में 
दिहाड़ी मजदूर के सिर पर छत नहीं है 
जिसने न जाने कितनी अट्टालिकाएं खड़ी कर दीं 
उनके पास रहने को ठिकाना नहीं 
जो दूसरों के लिए आशियाना सजाते हैं 
जीवट से भरे, कोरोना  के मारे ये मजदूर 
अपनी राह खुद बनाते हैं !

गुरुवार, मार्च 26

प्रकृति और मानव

प्रकृति और मानव 

एक मास्टर स्ट्रोक मारा उसने 
और बता दिया... कौन है मालिक ?
चेतावनी दी थी 
सुनामी भेजी, कई तूफान भेजे
भूमिकम्प में भी राज खोला था 
इबोला में भी वही बोला था 
पर हमारे कान बहरे थे 
नहीं सुनी हमने प्रकृति की पुकार 
जो लगा रही थी वह बार बार 
जारी रखा अपनी कामनाओं का विस्तार 
भूल गए अपने ही स्रोत को 
भूल गए कि.. हम प्रकृति के स्वामी नहीं 
हैं उसका ही अंग  
सुविधाओं के लोभ में  निरंकुश दोहन कर, 
कर रहे खुद से ही जंग  
जंगल खत्म हो रहे और 
हवा में घुलता जा रहा था जहर 
 सागरों की अतल गहराई तक प्लास्टिक का कचरा 
अब बैठे हैं अपने-अपने घरों में 
नहीं भर रहे नालियों में पॉलीथिन, प्लास्टिक के ग्लास और कटोरे 
बन्द है पार्टियों में व्यर्थ का आडम्बर 
कुछ दिनों के लिए ही सही 
जो भी व्यर्थ है, वह हमसे छुड़वाया जा रहा है 
कोरोना के बहाने हमें दर्पण दिखाया जा रहा है !

बुधवार, मार्च 25

कुदरत यही सिखाने आयी

कुदरत यही सिखाने आयी 


घर में रहना भूल गया है 
बाहर-बाहर तकता है मन, 
अंतर्मुख हो रहे भी कैसे ?
नहीं नाम का सीखा सुमिरन !
  
घर में रहने को नहीं उन्मुख 
शक्ति का जहाँ स्रोत छुपा है,
आराधन कर उस चिन्मय का 
जिसमें तन यह मृण्मय बसा है !

कुदरत यही सिखाने आयी 
कुछ पल रुक कर विश्राम करो,
दिन भर दौड़े-भागे फिरते 
अब दुनिया से उपराम रहो !

हवा शुद्ध होगी परिसर की 
धुँआ छोड़ते वाहन ठहरे,
पंछी अब निर्द्वन्द्व उड़ेंगे 
आवाजों के लगे न पहरे !

धाराएँ भी निर्मल होंगी 
दूषित पानी नहीं बहेगा,
श्रमिकों को विश्राम मिलेगा 
उत्पादन यदि अल्प घटेगा !



मंगलवार, मार्च 24

इतिहास

इतिहास 

इतिहास दोहराता है स्वयं को बार-बार 
महामारी का दंश झेला है 
 पहले भी, दुनिया ने कई बार
शायद हम ही थे... 
जब अठाहरवीं शताब्दी में प्लेग फैला था 
या उन्नीसवीं शताब्दी में दुर्भिक्ष... 
हम लौटते रहे हैं बार-बार  
किसी वस्तु.. किसी व्यक्ति के आकर्षण में 
या घटनाओं की पुनरावृत्ति हमें भाती है 
तभी हर बार मानवता वही भूल दोहराती है 
आज विज्ञान का युग है 
दुनिया जुड़ी है आपस में 
जैसे पहले कभी नहीं जुड़ी थी 
आज रोग भिन्न है उसके निदान भी 
यह व्यक्तिगत युद्ध नहीं है 
यह सामूहिक लड़ाई है 
जिसमें स्वास्थ्य कर्मी सेनापति 
और हर नागरिक सिपाही है 
जंग जीतकर जब हम आगे बढ़ें 
तो अपने आप से यह प्रण करें 
सुख लेने में नहीं देने में छुपा है 
यहाँ हम सभी का भाग्य जुड़ा है 
कहीं कोई द्वीप नहीं बचा 
सारी दुनिया एक मैदान बन गयी है 
इस देश की हवा उस देश में पहुँच गयी है 
तो सारी सीमाएं मनों की मिटा दें
और बने रहें अपने-अपने घरों में !


सोमवार, मार्च 23

महामारी

महामारी 


कितना अलग मिजाज है आजकल दुनिया का 
न कोई किसी से मिलता है 
न कहीं आता जाता है 
झूठ-मूठ लड़ाई का बहाना बनाकर 
बैठे हैं अलग-अलग कमरों में 
नजरबंद हैं विदेश से आये लोग 
कोई नहीं पूछता, मेरे लिए क्या लाये 
बल्कि मौन रहकर ही सवाल उछालता है
इटली क्यों गए थे, भला यह भी कोई समय है 
स्पेन घूमने जाने का 
सोसाइटी में होने लगी है खुसर-पुसर 
फलां नम्बर में रात कोई आया है 
जाने कोरोना अपने साथ लाया हो ! 
सड़कें सूनी हैं, बच्चे हैरान हैं 
घर में बैठे रहने का मिला फरमान है 
जितना चाहे खेलो पर घर पर ही 
लेकिन आँख बचाकर वे निकल जाते हैं 
वीरान गलियों में साइकिल चलाते हैं 
कोरोना के भय से नींदें उड़ गयी हैं 
प्रधानमंत्री के शब्द जैसे मरहम लगाते हैं 
भीतर सोया जोश जगाते हैं 
हाँ,  लगेगा जनता कर्फ्यू 
और बजेंगी थालियाँ भी 
उन जांबाजों के लिए जो बने हैं रक्षक 
समाज और राष्ट्र के प्रहरी 
कुछ न बिगाड़ पाएगी भारत का
निगोड़ी  यह महामारी !  

रविवार, मार्च 22

हम साथ हैं

हम साथ हैं


हमें मिली है मोहलत 
चन्द दिनों की, चन्द हफ्तों की या चन्द महीनों की 
हम नहीं जानते 
पर हम साथ हैं उनके
जो लड़ रहे हैं जंग 
कोरोना के खिलाफ !

जिन्हें नहीं मिली पूर्व चेतावनी 
जो धकेल दिए गए अनजाने ही 
मृत्यु के मुख में 
या जो सह रहे हैं पीड़ा आज भी 
हम दुआ करते हैं उनके लिए !

वुहान के किसी पशु बाजार से 
किसी निरीह की देह से आया यह वायरस 
एक सूक्ष्म हथियार की तरह 
छुप गया एक मानव देह में 
उसने खबर भी दी अपने होने की 
किया सचेत भी
पर नहीं समझा कोई भी 
उस चेतावनी को 
और... एक से दूसरे  तक 
फैलता गया इसका प्रकोप 
पहले एक शहर से दूसरे शहर 
फिर एक देश से दूर देश 
एक महाद्वीप से दूसरे महाद्वीप 
और अब सारा विश्व इसकी चपेट में है
हजारों ने देह त्याग दी 
लाखों सह रहे हैं पीड़ा 
सैकड़ों लगे हैं उन्हें बचाने में और 
करोड़ों भयभीत हैं 
लेकिन साथ हैं !

घरों में बंद वे नहीं बनेंगे 
वाहक वायरस के 
और जब थककर 
एक दिन दम तोड़ देगा 
आखिरी वायरस भी 
उस दिन के इंतजार में 
भारत के लोग कह रहे हैं 
सारे विश्व से 
हम साथ हैं !


शनिवार, मार्च 21

जब राज खुलेगा इक दिन यह

जब राज खुलेगा इक दिन यह 


जो द्रष्टा है वह दृश्य बना 
स्वप्नों में भेद यही खुलता,
अंतर बंट जाय टुकड़ों में 
फिर अनगिन रूप गढ़ा करता !

सुख स्वप्न रचे, हो आनन्दित 
दुःख में खुद नर्क बना डाले,
कभी मुक्त मगन उड़ा नभ में 
कभी गह्वर, खाई व नाले !

जो डरता है, खुद को माना
जो डरा रहे, हैं दूजे वे, 
खुद ही है कौरव बना हुआ 
बाने बुन डाले पांडव के !

जब राज खुलेगा इक दिन यह 
मन विस्मित हो कुछ ढगा हुआ, 
स्वप्नों से जगकर देखेगा
मैं ही था सब कुछ बना हुआ !

मैं ही हूँ, दूजा यहाँ नहीं 
यह मेरे मन की माया थी, 
वे दुःस्वप्न सभी ये सुसपने 
केवल अंतर की छाया थी !


गुरुवार, मार्च 19

कोरे कागज सा जो मन था

कोरे कागज सा जो मन था 


जब अनजान बना फिरता था 
तब तेरे दीवाने थे हम,  
जब से आना-जाना हुआ है 
बेगाना सा क्यों लगता है !
 
रीत प्रीत की अजब निराली 
सदा अधूरी चाहें दिल की, 
जाने किसकी नजर लगी है 
रस्ता धूमिल सा लगता है !
 
कोरे कागज सा जो मन था 
अति उज्ज्वल शिखर हिमालय का, 
मटमैले दरिया सा बहता 
पथ भूला-भूला लगता है  
 
किन्तु याद इक पावन उर की  
अहर्निश वही याद दिलाती 
एक पुकार उठी जब दिल से 
भावों का निर्झर बहता है  
 
नहीं शुष्क है अंतर गहरा 
गहरे जाकर यदि खंगाले,
किन्तु खड़ा जो प्यासा तट पर 
 जग उसको सूना लगता है !

मंगलवार, मार्च 17

कोरोना ने दी दस्तक



कोरोना ने दी दस्तक 

हर दर्द कुछ सिखाता है 
सोते को जगाता है,
अंतहीन मांगों पर 
अंकुश भी लगाता है !

कोरोना ने दी दस्तक 
घूँट कड़वे पिलाता है,
अति सूक्ष्म दुश्मन यह 
नजर नहीं आता है !

कोशिकाओं में जाकर 
निज व्यूह रचाता है, 
फेफड़ों को दुर्बल कर 
रोगी को सताता है !

प्रकृति की सीख नई 
मन सीख कहाँ पाता है, 
गर्वीला, भोला भी ?
दुःख ही बनाता है !

खुद से जो दूर हुआ 
कहाँ यह निकल गया, 
भीतर ही चैन है 
भेद यह भुलाता है !

दौड़ अब यह शांत हो 
थमो, नहीं क्लांत हो, 
घर लौट चलो अब तो  
यह राज भी बताता है! 

साँझी है पीड़ा अब 
संवेदना जगाता है, 
दुनिया को सही माने
एक घर बनाता है !


सोमवार, मार्च 16

देना




देना 

बादल बनकर बरसें नभ से 
यह तो हो नहीं सकता 
क्यों न उड़ा दें सारी वाष्प मन से 
वाष्प जो कर देती है असहज 
नहीं आता रवि किरणों सा 
फूलों को खिलाना 
तो क्या हुआ 
प्रेम की ऊष्मा से सुखा दें अश्रु किसी के 
जब देने का ही ठान लिया है 
तो दे डालें स्वयं को पूरी तरह 
नहीं रखें बचाकर कुछ भी 
यह जो झिझक भर जाती है मन में 
यह अहंकार का ही दूसरा नाम है 
हर असहजता इसी की खबर देती है 
कि अभी भी शेष है कुछ पाने को ! 

सोमवार, मार्च 9

राह देखे कोई भीतर




राह देखे कोई भीतर

प्रेम भीतर पल रहा है व्यर्थ ही मन उहापोह में, लगा रहकर रातदिन यूँ स्वयं को ही छल रहा है ! झाँक लेते आँख में भी शब्द को ही सत्य माना, डबडबाते आँसुओं में कोई बीता पल रहा है ! दौड़ मन की थमे जब तक कोई भीतर राह देखे, हो पहेली या.. सवाल पास उसके हल रहा है ! प्रेम की इक धार बनकर मन अगर खुद से मिलेगा, सोंधी सी फुहार छुए जो अभी तक जल रहा है !

होली

होली

रंग भरे जीवन में जिसने 
हर इक पल उसकी होली है, 
संशय सभी जला डाले फिर
हर करवट हँसी ठिठोली है !

मन मतवाला भूल भी जाय 
कुदरत ले निकली टोली है, 
रंगों की भाषा जो जाने 
हर कदम जहाँ रंगोली है !

नीला अम्बर, रवि नारंगी 
मेघ सलेटी, पंछी श्वेत,
हरी घास पर पीली मैना 
रक्तिम पुष्प, सुनहरे खेत !

अग्नि की पीली ज्वाला में
बैर भाव सबके जल जाएँ, 
उर की गहराई में सोया 
शुभ आह्लाद पुनः जग जाये !

शुक्रवार, मार्च 6

चाह-अचाह


चाह-अचाह

हर चाह रिझाती है पहले 
फिर वही भगाती है 
मन-सागर में लहरों की 
एक पंक्ति जगाती है 
मन के सूने पनघट पर ही 
उसके आने की सम्भावना है 
भीड़ में मिलन असंभव है 
जब तक अटका है एक तार भी चाहत का 
उसकी बांसुरी की धुन अनसुनी रह जाती है 
जो बज रही है अहर्निश 
उसकी याद में बहाया हर अश्रु 
पोंछ डालता है मन के रस्तों पर 
पड़ी धूल के कणों को 
जो हर चाह लिए आती है अपने संग 
अनन्त प्रतीक्षा करने का साहस है जिसमें 
भीतर लौट गयी मन की उस धारा(राधा)को ही 
कृष्ण मिला करते हैं 
कान जब कुछ और सुनना न चाहें 
पलकें मुंद जाएँ निहार  अपना ही रूप 
रिक्त हुआ ठहर जाये 
ऐसे ही किसी क्षण में 
उसकी झलक आये !