बुधवार, मार्च 31

समर्पण की एक बूँद

समर्पण की एक बूँद


मन अंतर में दीप जले 

जब तक इस ज्ञान का कि 

  एक ही आधार है इस संसार का 

कि जीवन उसका उपहार है 

उस क्षण खो जाता अहंकार है 

वरना प्रकाश की आभा की जगह 

धुआँ-धुआँ हो जाता है मन 

कुछ भी स्पष्ट नजर नहीं आता 

चुभता है धुआँ स्वयं की आंखों में 

और जगत धुंधला दिखता है 

जो किसी और के धन पर अभिमान करे 

उसे जगत अज्ञानी कहता है 

फिर जो देन मिली है प्रकृति से 

उस देह का अहंकार !

हमें खोखला कर जाता है 

कुरूप बना जाता है 

स्वयं की प्रभुता स्थापित करने का  

हिरण्यकश्यपु का 

जीता जागता अहंकार ही थी होलिका

प्रह्लाद समर्पण है 

वह सत्य है, होलिका जल जाती है 

रावण जल जाता है जैसे 

अहंकार की आग में 

न जाने कितने परिवार जल रहे हैं 

समर्पण की एक बूँद ही 

शीतलता से भर देती है 

अज्ञान है अहंकार 

समर्पण है आत्मा 

चुनाव हमें करना है !


 

सोमवार, मार्च 29

नए कई सोपान चढ़ने हैं

नए कई सोपान चढ़ने हैं 

कल जो बीत गया 

जीवन की डाली से झर गया फूल है 

अब उसे दोबारा नहीं मिलना  है 

आज तो एक नया फूल

 नए कर्म  के रूप में 

खिलना है

याद की खुशबू समेटे वह नया कर्म 

जीवन को सुवासित करे 

नए क्षितिज हों, पंछी हर दिन नयी उड़ान भरे 

वह अस्तित्त्व इसी आस में 

बढ़ता ही चला जाता है 

कि कौन उसमें नए बीज बोये जाता है 

वाणी वरदान है उसका 

शब्दों से वही उमड़ता है 

फिर हर रात समेटकर अपनी झोली 

सहेज कर उन्हें रख देता है अपने सिरहाने 

अगले दिन उन्हीं से कुछ और गढ़ने हैं तराने 

उसका कोष कभी रिक्त नहीं होता 

जीवन चुक जाता है 

वह परम कभी नहीं चुकता !


हर दिन एक नया सवेरा लेकर आता है 

नया विश्वास, नयी आस लिए 

जाने कौन सा रहस्य खुलने वाला है 

नया खजाना मिलने वाला है 

अनगिनत कोष छिपे हैं प्रकृति के गर्भ में 

जीवन हर रोज नया होता जाता है 

जब अतीत सूखे पत्तों की तरह

झरता चला जाता है !

हर रोज एक नया  अवसर है 

नयी चुनौती भी 

हर दिन पर एक ताला लगा है 

जिसे खोलना है 

नए रंगों को जीवन में घोलना है 

नई राहों पहली बार कदम रखने हैं 

नए कई सोपान चढ़ने हैं 

नए कुछ ख्वाब बुनने हैं !


शनिवार, मार्च 27

अब समेटें धार मन की

अब समेटें धार मन की 


खेलता है रास कान्हा 

आज भी राधा के संग,  

प्रीत की पिचकारियों से 

डाल रहा रात-दिन रंग !


अब समेटें धार मन की 

जगत में जो बह रही है, 

कर समर्पित फिर उसी के 

चरण कमलों में बहा दे !


हृदय राधा बन थिरक ले  

 बने गोपी भावनाएं,  

उस कन्हैया के वचन ही 

  टेरते हों बंसी बने !


होली मिलन शुभ घटेगा 

तृप्त होगी आस उर की, 

नयन भर कर देख लें फिर 

अनुपम झलक साँवरे की !

 

शुक्रवार, मार्च 26

भोर-रात्रि

भोर-रात्रि 


हर सुबह एक नयी कहानी सुनाती है 

हर रात हम अतीत की केंचुल उतार

अस्तित्त्व को सौंप देते हैं स्वयं को 

ताकि वह नया कर सके हमें 

जो तीनों तापों से मुक्त करे 

वही रात्रि है, जो मन को पुनर्नवा करे !

हर दिन कुछ नया पथ तय करना है 

क्योंकि बस आगे ही आगे बढ़ना है 

थोड़ा सा और प्रेम 

और करुणा उस अनंत कोष से लेकर लुटानी है 

थोड़ी सी और समझदारी उस सविता देव से पानी है 

आज वाणी को और मधुर बनाया जा सकता है 

किसी बच्चे को रोते से हँसाया जा सकता है 

एक और दिन मिला है जब 

नए कुछ वृक्ष रोप सकें भू में 

नए कुछ गीत और बिखेर सकें आलम में 

सुरों को और सजीला किया जा सकता है 

रंगों को कैनवास पर किसी और ढंग से 

बिखेरा जा सकता है 

कितना कुछ है जो एक दिन में समा जाता है 

हर रोज एक पूरा जीवन जिया जा सकता है 

हर रात जैसे पुनः हमें तैयार करती है 

स्वप्नों के बहाने कुछ पुरानी यादें मिटाती

नए ख्वाब भरती है !

 

बुधवार, मार्च 24

समय

समय 


‘समय ठहर गया है’ 

जब कहता है कोई 

तो एक सत्य से उसका परिचय होता है 

समय ठहरा ही हुआ है अनंत काल से ! 

गतिमान वस्तुएं 

उसके चलने का भ्रम पैदा कर देती हैं !


‘समय भाग रहा है’ 

कहता है जब कोई 

वह एक अन्य तथ्य को दर्शाता है 

भाग रहा है उसका मन 

 किसी न किसी शै के पीछे !


‘समय उड़ता हुआ सा लगता है’ 

जब कोई आनंदित होता है 

और ठहर जाता है खुद में !


‘काटे नहीं कटता जब समय’ 

कोई अंधेरे में भटक रहा है 

अपनी पीड़ा को टाँक देता है समय पर !


समय कम है उसके लिए जो महत्वाकांक्षी है 

समय खराब है उसके लिए जो भाग्यवादी है 

समय अच्छा है आशावादी के लिए 

हर समय समान नहीं होता यथार्थवादी के लिए !


ज्ञानी जानता है 

समय एक कल्पना है 

वास्तव में एक बार में एक ही क्षण

 मिलता है जीने के लिए !



 

सोमवार, मार्च 22

शिवलिंग और शालिग्राम

शिवलिंग और शालिग्राम 


सुडौल हैं दोनों 

नहीं है कोई नुकीलापन किसी भी कोने में 

कोना ही नहीं उनमें 

नदी के तल में रहते-रहते जब 

दो पत्थर आपस में टकराते हो जाते हैं चिकने 

खो जाता है हर खुरदुरापन 

तब बन जाते हैं वे छोटे-छोटे शिवलिंग 

बरसों तक साथ रहते जन भी 

जब नहीं चुभते एक दूसरे को 

नहीं कुरेदते एक-दूसरे की कमियों को 

खो जाता है अहम का नुकीलापन 

और झर जाती हैं कटंकों की बेल 

जो अपने इर्दगिर्द उगाई थी 

कभी आत्मसम्मान कभी पहचान के नाम पर 

तो वे भी बन जाते हैं सुडौल एक दूजे के लिए 

आराधना के पात्र 

उमर के अंतिम पड़ाव तक आते-आते 

मन से खो जाए हर नुकीलापन 

तो आत्मा का शिवलिंग 

भीतर प्रकट हो ही जाता है !

 

शुक्रवार, मार्च 19

उतना ही जल नभ से बरसे

उतना ही जल नभ से बरसे


जर्रे-जर्रे में बसा हुआ  

रग-रग में लहू बना बहता, 

वाणी से वह प्रकटे सबकी 

माया से परे सदा रहता !


छह रिपुओं को यदि हरा दिया 

उसके ही दर पर जा पहुँचे, 

अंतर में जितनी प्यास जगी 

उतना ही जल नभ से बरसे !


जाने कब से यह सृष्टि बनी 

परम संतों ने उसे पाया, 

जिसने अपने भीतर झाँका 

बस गीत उसी का फिर गाया ! 


 महादानी वह सर्व समर्थ 

दीनों का है रखवाला वह, 

जो श्रद्धा से भजता उसको 

अंतर उसको दे डाला यह ! 


पल भर भी उससे दूर नहीं 

वह अंतर्यामी बन रहता, 

जीवन इक सुंदर उत्सव है 

मन कष्टों को हँस कर सहता ! 


समता का भाव भरे दिल में 

वह सुख का पाठ पढ़ाता है, 

हर भेद दिलों से मिट जाए  

सेवा का मर्म सिखाता है !


उसकी महिमा क्या जग जाने 

जो अपनी राह चले जाता,  

पल में सोने को धूल करे 

 भू को पल में स्वर्ग बनाता !

 

गुरुवार, मार्च 18

अनोखा शिल्प

अनोखा शिल्प 

उस दिन एक शिल्प देखा 

नीचे कूल्हे से लेकर दो पैर हैं माटी के 

ऊपर छाती से सिर तक का भाग है 

बीच का पेट गायब है 

ऐसा दृश्य यदि दिखे तो क्या बताता है 

गरीब का पेट पीठ से लग गया है 

इसलिए गायब है 

अमीर का इतना बड़ा हो गया है 

कि लाखों की संपत्ति भी कम पड़ जाती है 

वह बाहर निकल आया है 

और शरीर का भाग नहीं लगता 

यही तो आदमी को कोल्हू की तरह घुमाता है 

रोज भरना होता है उसे 

एक कुएं की तरह है पेट 

जिसमें पेंदी नहीं है 

पेट सीमित हो अपने सही स्थान पर 

तभी पूर्ण हो सकेगा वह शिल्प 

जिसमें कूल्हे के नीचे पैर हैं और 

छाती के ऊपर सिर 

पर मध्य का स्थान खाली है ! 


 

मंगलवार, मार्च 16

कंचन से इल्तजा

कंचन से इल्तजा


ऐ कंचन के वृक्ष ! 

तू क्यों नहीं खिलता 

क्या इस दुनिया से तेरा दिल नहीं मिलता 

तेरे ही साथ जन्मा हरसिंगार अब तक 

हजारों फूल खिला चुका 

तू न खिलने के कारण अपनी टहनियाँ 

कई बार कटवा चुका 

हर बार यही सोचा कि इस बार फूल आएंगे 

पर पत्तों से भर जाती हैं डालियाँ 

जाने कब फूल मुस्काएंगे 

तू नहीं जानता क्या दुनिया की रीत 

जो उपयोगी नहीं उसे हटा दिया जाता  

कई कह चुके, क्यों न इसे गिराकर 

दूसरा लगा लिया जाता  

 इस बरसात में तू समेट ले 

सावन की सारी नमी अपनी शिराओं में 

भर ले इंद्रधनुष से लेकर रंग 

और जी भर के झूम ले फिजाओं में 

 अगले बसंत में तुझे है खिलना 

तितलियों और भँवरों को निमंत्रण अभी से भिजवा देना 

चाँद और सूरज से लेकर ऊष्मा और ठंडक 

 खिलने की चाह जगा लेना

सूनी-सूनी सी तेरी डालियाँ अब देखी नहीं जाती 

रंगीन फूलों की स्मृति क्या तुझे नहीं सताती 

जहाँ से जन्मा था तेरा बीज 

वह वृक्ष भी तो खिला होगा 

तभी उसने तुझे आँचल में भरा होगा 

तुझे भी इस जगत को नए बीज देकर जाना है 

आकाश में धरती की गंध व सूरज के रंगों को बिखराना है ! 

 

सोमवार, मार्च 15

मानव में खुद छुपा चितेरा

मानव में खुद छुपा चितेरा 


महायज्ञ सृष्टि का अनोखा 

शुभ पंचतत्व आहुति देते,

इक-दूजे में हुए समाहित   

रूप अनेकों फिर धर लेते !


जल में पावक, वायु गगन में 

भू  में रहते सभी समाए, 

भव्य महान प्रपंच रचा है 

पंछी,पशु, प्राणी जनमाये !


मानव में खुद छुपा चितेरा 

जिसने रच डाला यह आलम, 

उसके द्वारा भी करवाता 

बड़े-बड़े अनगिन  आयोजन !


सिर पर छप्पर, अन्न क्षुधा हित 

शिक्षा और स्वास्थ्य के साधन,  

कोई भय से न कंपता हो 

हर कोई पाए अपनापन  !


तन-मन स्वस्थ बनें जन-जन के 

यही परम का इक सपना है  , 

है सामर्थ्यवान जो जग में 

औरों का दुख ही हरना  है !


निज की खातिर बहुत जी लिए 

अब औरों हित जीना सीखें, 

जगती के इस महा हवन में 

स्वयं पावन आहुति सौंपें !

 

रविवार, मार्च 14

मैं और तू

मैं और तू 


तू वहाँ भी है जहाँ नहीं दिखता 

तू जहाँ भी है ‘उससे’ नहीं छिपता 

जिसका ‘मैं’ तुझमें समा गया है 

‘तू’ जिसके ‘मैं’ में आ गया है 

अब खोज खत्म हुई 

देखता है ‘मैं’ ही जगत को 

वह ‘मैं’ जो असल में ‘तू’ है 

तो क्यों वह अब खुद को खोजेगा?

बल्कि जहाँ नहीं पाता था तुझे पहले 

वहाँ भी तेरे सिवा कुछ नहीं पाता 

 क्योंकि आँखें जो बाहर देखती हैं 

वह  भीतर ही तो दिखता है 

जब इन आँखों से ‘तू’ ही ‘मैं’ बनकर देखता है 

तो सारा जगत मेरे अंदर ही बसता है 

फिर कौन सा भेद रहा 

जहाँ तू नहीं है, हर कहीं 

‘मैं’ जहाँ भी देखे तेरी ही छवि देखता है 

अब कोई चारा नहीं ‘तू’ दूर हो जाए 

भला खुद से भी कभी कोई दूर जा सकता है 

जब ‘मैं’ न बचे तो एक नई ‘मैं’ मिलती है 

जो पल-पल तेरी सुरति से खिलती है !