समर्पण की एक बूँद
मन अंतर में दीप जले
जब तक इस ज्ञान का कि
एक ही आधार है इस संसार का
कि जीवन उसका उपहार है
उस क्षण खो जाता अहंकार है
वरना प्रकाश की आभा की जगह
धुआँ-धुआँ हो जाता है मन
कुछ भी स्पष्ट नजर नहीं आता
चुभता है धुआँ स्वयं की आंखों में
और जगत धुंधला दिखता है
जो किसी और के धन पर अभिमान करे
उसे जगत अज्ञानी कहता है
फिर जो देन मिली है प्रकृति से
उस देह का अहंकार !
हमें खोखला कर जाता है
कुरूप बना जाता है
स्वयं की प्रभुता स्थापित करने का
हिरण्यकश्यपु का
जीता जागता अहंकार ही थी होलिका
प्रह्लाद समर्पण है
वह सत्य है, होलिका जल जाती है
रावण जल जाता है जैसे
अहंकार की आग में
न जाने कितने परिवार जल रहे हैं
समर्पण की एक बूँद ही
शीतलता से भर देती है
अज्ञान है अहंकार
समर्पण है आत्मा
चुनाव हमें करना है !