गुरुवार, जून 30
खुशबू निशानी सी
सोमवार, जून 27
दीवाना मन समझ न पाए
दीवाना मन समझ न पाए
जीवन इक लय में बढ़ता है
जागे भोर साँझ सो जाये,
कभी हिलोर कभी पीड़ा दे
जाने क्या हमको समझाये !
नए नए आविष्कारों से
एक ओर यह सरल हो रहा,
प्रतिस्पर्धा बढ़ी ही जाती
जीना दिन-दिन जटिल हो रहा !
निज पथ का राही ही तो है
अपनी मति गति से चलता है,
फिर भी क्यों मानव का अंतर
सहयोगी से भी डरता है !
मित्रों में ही शत्रु खोजता
प्रेम दिखाता घृणा छिपाए,
दोहरापन यही तोड़ रहा
दीवाना मन समझ न पाए !
मन के पार उजाला बिखरा
नजर उठाकर भी ना देखे,
खुद का ही विस्तार हुआ है
स्वयं लिखे हैं सारे लेखे !
बुधवार, जून 22
नदिया ज्यों नदिया से मिलती
हर सुख-दुःख भी तुझसे संभव,
यह ज्ञान और अज्ञान सभी
तुझसे ही प्रकटा सुंदर भव !
तू बुला रहा हर आहट में
हर चिंता औ' घबराहट में,
तूने थामा है हाथ सदा
आतुरता नहीं बुलाहट में !
हो स्वीकार निमंत्रण तेरा
तेरे आश्रय में सदा रहूँ,
अब लौट मुझे घर आना है
तुझ बिन किससे यह व्यथा कहूँ !
‘मैं’ तुझसे मिलने जब जाता
मौन मौन में घुलता जाये,
शब्द हैं सीमित मौन असीम
वही मौन ‘तू’ को झलकाए !
‘मैं’ खुद को कभी लख न पाता
जगत दिखा जब मिलने जाए,
खुद से अनजाना ही रहता
वक्त का पहिया चलता जाए !
नदिया ज्यों नदिया से मिलती
सागर में जा खो जाती है,
‘मैं’ ‘तू’ में सहज विलीन हुआ
कोई खबर नहीं आती है !
शनिवार, जून 18
'है' एक अपार अचल कोई
'है' एक अपार अचल कोई
गर ‘है’ में टिकना आ जाए
‘नहीं’ का कोई सवाल नहीं,
तृण भर भी कमी कहाँ ‘है’ में
‘नहीं’ उलझन की मिसाल वहीं !
‘नहीं’ कुछ भी हल नहीं होता
जग सागर में उठतीं लहरें,
‘है’ एक अपार अचल कोई
बन शीतलता देता पहरे !
‘है’ की तलाश में ‘नहीं’ लगा
हल भी मिलता आधा आधा,
कैसे यह बुझनी सुलझेगी
जब तक न बने उर यह राधा !
गुरुवार, जून 16
भेद - अभेद
भेद - अभेद
यह चाह कि कोई देखे
फूल को खिलने नहीं देगी
वह तो अच्छा है कि
किसी फूल को यह चाह नहीं होती
बड़ा फ़ासला है तेरे मेरे बीच
इसी चाह के कारण
वरना यह मुहब्बत कब की
परवान चढ़ गयी होती
पलकें उठा के देखते हैं वह
नज़रें किसी की टिकी हैं या नहीं
अपनी सीरत पे यक़ीन नहीं आता
हसीनों को भी
ज़िंदगी जैसी भी है
खूबसूरत है
लाइक्स की चाह ने इसे
क्या से क्या न बना दिया
देखने वाला भी वही
देखा गया भी वही
क्यों भेद की दीवार कोई
बीच में उठा गया !
शनिवार, जून 11
अनायास ही
अनायास ही
अनंत की उड़ान भर रहा
मन का पंछी अनायास ही
कृपा का बादल बरस रहा हो
जैसे नभ से बिन प्रयास ही
कोई अद्भुत खेल चल रहा
शांति बिछी है पग-पग ऐसी
उग जाती ज्यों दूब धरा पर
पावस ऋतु में बिन आयास ही
जैसे कोई द्वार खुला हो
अंतर गह्वर से खिसका हो
कोई पाहन
बह निकली हो धार प्रेम की
कल-कल छल-छल अनायास ही
अथवा नील गगन में उड़ता
राजहंस हो
निर्मल धवल शिखर को छूकर
पा लेता हो तृप्ति अनोखी
या फिर कोई हाथ पकड़ कर
ले जाता हो
निज आश्रय में बिन प्रयास ही !
शुक्रवार, जून 10
भीतर जो भी भाव सृजन के
भीतर जो भी भाव सृजन के
जलकर बाती तम हरती है
कवि ! तू अपनी ज्योति प्रखर कर,
अँधियारा घिर आया जग में
तज प्रमाद निज दृष्टि उधर कर !
श्रम से स्वेद बहे जो जग में
फूल खिलाता वही वनों में,
तिल-तिल कर जलता जब सूरज
उजियारा छाता इस जग में !
भीतर जो भी भाव सृजन के
अकुलाहट की आह जो जगी,
जीवन पथ निर्विघ्न बनाए
वही बनेगी क्षमता उर की !
बुधवार, जून 8
छुए जाता है पवन ज्यों
छुए जाता है पवन ज्यों
ज़िंदगी पल-पल गुजरती
रूप निज हर क्षण बदलती,
जैसे मिले, स्वीकार लें
देकर प्रथम, अधिकार लें !
व्यर्थ ही हम जूझते हैं
बह चलें सँग धार के यदि,
ऊष्मा भाव की खिल के
मुक्त होगी निज व उनकी !
चार दिन का साथ है यह
क्यों यहाँ ख़ेमे लगाएँ,
छुए जाता है पवन ज्यों
इस जहाँ से गुजर जाएँ !
सोमवार, जून 6
उसी आकाश को लाके ओढ़ाया है
उसी आकाश को लाके ओढ़ाया है
चाहने वालों ने ही कर के दिखाया है
पत्थरों में भी भगवान जगाया है
यूँ तो हर जगह समायी है नमी, लेकिन
बादलों ने ही उसे भू पर बहाया है
कण-कण में उसकी हाज़िरी होगी मगर
किसी राम किसी कृष्ण में नज़र आया है
भूल गया था यह ज़माना जब-जब हक़ीक़त
ज्ञान गीता का फिर-फिर पढ़ाया है
हम वह आकाश हैं जो कभी मिटता नहीं
उसी आकाश को लाके ओढ़ाया है
आग जलती रहे भीतर इश्क़ की सदा
रुलाया लाख पर इसने ही हँसाया है
निरंजन डोलता रहा हवा की मानिंद
किसी ने धूप चंदन का जलाया है
शुक्रवार, जून 3
गीत समर्पण का
हमारी चाहतों में नहीं था प्यार
कभी लाघें नहीं मंदिरों के द्वार
दूर से ही देखते रहे
लोगों का आना-जाना
अभी तो हमें था अपनी प्रतिमा को सजाना
जो भी किया खुद के लिए
औरों का ख़्याल ही नहीं आता था
अहंकार का पत्थर सम्मुख खड़ा
हो जाता था
अपनी सुविधा देखकर की थी किसी की भलाई
थोड़ा सा दान देते हुए बड़ी सी तस्वीर भी खिंचवाई
हमारी ख़ुशी हमारी अपनी बढ़ोतरी में नज़र आती
यह जगत हमारे लिए ही बना है
जाने कौन सी माया यह बता जाती थी
पर कहाँ मिली ख़ुशी, क्योंकि
उसमें प्यार की खुशबू नहीं थी
ख़ुशी प्रकाश की तरह सीधी नहीं मिलती
परावर्तित होकर अपने भीतर खिलती है
यह राज किसी के सामने खुलता है
तो वह पहली बार अस्तित्त्व के सामने झुकता है
उस समर्पण में ही भीतर कोई द्वार खुलता है
हवा का एक झोंका सा आकर
सहला जाता है
तब देने की ललक जगती है !
बुधवार, जून 1
पल पल इसको वही निखारे
पल पल इसको वही निखारे
दी उसने ही पीर प्रेम की
दिलों में भर देता विश्वास,
उड़ने को दो पंख दिए हैं
दिया अपार अनंत आकाश !
वही बढ़ाये इन कदमों को
नित रचता नूतन राहों को,
लघुता झरी ज्यों बासी फूल
सदा जगाया शुभ चाहों को !
कूके जो कोकिल कंठों से
महक रहा सुंदर फूलों में,
उससे ही यह विश्व सजा है
सीख छिपी शायद शूलों में !
कोई भूला उसे न जाने
दुःख अपने ही हाथों बोता,
केवल निज सत्ता पहचाने
नित दामन अश्रु से भिगोता !
स्वामी है जो सकल जहाँ का
उसकी जय में खुद की जय है,
नाम सदा उसका ही लेना
उस संग हर कोई अजय है !
वही गगन, जल, अगन बना है वही हवा, धरती बन धारे, उसने ही यह खेल रचाया पल पल इसको वही निखारे !
हम उसके बनकर जब रहते
सहज पुलक में भीगा करते,
उसकी मस्ती की गागर से
छक-छक कर मृदु हाला पीते !