शनिवार, जून 29

एक खुला आसमान

एक खुला आसमान


 पहुँचे नहीं कहीं मगर, हल्के हुए ज़रूर 

मनों ने हमारे, कई बोझे उतारे हैं 


 बाँध कर रखा जिन्हें  था, खोने के त्रास से 

मुक्त किया जिस घड़ी, आसपास ही बने हैं 


प्रेम की कहानियाँ अब, रास नहीं आ रहीं  

अहं को ही प्रेम का, नाम जब से धरे हैं 


अहं की वेदी पर, शहीद हुआ प्रेम सदा 

प्रेम की कहानियों के, हश्र यही हुए हैं 


एक खुला आसमान, एक खुला अंतर मन 

हर तलाश पूर्ण हुई, होकर गगन जिये हैं 


जहाँ  से चले थे बुद्ध, वहीं लौट आये हैं 

पाया नहीं कुछ नवीन, व्यर्थ त्याग दिये हैं 


जीवन का देवता, भेंट यही माँगता है 

उतार दे हर बोझ जो, संग सदा चले है  


बुधवार, जून 26

प्रेम

प्रेम 


 

बाँटने से बढ़ता है प्रेम

 भीतर भरा है प्रेम का जो स्रोत

उसे लुटाने का 

अवसर ही जीवन है 

बन जाता तब तुम्हारा मन

ईश्वर का आँगन है 

वही बहता है शिराओं में रक्त बनकर 

वही श्वास के साथ फेरा लगाता है 

उसकी याद में बहाया एक-एक अश्रु 

महासागरों की गहराई भर जाता है 

प्रेम कोई शब्द नहीं 

न ही भाव या भावना कोरी 

नहीं कृत्य या चाहत कोई 

यह तुम हो 

तुम्हारे होने का प्रमाण है 

यही तो धरा को धारने वाला आसमान है 

प्रेम श्रद्धा और विश्वास है 

किसी को कुछ देने की आस है 

हज़ार ख़ुशियों के फूल उगाने वाली बेल है 

प्रेम बना देता हर आपद को खेल है 

इसकी एक किरण भी उतर जाये मन में 

बिखेर देना किसी महादानी की तरह 

प्रेम में होना ही तो होना है 

यही बीज दिन-रात मनु को बोना है ! 


रविवार, जून 23

सत्य



सत्य 


‘मैं’ तुममें विलीन हो जाये 

यही चाह होती है प्रेम की 

यही चाह लघु मन की है 

जो विशाल मन में डुबाना चाहता है ख़ुद को 

अनंत में खोकर अपने बूँद जैसे अस्तित्त्व को 

सागर बनाना चाहता है 

जैसे अग्नि का एक स्फुलिंग 

पुन:  गिर जाये अग्निकुंड में

सूर्य की एक किरण उसमें लौट जाये 

तो बन जाएगी महासूर्य 

और फिर लौटे 

उसके गुणधर्म अलग होंगे 

वह जान लेगी अपना सत्य 

वह वही है 

तत् त्वम्असि श्वेतकेतु ! 



बुद्ध 


नहीं बनाया कोई मंदिर 

 राज महल न ही कोई गढ़ा,

किंतु बुद्ध सम्राट हृदय के 

 यह जग सम्मुख नत हुआ खड़ा ! 


 विदाई 


विदाई की बेला है 

दुख तो स्वाभाविक है 

नम होंगे नयन 

जार-जार अश्रु भी बहेंगे 

पर याद रखना होगा 

हर अंत एक नयी शुरुआत है 

हर रात का होता प्रभात है !


शुक्रवार, जून 21

वही चेतना वही बोध है


वही चेतना वही बोध है

चिन्मय बसा रहे मेधा में

योग्य वरण के एक ईश है,

जग यह मोहक रूप धर रहा

सुंदर उससे कौन शीश है !

 

उसे जानना पाना उसको

हो शुभ जीवन का लक्ष्य यही,

जिससे परम प्रपंच घटा है

महिमा सदा अनंत अगम की !

 

वही श्रेष्ठ विभु सुख का सागर

नीर, वायु, पावक का दायक, 

जड़ यह पाँच भूतों की सृष्टि

चेतन वही ज्ञान संवाहक !

 

उस चेतन का ध्यान धरें हम

उसके हित ही उसे भजें हम,

जग ही माँगा यदि उससे भी

व्यर्थ रहेगा यह सारा श्रम !

 

उसके सिवा न कोई दूजा

इन श्वासों का वही प्रदाता,

प्रज्ञामेधाधी उससे है

ज्ञान स्वरूप वही है ज्ञाता !

 

वही चेतना वही बोध है

उसका ही हो मन में चिंतन,

आनंद का स्रोत अजस्र है

स्फुरण सहज वही, वही स्पंदन !

 

अपनी महिमा वह ही जाने

मेधा में मणि जैसा दमके,

यही कामना है अंतर की

अपनी गरिमा में नित चमके !

 

सभी कारणों का वह कारण

खुद रहता है सदा अकारण,

सुंदर दुनिया एक रचायी

निज उजास का करने वितरण !

 

अहंकार कर जिस क्षण भूला

टूट गई वह डोर प्रीत की,

मन विवेक का थामे दामन

दुविधा छूटे हार-जीत की !

 

अविनाशी कण-कण में देखे

शाश्वत हर घटना के पीछे,

हर अंतर में छुपा पुरातन

मौन ध्यान में सहज निहारे ! 


मंगलवार, जून 18

हम आत्मदेश के वासी हैं

हम आत्मदेश के वासी हैं 


भीतर एक ज्योति जलती है 

जो तूफ़ानों में भी अकंप, 

तन थकता जब मन सो जाता

जगा रहता आत्मा निष्कंप !


तन शिथिल हुआ मन दृढ़ अब भी 

‘स्वयं’ सदा जागृत है भीतर, 

हम आत्मदेश के वासी हैं 

फिर क्यों हो जरा-मृत्यु से डर !


मृत्यु पर पायी विजय हमने 

जिस पल भीतर देखा ख़ुद को, 

नित मौन अटल घटता अंतर

बाहर बैठाया हर  दुख को  !


जीवन की संध्या आती है 

कब मेला यह उठ जाएगा ? 

नहीं शिकायत कोई जग से 

संग ‘वही’ अपने जाएगा  !


शनिवार, जून 15

जीवन रहे बुलाता हर पल

जीवन रहे  बुलाता हर पल


​​भीतर इक संसार दूसरा 

शायद  यह जग कभी न जाने, 

इस जीवन में राज छिपे हैं 

लगे सभी हैं जिन्हें छिपाने !


लेकिन इसी अँधेरे में इक 

दीप जला करता है निशदिन, 

देख न पाते, कहीं दूर है 

खुला जो नहीं तीसरा नयन !


कोई कहाँ जान सकता है 

मन की दुनिया बड़ी निराली, 

यूँ ही नहीं सुनाते आगम 

अंधकार ने ज्योति चुरा ली !


फिर भी यह श्वासें चलती हैं 

चाहे लाख तमस ने घेरा, 

 कैसे अर्थवान हो जीवन 

इसी प्रश्न ने डाला डेरा !


कोई पीछे खड़ा हँस रहा 

जीवन रहे बुलाता हर पल, 

रंग-बिरंगी इस दुनिया की 

याद दिलाती है हर हलचल !  


कितना गहरे और उतरना 

 अभी सफ़र बाकी है कितना, 

जहां पुष्प प्रकाश के खिलते 

जहाँ बसा अपनों से अपना ! 


बुधवार, जून 12

सुख खिलता सदा उजालों में

सुख खिलता सदा उजालों में


​​उलझ-पुलझ अंतर रह जाता  

अपने ही बनाये जालों में, 

जो भी चाहा वह मिला बहुत 

खो  डाला किन्हीं ख़्यालों में !


तम की चादर से ढाँप लिया 

सुख खिलता सदा उजालों में, 

परिवर्तन भी आया केवल 

चाय के कप के उबालों में !


जिनको खाकर तन कुम्हलाया 

हर राज था उन्हीं निवालों में, 

जो विस्मय से भर सकता मन 

उलझाया उसे सवालों में !


उड़ने को खुला गगन पाया 

ख़ुद घेरा इसे दिवालों में, 

जीवन की संध्या में पूछा 

क्या पाया भला बवालों में ?


सोमवार, जून 10

सभी दलों से देश बड़ा है

सभी दलों से देश बड़ा है 


लोकतंत्र की विजय हुई है 

हारे-जीततें होंगे लोग, 

देश समन्वय के रस्ते  पर 

आश्वासित हुए सारे लोग !


तय कर दिया चुनावों ने यह 

राजनीति से बड़े हैं राम,  

मिल-जुल कर ही बढ़ना आगे 

संविधान का यही  पैग़ाम !


सभी दलों से देश बड़ा है 

सेवा का जो अवसर देता, 

सरकारें आये जायेंगी 

युगों-युगों से भारत माता !


शुक्रवार, जून 7

एक कतरा प्रेम

एक कतरा प्रेम 


बचपन में हम झगड़ते हैं 

यौवन में कुछ न कुछ पकड़ते हैं 

वह तो बाद में पता चलता है 

हक़ीक़त में जिसकी तलाश है 

वह न झगड़ने से मिलती है

 न पकड़ने से !


वह तो हवाओं में 

झूमने की कला है !


बारिश में भीगने 

आँखों से बतियाने 

हाथ में हाथ डाले 

हरी घास पर 

डोलने में हर बार 

भीतर कुछ पला है !


जो न था पास, जब

कई अपने पीछे छूट गये 

कुछ सपने बेवजह ही टूट गये !

 

सत्य है राम का नाम

 सुना न जाने कितनी ही बार 

 पर क्यों फुला लिया मुँह 

जब आये थे राम प्रेम बनकर

जीवन पथ पर  राह दिखाने !


जिस प्रेम का एक कतरा भी 

छू जाये मन को  

तो गूँजने लगते हैं मीठे तराने !


उस एक के लिए ही 

हर झगड़ना था शायद 

उसे ही पकड़ना था 

अब जाना है राज दिल ने 

यूँ ही ‘मैं’ का वह अकड़ना था  !




बुधवार, जून 5

अब चलो, पर्यावरण की बात सुनें

अब चलो, पर्यावरण  की बात सुनें 


ख़त्म हुई चुनाव की गहमा गहमी 

अब चलो, पर्यावरण  की बात सुनें 


सूखते जलाशयों पर नज़र डालें 

कहीं झुलसती धरती की बात सुनें 


कहीं घने बादलों का करें स्वागत

उफनती नदियों का दर्द भी जानें  


पेड़ लगायें, जितने गिरे या कटे   

जल बचायें, भू में जज्ब होने दें  


गर्म हवाओं में इजाफ़ा मत करें  

ग्रीनहाउस गैसों को ना बढ़ायें 


बरगद लगायें बंजर ज़मीनों पर 

न हो, गमलों में चंद फूल खिलायें 


पिघल रहे ग्लेशियर बड़ी तेज़ी से 

पर्वतों पर न अधिक  वाहन चलायें 


सँवारे कुदरत को, न कि दोहन करें 

मानुष   होने का कर्त्तव्य निभायें 


पेड़-पौधों से ही जी रहे प्राणी 

है यह धरा  जीवित, उसे बसने दें 


जियें स्वयं भी जीने दें औरों को

नहीं कभी कुदरती आश्रय ढहायें 


साथ रहना है हर हाल में सबको 

बात समझें, यह  औरों को बतायें !