इतना ही तो कृत्य शेष है
‘मैं’ बनकर जो मुझमें बसता
‘तू’ बनकर तुझमें वह सजता,
मेघा बन नभ में रहता जो,
धारा बन नदिया में बहता !
चुन शब्दों को गीत बनाना
अपनी धुन में उसे बिठाना,
इतना ही तो कृत्य शेष है
सुनना तुमको और सुनाना !
अब न कोई सीमा रोके
नील गगन में किया ठिकाना,
खुला द्वार, है खुला झरोखा
सहज हो रहा आना जाना !
कितना सार्थक और सुखद संवाद है । बहुत सुंदर नील गगन छाँव तले हम रोज बैठे और ये संवाद हमे गहन परमात्मिक सुखानुभूति से जोड़ दे ।
जवाब देंहटाएंवाह ! सुंदर प्रतिक्रिया!! स्वागत व आभार !
हटाएंआपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" पर शनिवार 8 मार्च 2025 को लिंक की जाएगी ....
जवाब देंहटाएंhttp://halchalwith5links.blogspot.in पर आप सादर आमंत्रित हैं, ज़रूर आइएगा... धन्यवाद!
!
बहुत बहुत आभार रवींद्र जी !
हटाएंबहुत सुंदर सृजन
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार !
हटाएंसुंदर काव्य सृजन
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार !
हटाएं