रविवार, जुलाई 6

अब

अब 


चीजें अब साफ़ हो गयीं 

 अंधेरा छँटने लगा है

 पहचान रहा मन मंज़िल को

जो भ्रमित करता रहा है 

 पकड़ी है प्रकाश की डोरी

जीवन जैसे एक किताब कोरी 

जिसमें लिखा जाना है 

हर पल एक शब्द नया

 हो चाह कोई भी 

मन सरवर कर देती है गंदला

चीजें जैसी हैं 

वैसी बहुत सुंदर हैं 

 अंतर सहलाती 

भोर की शीतल पवन

तृप्त करे पंछियों का कलरव 

आकाश सब ओर घेरे है 

और धरती में  

फैल गई हैं जड़ें नीचे तक 

जब सरल हो जाये जीना 

तब मरने का भय नहीं ! 


7 टिप्‍पणियां:

  1. तब क्या था
    और अब क्या नहीं है
    अंधेरा,
    किताब,
    जीवन या
    मंजिल
    आपसे एक प्रश्न

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. तब अंधेरा था अब प्रकाश है, तब मन में इच्छाएँ थीं अब मन ख़ाली है तब जीवन कुछ पाने का, कहीं जाने का, कुछ बनने का नाम था, अब जहाँ हैं, वहीं मंज़िल हैं

      हटाएं
  2. क्या सुंदर कहा आपने...जितना सरल जीना होगा मरना उतना ही भयमुक्त।
    सादर।
    -------
    जी नमस्ते,
    आपकी लिखी रचना मंगलवार ८ जुलाई २०२५ के लिए साझा की गयी है
    पांच लिंकों का आनंद पर...
    आप भी सादर आमंत्रित हैं।
    सादर
    धन्यवाद।

    जवाब देंहटाएं