अगम, अगोचर बहे सदा ही
सुर-संगीत की तरणि बहती
है अजस्र वह धार परम की,
निशदिन कोई यज्ञ चल रहा
अगम, अगोचर बहे सदा ही !
भीगे, डूबे, उतराए उर
पोर-पोर हो सिक्त देह का,
सुन सकते तो धरो कान अब
स्वाद चखो फिर मुक्त नेह का !
चुक जाती वह धार नहीं यह
युगों-युगों से तट पर जिसके
करुणा प्रीत बही अनिला है !
इसी घाट पर गोपी थिरकी
वंशी की भी तान छिड़ी थी,
स्वीकृत राम की शक्ति पूजा
समाधि अंतिम यहीं घटी थी !
गोदावरी, नर्मदा, यमुना
नाम भिन्न पर घाट वही है,
लक्ष्य एक एक ही स्रोत है
हर राही का बाट यही है !