शनिवार, अक्तूबर 31

अगम, अगोचर बहे सदा ही

अगम, अगोचर बहे सदा ही

सुर-संगीत की तरणि बहती

है अजस्र वह धार परम की,

निशदिन कोई यज्ञ चल रहा

अगम, अगोचर बहे सदा ही !

 

भीगे, डूबे, उतराए उर

पोर-पोर हो सिक्त देह का,

सुन सकते तो धरो कान अब

स्वाद चखो फिर मुक्त नेह का !

 

चुक जाती वह धार नहीं यह

इक अखंड. अनंत सलिला है,

युगों-युगों से तट पर जिसके

करुणा प्रीत बही अनिला है !

 

इसी घाट पर गोपी थिरकी

वंशी की भी तान छिड़ी थी,

स्वीकृत राम की शक्ति पूजा

समाधि अंतिम यहीं घटी थी !

 

गोदावरी, नर्मदा, यमुना

नाम भिन्न पर घाट वही है,

लक्ष्य एक एक ही स्रोत है

हर राही का बाट यही है !   

शुक्रवार, अक्तूबर 30

शरद पूर्णिमा हर जीवन में

शरद पूर्णिमा हर जीवन में

एक दशहरा ऐसा भी हो

जल जाए हर कलुष हृदय से,

अहंकार का मुकुट गिरे फिर

भूमि पर श्री राम के शर से !


राम आत्मा का शासन हो

धी सीता घर वापस आये,

सजग चेतना ज्योति बने फिर

दीवाली सा उर सज जाए !


मृत हो सारी पूर्व धारणा

पूर्वाग्रही कुंभकर्ण हत,

अंधानुकरण हर विस्मृत हो

नित्य नवीन चेतना जागृत !


गिरें खंडहर हर विकार के

प्रलय बरसे नूतन सृष्टि हित,

आसक्ति मोह डोर तोड़कर

उड़े गगन में मानव का चित !


क्रांति घटे हर घर आँगन में

भय के बादल  छँटे गगन से,

नीरव विमल व्योम का दर्शन

शरद पूर्णिमा हर जीवन में !


गुरुवार, अक्तूबर 29

स्वधर्म – परधर्म

स्वधर्म – परधर्म

स्वधर्म – परधर्म

यह सारी कायनात भिन्न नहीं है हमसे
झींगुर बोलता बाहर है पर हम भीतर सुनते हैं
पेड़ पर गाती कोकिल की गूंज भीतर कुछ स्पंदन जगा जाती है
सूरज बाहर है या भीतर ? हमारी आँखें उसी से नहीं देखती क्या  
 बाहर बहती हवा प्राण भीतर भरती  है
भीतर व बाहर का भेद वृथा है
जो भीतर है वही बाहर है !
जो लेन-देन पर चलता है वह संसार है
जो स्वभाव से चलता है
वह अस्तित्व है
जिसका स्वभाव है बंटना
नहीं उसे कोई अभाव है !
वह जुड़ा है अनंत से, स्वधर्म निभाना जानता है
अन्यथा भयावह परधर्म ही निभता जाता है
जहाँ विरोध है, द्वेष है, चाह है, द्वन्द्व है  
जहाँ चुभन है, कुंठा है, अपमान है, भय है, पराजय का भाव है
वहाँ संसार है !
जहाँ प्रेम है, आनंद है, शांति है
सुख का अजस्र प्रवाह है, वहाँ अस्तित्व है जो निर्बाध बहता रहता है
अपनी गरिमा में ! 

मंगलवार, अक्तूबर 27

हम और अस्तित्व

हम और अस्तित्व

 

हम वह वृक्ष बन सकें

जो हजारों का भला करता है

छाँव देता और उनकी क्षुधा हरता है

या बनें बाँसुरी जो खाली है भीतर से

पर अस्तित्व के अधरों से लगकर

मधुर संगीत जिससे उपजता है

हमारे भीतर से हम जब लुप्त हो जाते हैं

सारा संसार समा  जाता है

हवाएं बहने लगती हैं

शक्ति का प्रवाह ऊपर से गिरता है

जैसे शंकर की जटाओं में सिमट जाती है गंगा

बहती है वह जग की तृषा हरने

गौरी धरती है भीषण काली का रूप

सहना होगा जिसे असुरों का आक्रमण

हजार विरोध भी, पर वहाँ कोई नहीं होगा

जो अपमानित हो सके तिल भर

हमें भी बनना होगा मसीहा

छोटा या बड़ा  

क्योंकि अंतरिक्ष समेटे है हर कोई अपने भीतर !

  

शनिवार, अक्तूबर 24

व्यक्त वही अव्यक्त हो सके

 व्यक्त वही अव्यक्त हो सके 

हे वाग्देवी ! जगत जननी  

वाणी में मधुरिम रस भर दो, 

जीवन की शुभ पावनता का 

शब्दों से भी परिचय कर दो !


भाषा का उद्गम तुमसे है 

नाम-रूप से यह जग रचतीं,

ध्वनि जो गुंजित है कण-कण में 

नव अर्थों से सज्जित करतीं !


शिव-शिवानी अ, इ में समाए

क से म पंचम वर्गीय सृष्टि,

हर वर्ण में अर्थ भरे कई

मिले शब्दों से जीवन दृष्टि !


कलम उठे जब भी कागज पर 

व्यक्त वही अव्यक्त हो सके, 

निर्विचार से जो भी उपजे 

भाव वही प्रकटाये मानस !


हे देवी ! पराम्बा माता 

कटुता रोष, असत् सब हर ले, 

गंगा की निर्मलधारा सम 

रचना में करुणा रस भर दे !


शुक्रवार, अक्तूबर 23

छू पाता है उस अखण्ड को

 छू पाता है उस अखण्ड को

छंद बद्ध हो जीवन अपना 

गीत, सहज संगीत जगेगा,

ऋतु, दिन-रात बंधे ज्यों लय में 

उर  से भी सुर-ताल बहेगा !


सुख-दुःख, राग-विराग भी जैसे 

आरोहण-अवरोहण बनकर, 

श्वासों के संग आ महकेंगे 

रसमय हर अनुभव को रचकर !


नहीं विषाद का इक लघु कण भी 

छू पाता है उस अखण्ड को, 

जिससे शक्ति पाती यह सृष्टि 

भाव विचार का है स्रोत जो !


कभी धूप कभी छाँह सुहाती 

मौसम कैसे बदलें मन के,

बंधा एक चक्र में जीवन 

गगन, चन्द्रमा, सागर, जल में !


गुरुवार, अक्तूबर 22

निकट है जो सदा अपना

  निकट है जो सदा अपना

है अधूरा हर समर्पण 

कहाँ कुछ  हम  छोड़ पाते, 

प्रेम पाना चाहते पर 

राज उर में भी छुपाते !


 निकट है जो सदा अपना 

खोजते हम दूर नभ में,

चाहतों से दिल भरा यह 

एक उसकी भी दिखाते !


छिपे अपने लक्ष्य कितने 

उन्हें कैसे भूलता मन, 

सिर झुका है द्वार उसके 

स्वप्न निज सुख का सजाते !


बुधवार, अक्तूबर 21

कुछ अपने दिल की बात करो

 कुछ अपने दिल की बात करो 

तुम दूजों की बातें सुनते 

उनके रंग में नहीं रंगो,

कुछ करो शिकायत निज दुःख की 

कुछ अपने दिल की बात करो !


हो अद्वितीय पहचान इसे 

साहस खोजो एकांत चुनो,

निज गरिमा को पहचान जरा 

जग में सुवास बन कर बिखरो !


वह रब हर इक में छुपा हुआ 

जगने की राह सदा देखे, 

जो उगे नितांत तुम्हारे उर  

उन सपनों को साकार करो !


पहले मन को खंगाल जरा 

कुछ हीरे-मोती जमा करो, 

फिर उन्हें चढ़ाकर चरणों में 

निज भावों का आधान करो !


जो गहराई से प्रकटेगा

संगीत वही कोरा होगा, 

यदि रंग किसी का नहीं चढ़े 

वह गीत तुम्हारा ही होगा !


मंगलवार, अक्तूबर 20

ठहरे विमल झील का दर्पण

 ठहरे विमल झील का दर्पण 

पूर्ण चन्द्रमा, पूर्ण समंदर 

पूर्ण, पूर्ण से मिलने जाये, 

 माने मन स्वयं को अधूरा 

अधजल गगरी छलकत जाये !


चाहों के मोहक जंगल में 

इधर भागता उधर दौड़ता, 

कुछ पाने की कुछ करने  की

सदा किसी फ़िराक में रहता !


ठहरे विमल झील का दर्पण 

शांत सदा भीतर तल झलके, 

जिस पर टिकी हुई वह धरती 

थिर अकंप आधार वह दिखे  !


मन लहरों सा जब भी कँपता 

भुला दिया बस निज आधार, 

उस तल से संदेसे आते 

सदा बुलाता भेजे दुलार !


हर कम्पन उसकी रहमत है 

फिर-फिर पूर्ण की चले तलाश, 

जाने खुद को पूर्ण पुष्प  सा 

हर सिंगार या रूद्र पलाश !


सोमवार, अक्तूबर 19

मौन का उजास

 मौन का उजास 

जब चुप हो जाती है 

मन की टेर

नहीं रह जाती कोई झूठी पहचान 

गिर जाते हैं सारे भेद 

जाति, धर्म, वर्ण की दीवारें 

टूट कर बिखर जाती हैं 

जब सारे आवरण उतार 

केवल होना मात्र शेष रह जाता है 

उस एकाकी क्षण में होना ही

 उसकी छुअन से स्पर्शित कर जाना है 

जो हर जगह है 

और वह छुअन ही प्रेम से भर जाती है 

जब तक दुई है मन में 

बंटा  है दो में 

एक को छोड़ना दूसरे को पाना है 

तब तक शब्दों का जगत है 

जब झर जाते हैं सारे द्वंद्व 

तभी वह मौन उगता है 

जिसे भर देता है अस्तित्त्व 

असीम आनंद से ! 


रविवार, अक्तूबर 18

उस देवी की पूजा करें हम

उस देवी की पूजा करें हम  


थामती जो हर  विपद में 

 ज्ञान दीपक पथ दिखाती,

प्राण का आधार भी है 

  रात्रि बन विश्राम देती !


सौंदर्य देवी कहाए

जगत को आकार देती, 

शिव मिलन की प्रेरणा दे 

ले स्वयं कैलाश जाती !


ऊर्जा अपार धारे

अनंत का दर्शन कराती, 

 दात्री बनी सिद्धि रिद्धि

निःशंक जो सदा विचरती !

 

महातपस्विनी जगत मा 

पराम्बा,   महायोगिनी, 

शिव प्रिया,  माँ  महागौरी 

जगत तोषिणी व पोषिणी !

गुरुवार, अक्तूबर 15

सिंधु से नाता जोड़ लें

 सिंधु से नाता जोड़ लें

नींद टूटे, स्मरण जागे 

फिर खिल उठे मन का कमल  

 जो बन्द है मधु कोष बन  

   हो प्रकट वह शुभता अमल !


हम बिंदु हैं तो क्या हुआ 

सिंधु से नाता जोड़ लें, 

इक लपट ही हों आग की 

रवि की तरफ मुख मोड़ लें !


अब शक्ति को पहचान निज 

खिल कर उसे बह लेने  दें, 

जो सुप्त है कई जन्म से 

हो व्यक्त सब कह लेने दें !


बुधवार, अक्तूबर 14

जीवन - मरण

 जीवन - मरण 

अछूते निकल जाते हैं वे  

हर बार मृत्यु से 

पात झर जाता है 

पर जीवन शेष रह जाता है

वृक्ष रचाता है नव संसार 

जब घटता है पतझर

नई कोंपलें फूटती हैं 

वैसे ही जर्जर देह गिर जाती है  

नया तन धरने  

जब सताता हो मृत्यु का भय 

तब जीते जी करना होगा इसका अनुभव 

देह से ऊपर उठ 

जैसे हो जाते हैं ऋषि पुनर्नवा 

देह वृद्ध हो पर मन शिशु सा निष्पाप 

या बालक सा अबोध 

तब देह भी ढल जाती है उसके अनुरूप 

चेतना के आयाम  में पहुंचकर ही 

नव निर्माण होता है अणुओं का 

जैसे वृक्ष धारण करता है नव पात 

योगी को मिलता है नव गात !


मंगलवार, अक्तूबर 13

उस लोक में

उस लोक में 


जहां आलोक है अहर्निश 

किंतु समय ही नहीं है जहाँ

रात-दिन घटें कैसे ? 

पर शब्दों की सीमा है 

जागरण के उस लोक में 

जहाँ नितांत एकांत है 

और निपट नीरव 

पर जहाँ जाकर ही मिलता है 

मानव को निजता का गौरव 

उस निजता का जिसमें कोई पराया है ही नहीं 

जहाँ हर पेड़-पौधे, हर प्राणी से 

जुड़ जाते हैं अदृश्य तार 

जहां वाणी के बिना ही संदेश 

लिए-दिए जाते हैं 

चेतना का वह प्रकाश ही 

बरस रहा है ज्योत्स्ना में 

जिसे हंस की तरह चुगना होगा 

उस आभा से ही भीतर

मन का आसन बुनना होगा 

जिससे बुनते हैं कबीर झीनी चादर 

जो ज्यों की त्यों रह जाती है 

उस जागरण की याद 

हमें क्यों नहीं सताती है !