स्वतंत्रता
मुक्त चेतना
उड़ जाती है अनंत की ओर
अब कल्पनाओं की दीवार
आड़े नहीं आती
भरभरा कर गिर जाती है
जैसे हवा में उठा रेत का महल
अंततः वह एक छाया ही तो है !
उस असीम को
अनुभव करके ही
होती है तृप्त
अनायास ही चेतना !
पंछी के पैरों में ज़ंजीरें नहीं बंधी
वह चाहे तो उड़ सकता है
पिंजरा खुला है
हर बंधन ढीला है
एक भ्रम है
स्वतंत्र है हर आत्मा
स्वतंत्रता उसका
जन्मसिद्ध अधिकार है !
स्वतंत्रता भ्रम ही तो है। बहुत गहन भाव लिए सुंदर अभिव्यक्ति।
जवाब देंहटाएंसादर।
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जी नमस्ते,
आपकी लिखी रचना शुक्रवार २० दिसम्बर २०२४ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
सादर
धन्यवाद।
हाँ, भ्रम है, पर भ्रम एक न एक दिन टूटेगा, बहुत बहुत आभार श्वेता जी !
हटाएंसच है आत्मा तो स्वतंत्र ही है ... पर अपने बंधन का क्या किया जाए ...
जवाब देंहटाएंबंधन भी भ्रम है, इसे शास्त्रों और संतों के सान्निध्य में जाकर मिटाया जाये, स्वागत व आभार
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