शनिवार, अक्तूबर 30
हरसिंगार के फूल झरे
शुक्रवार, अक्तूबर 29
कौन है वह
वह इक एल्केमिस्ट विलक्षण !
अहंकार लोहे सा भारी
पिघला उसको कुंदन करता,
ओंकार गुंजन से दिल का
कोना-कोना मंडित करता !
इक निराला कैटेलिस्ट भी !
होने से जिसके सब होता
कुछ करे न सप्रयास वह,
अनायास ही कृपा बरसती
मन ख़ुद ही परिवर्तित होता !
सबसे बड़ा पारखी भी वह !
आरपार सब दिल का परखे
झूठी आशा नहीं दिलाता,
कितना पानी चढ़ा हृदय पर
सच्चे मोती सा चमकाता !
गोता खोरी सीखें उससे !
मन सागर में उतरे गहरे
मणियों, रतनों को फिर पाएँ,
भीतर के प्रांगण को झिलमिल
ज्योति बिन्दुओं से दमकाएं !
एक यात्री दूर देश का !
वाहन बिना सृष्टि में घूमे
अम्बर में डेरा है उसका,
सूर्य चन्द्र हैं सजे थाल में
नित्य वन्दन होता है जिसका !
कुशल है माली बहुत सुजान !
चिदाकाश का बीज गिराता
कृपा वारि से उसे सींचता,
खाद ज्ञान की प्रेम ऊष्मा
देकर पौधा खूब बढ़ाता !
वीणा वादक हृदय वाद्य का !
अंतर्मन को झंकृत करता
देह को चिन्मय और उर्जित,
भाव पुष्प सम सुरभित होते
मेधा जिसको देख चमत्कृत !
बुधवार, अक्तूबर 27
कहाँ खो गयी
कहाँ खो गयी
लुप्त हो गयी
प्रेम बाँसुरी की धुन प्यारी !
चैन ले गया
वैन दे गया
गोकुल का छलिया गिरधारी !
देने में सुख
चाह ही दुःख
सीख दे रही हर फुलवारी !
मौन हुआ मन
अविचल स्थिर तन
बरसी भीतर रस पिचकारी !
अगन विरह की
तपन हृदय की
जल जाये हर भूल हमारी !
सोमवार, अक्तूबर 25
अनहद नाद
ढोल बजें कभी गरजें मेघ
कान्हा की बांसुरिया की धुन,
चहकें पंछी कभी हजारों
मदिर घुंघरूओं की रुनझुन !
कभी बजें इकतारे के सुर
वीणा पर कभी गूँजें राग,
अद्भुत ध्वनियाँ कौन सुनाये
कौन गा रहा फागुन, विहाग ?
सुनते सुनते मन खो जाये
गहन मौन भीतर छा जाये,
मौन से उपजे है संगीत
सन्नाटा भी गीत सुनाये !
दस्तकें दिल द्वार पर देता
मिलने के उसके यही ढंग,
झलक दिखाता छुप जाता फिर
उस अलेख के अनगिन हैं रंग !
अनहद नाद गूंजता भीतर
उसके ही संदेशे लाता,
शांति, प्रेम के पुष्प खिलाकर
सुरभि अनोखी से भर जाता !
अनंत ज्योतियों की ज्योति वह
एक सुनहला चेतन प्रकाश,
स्वयं ही स्वयं पर रीझ मुग्ध
स्वयं को दे असीम आकाश !
शुक्रवार, अक्तूबर 22
मन छोटा सा
गुरुवार, अक्तूबर 21
जितना दौड़ो कम पड़ता है
मंगलवार, अक्तूबर 19
मुक्ति का छंद
शनिवार, अक्तूबर 16
विजयादशमी
हर वर्ष की तरह
और, अगले वर्ष कई और खड़े हो जायेंगे !
....क्या वर्ष भर.... हम रावण से मुक्त रहेंगे ?
नहीं,...तब तक नहीं
जब तक, दस इन्द्रियों वाले दशरथ का
कब ?
तभी न, जब
विवेक राम का साथ देगा
वैराग्य लक्ष्मण
दोनों प्राण रूपी पवन पुत्र के जरिये
बुद्धि सीता को मुक्त करेंगे
तब होगा रामराज्य
जर्जर हो यह तन, बुझ जाये मन
उसके पहले
जला डालें अपने हाथों
अहंकार रावण, मोह रूपी कुम्भकर्ण
लोभ रूपी मेघनाथ भी
उसी दिन होगी सच्ची विजयादशमी !
अनिता निहालानी
१६ अक्तूबर २०१०
गुरुवार, अक्तूबर 14
शरद की एक संध्या
भीगी-भीगी दूब ओस से
हरीतिमा जिसकी लुभाती
शेफाली की मोहक सुरभि
झींगुर गान सँग तिर आती I
शरद काल का नीरव नभ है
रिक्त मेघ से, दर्पण जैसा
दमक रहा साँझ का तारा
चन्द्र बना सौंदर्य गगन का I
हल्की हल्की ठंडक प्यारी
सन्नाटे को सघन बनाती
पेड़ों, पौधों की छायाएं
उपवन रहस्यमयी बनातीं I
नन्हें नन्हें कीट दूब में
श्वेत पतंगे ज्योति खोजते
नवरात्रि पूजा मंगल स्वर
छन के आते मंदिर पट से I
एक और आवाज गूंजती
नीरवता को भंग कर रही
बिजली गुम हो गयी लगती है
जेनरेटर की धुन बज रही !
अनिता निहालानी
१३ अक्तूबर २०१०
बुधवार, अक्तूबर 13
प्रेम पंख देता है मन को
सारे जग को मीत बना लें
सोमवार, अक्तूबर 11
कहानी एक दिन की
हम डाकिये
जो भी जिसने जग में पाया
एक उसी स्रोत से आया
सदा मुक्त हो उसे लुटायें
क्यों न हम डाकिये बन जाएँ ?
झोली कभी न होगी खाली
छिपा वहाँ है अनंत खजाना
छोड़ कृपणता हों उदार तो
जानें, देना ही है पाना I
देने में ही राज छिपा है
लुटा रहा वह युगों युगों से
कुदरत में अनमोल रत्न हैं
देना चाहे हमें कभी से I
थोड़ा सा पाकर हम हर्षित
छुपा-छुपा कर सबसे रखते
प्रेम भाव भी मुस्कान भी
जाने क्यों देने से डरते I
क्या कुछ हमसे खो जायेगा
क्या अपना है पास हमारे
जो तुच्छ है वही कमाया
श्रेष्ठ सभी गुण उसके सारे I
उसका ही उसको लौटाएं
व्यर्थ भार क्यों ढोयें जग में
खाली हों बांसुरी जैसे
सुर उसके गूंजेगें हम में I
अनिता निहालानी
११ अक्तूबर २०१०
शुक्रवार, अक्तूबर 8
हे माँ तुझे प्रणाम!
आश्विन शुक्ला नवरात्रि का
उत्सव अद्भुत कालरात्रि का
देवी दुर्गा महामाया का
राज राजेश्वरी, जगदम्बा का I
कल्याणी, निर्गुणा, भवानी
अखिल विश्व आश्रयीदात्री
वसुंधरा, भूदेवी, जननी
धी, श्री, काँति, क्षमा, स्मृति I
श्रद्धा, मेधा, धृति तुम्हीं हो
माता गौरी, दुःख निवारिणी
जया, विजया, धात्री, लज्जा
कीर्ति, स्पृहा, दया कारिणी I
चिन्मयी देवी पराम्बा तुम
उमा, पार्वती, सती, भवानी
ब्रह्मचारिणी, ब्रह्मस्वरूपिणी
सावित्री, शाकम्बरी देवी I
काली माँ, कपालिने अम्बा
स्वाहा तुम स्वधा कहलाती
विश्वेश्वरी, आनन्ददायिनी
शांतिस्वरूपा, आद्याशक्ति I
त्रिगुणमयी, करुणामयी, कमला
चण्डिका, शाम्भवी, सुभद्रा
हे भुवनेश्वरी, माता गिरिजा
मंगल दात्री, हे जगदम्बा!
सिंह वाहिनी, माँ कात्यायनी
चंद्रघंटा, कुष्मांडा देवी
अष्टभुजा, स्वर्णमयी माँ
त्रिनेत्री तुम सिद्धि दात्री I
इच्छा, कर्म, ज्ञान की शक्ति
अन्नपूर्णा, इड़ा, विशालाक्षी
कोटिसूर्य सम काँति धारिणी
क्षेमंकरी, माँ शैलवासिनी I
गूंजे घंटनाद व निनाद
नाश किये मुंड और चंड
कुंडलिनी स्वरूपा माता
महिषासुरमर्दिनी प्रचंड I
शक्ति बिना हैं शिव अधूरे
सृष्टि के कार्य नहीं पूरे
ज्योतिर्मयी, जगतव्यापिनी
सजे मार्ग, मंदिर कंगूरे I
देवी का आगमन सुंदर
उतना ही भव्य प्रतिगमन
जगह जगह पंडाल सजे हैं
करते बाल, युवा सब नर्तन I
अनिता निहालानी
८ अक्तूबर २०१०
गुरुवार, अक्तूबर 7
खुलवाएं जो बंद द्वार है
बुधवार, अक्तूबर 6
दर्द की दास्तां
सदगुरु पावनी जीवन ज्योति
मंगलवार, अक्तूबर 5
सहज प्रेम
सहज प्रेम जीवन में आये, कैसी उलटफेर कर जाये
जो भी सच लगता था पहले
स्वप्न सरीखा उसे बनाता
छुपा हुआ भीतर जो सुख है
खोल आवरण बाहर लाता
जैसे कोई दुल्हन घूंघट, आहिस्ता से रही उठाये
कुछ होने का जो भ्रम पाला
शून्य बनाकर उसे मिटाता
पत्थर सम जो अंतर्मन था
बना मोम उसको पिघलाता
कैसे अद्भुत खेल रचाए, उथलपुथल जीवन में आये
हर पल नया नया सा दर्शन
अद्भुत है उस रब का वर्तन
हरि अनंत हरि कथा अनन्ता
यूँ ही संत नहीं किये समर्पण
नित नूतन वह परम प्रेम है, पल पल नया-नया सच लाए
ऊपर से दिखता है जो भी
भीतर कितने भेद समोए
जैसे कोई कुशल चितेरा
छुपा हुआ नव रंग भिगोये
या फिर नर्तक एक अनूठा, हर क्षण नयी मुद्रा दिखलाये
भीतर कोई है, मार्ग दो
बाहर आने को अकुलाता
फूट रहा जो रक्त गुलाल
उत्सुक तुम्हें लगाना चाहता
अहो ! सुनो यह स्वर सृष्टि के, नव गीत नव छंद सुनाये
अनिता निहालानी
५ अक्टूबर २०१०
रविवार, अक्तूबर 3
यज्ञ
यज्ञ भीतर चल रहा है
श्वास समिधा बन संवरती
प्रीत जगती की सुलगती
मोह कितना छल रहा था,
सहज सुख अब पल रहा है !
मंत्र भी गूजें अहर्निश
ज्योति माला है समर्पित
कामना ज्वर जल रहा था,
अहम मिथ्या गल रहा है !
अनवरत यह यज्ञ चलता
प्राण दीपक नित्य जलता
पास न कुछ हल रहा था,
उम्र सूरज ढल रहा है !
खोजता था मन युगों से
छल मिला स्वर्ण मृगों से
व्यर्थ भीतर मल रहा था
परम सत्य पल रहा है !
चाह थी नीले गगन की
मृत्यू देखी हर सपन की
स्नेह घृत भी डल रहा था
द्वैत अब तो खल रहा है !
अनिता निहालानी
३ अक्टूबर २०१०