बुधवार, नवंबर 30

नन्हा रजकण सृष्टि समेटे


नन्हा रजकण सृष्टि समेटे


बाशिंदा जो जिस दुनिया का
गीत वहीं के ही गायेगा,
अम्बर में उड़ने वाला खग
गह्वर में क्या रह पायेगा !

उस अनंत स्रष्टा का वैभव
देख-देख झुक जाता अंतर,
जाने कितने रूप धरे हैं
तृप्त नहीं होता रच-रच कर !

स्वयं तो शांत सदा एकरस
कोटि-कोटि ब्रह्मांड रचाए,
भीतर भर दी चाह अनोखी
देख-देख भी उर न अघाये !

रंगों की ऐसी बरसातें
खुशबू के फव्वारे छोड़े,
रसमय उस प्रियतम ने देखो
छेड़ दिये हैं राग व तोड़े !

कुछ भी यहाँ व्यर्थ न दीखे
नन्हा रजकण सृष्टि समेटे,
तृण का इक लघु पादप देखो
सुख अपनी गरिमा में लपेटे ! 

सोमवार, नवंबर 28

रब भीतर तू बिछड़ा था कब


रब भीतर, जग बिछड़ा था कब


तोड़ दीं बेडियाँ अब तो सब
अब ना जग चाहिए, न ही रब,
तज कर ही तलाश को जाना
रब भीतर, जग बिछड़ा था कब !

चाह मात्र ही दीवार थी
नाहक जिंदगी दुश्वार थी,
मुक्त पखेरू की मानिंद था
चाहत ही लटकी कटार थी !

नभ अपना अब जग सब अपना
नहीं अधूरा कोई सपना,
कदम-कदम पर बिखरी मंजिल
नहीं नींद में उनको जपना !

जिसे भेद का रोग हो लगा
कोई उजास न दिल में जगा,
वही मिटाये बस दूरी को
दिल तो सदा खुशबू में पगा !

दीप से ज्योति की है दूरी?
माटी में है गंध जरूरी,
दिल में नहीं, कहाँ होगी फिर
परिक्रमा मंदिर की पूरी !


शुक्रवार, नवंबर 25

तेरे भीतर मेरे भीतर


तेरे भीतर मेरे भीतर

स्वर्ण कलश छिपा है सुंदर
तेरे भीतर मेरे भीतर,
गहरा-गहरा खोदें मिलकर
तेरे भीतर मेरे भीतर !

दिन भर इधर-उधर हम खटते
नींद में उसी शरण में जाते,
शक्तिपुंज वह सुख का सागर
फिर ताजे हो वापस आते !

होश जगे यदि उसको पाएँ
यह प्यास भी वही जगाए,
सुना बहुत है उसके बारे
वह ही अपनी लगन लगाये !

इस मन में हैं छिद्र हजारों
झोली भर-भर वह देता है,
श्वासें जो भीतर चलती हैं
उससे हैं यह दिल कहता है !

अग्नि के इस महापुन्ज में
देवशक्तियां छुपी हैं कण-कण,
बर्फीली चट्टानों में भी
मिट्टी के कण-कण में जीवन !

जो भी कलुष कटुता भर ली थी
उसके नाम की धारा धो दे,
जो अभाव भी भीतर काटे
अनुपम धन भर उसको खो दें !
 




बुधवार, नवंबर 23

मन के पार उजाला बिखरा


मन के पार उजाला बिखरा


जीवन इक लय में बढ़ता है
भोर जगे साँझ सो जाये,
कभी हिलोर कभी पीर दे
जाने क्या हमको समझाये !

नए नए आविष्कारों से
एक ओर यह सरल हो रहा,
प्रतिस्पर्धायें बढ़ती जातीं
जीवन दिन-दिन जटिल हो रहा !

निज पथ का राही ही तो है
अपनी मति गति से चलता है,
फिर भी क्यों मानव का उर
सहयात्री से भी डरता है !

मित्रों में ही शत्रु खोजता
प्रेम के पीछे घृणा छिपाए,
दोहरापन ही तोड़ रहा है
दीवाना मन समझ न पाए !

मन के पार उजाला बिखरा
नजर उठाकर भी न देखे,
स्वयं का ही विस्तार हुआ है
स्वयं ही सारे लिखे हैं लेखे !


सोमवार, नवंबर 21

पार वह उतर गया


पार वह उतर गया


दर्पण सा मन हुआ
गगन भीतर झर गया

सहज सिद्ध प्रेम यहाँ
होश भीतर भर गया

हो सजग जो भी तिरा
पार वह उतर गया

पाप-पुण्य खो गए
वर्तमान हर गया

दिख रहा भ्रम ही है
भाव कोई भर गया

रिक्तता ही जग में है
व्यर्थ मन डर गया

मन जुड़ा जब झूठ से
सत्य फिर गुजर गया

पंचभूतों का प्रपंच
बोध चकित कर गया

सत्य है बहुमुखी
नव आयाम धर गया

मस्त हुई आत्मा
प्रीत कोई कर गया

डूबा जो वह तर गया
बच रहा वह मर गया



शुक्रवार, नवंबर 18

तू उस पार दिव्य आलोकित


तू उस पार दिव्य आलोकित

जन्म है दुःख, दुःख है मरण
जरा है दुःख, दुःख है क्षरण
जो थोड़ा सा भी सुख मिलता
खो जाता, हो जाता झरण !

भीतर कोई दर्द है गहरा
एक चुभन सी टीस उठाती,
रह-रह कर लघु लहर कोई
भीतर कोई पीर जगाती !

जीवन कितने भेद छिपाए
रोज उघाड़े घाव अदेखे,
जाने कितना बोझ उठाना
जाने क्या लिखा है लेखे !

अहम् की दीवार खड़ी है
मेरे-तेरे मध्य, ओ प्रियतम !
बाधा यह इक मात्र बड़ी है
मिलन न होता दूर हैं हम-तुम !

तू उस पार दिव्य आलोकित
सदा निमंत्रण भेज रहा है,
घन तमिस्र के सूनेपन में
मन ही जिसे सहेज रहा है !   

कैसा सुंदर पल होगा वह
यह दीवार भी ढह जायेगी,
युगों-युगों से जो मन में है
पीड़ा विरह की बह जायेगी !

बुधवार, नवंबर 16

यह अमृत का इक सागर है


यह अमृत का इक सागर है

बुद्धि पर ही जीने वाले
दिल की दुनिया को क्या जानें,
वह कुएं का पानी खारा
यह अमृत का इक सागर है !

तर्कों का जाल बिछाया है
क्या सिद्ध किया चाहोगे तुम,
जो शुद्ध हुआ मन, सुमन हुआ
वह भूलभुलैया भ्रामक है !

शिव तत्व ही सत्य जगत का है
मानव के दिल में प्रकट हुआ,
बुद्धि भी नतमस्तक होती
छलके जब बुद्ध की गागर है !

दो आँसू बन के छलक गया  
भीतर जब नहीं समाय रहा,
लेकिन जग यह क्या समझेगा
सुख के पीछे जो पागल है !

टुकुर-टुकुर तकते दो नैना
भीतर प्रज्ज्वलित एक प्रकाश,
अक्सर दुनिया रोया करती
जब तक नभ केवल बाहर है !  

सोमवार, नवंबर 14

जब सारा आकाश हमारा


जब सारा आकाश हमारा

नन्हा पूछे माँ से अपनी
देख गगन में उड़ती चिड़िया,
क्या है यह, क्यों उड़ती है
पूछ रही बाबा से गुड़िया !

पूछ रहे हैं प्रश्न सदा से
नन्हे बच्चे स्वयं को जान के,
पहला प्रश्न ही पूछ-पूछ के
खो जाते हम इस जहान !

‘मैं कौन हूँ’ जो यह पूछे
वही मार्ग जीवन का पाए,
हर पीड़ा से मुक्त हुआ वह
सत्य में स्थिर हो जाये !

मैं सीमित हूँ मान के जग में
कितना वक्त गवांया हमने,
स्वयं की असलियत न जानी
व्यर्थ ही खेल रचाया हमने !

हर उपाधि आश्रय ही है
जीवन सदा सहारा माँगे,
‘मैं भी कुछ हूँ’ इस के बल पर
रात-दिवस हर कोई भागे !

बैसाखी है मात्र उपाधि
मुक्त हुए हम क्यों न रहें,
जब सारा आकाश हमारा
क्यों फिर हम पीडाएं सहें !

सुख की बौछारें होती हैं
शांति का आगार छिपा है,
निराश्रय हुआ जो जग में
उसके हित ही प्यार छिपा है !

शुक्रवार, नवंबर 11

फिर खाली हो मुस्काएगा


फिर खाली हो मुस्काएगा

एकाकी पर नहीं अकेला
अंतर में सबके इक मेला,
इक आवाज सदा गूंजती
जो करती है ठेलमठेला !

रुकते-रुकते फिर चल पड़ता
गिरते-गिरते फिर उठ जाता,
नन्हा सा यह दिल बेचारा
डगमग करता फिर थम जाता ! 

कभी-कभी ही खुद से मिलता
ज्यादातर दौरे पर रहता,
अपने घर आने से डरता
यहाँ वहाँ ही डोला करता ! 

कुछ भी नहीं है जो खो जाये
व्यर्थ ही घेराबंदी करता,
इधर-उधर का ज्ञान अधूरा
मोहर लगा चकबंदी करता ! 

इक दिन तो थक कर बैठेगा
निज के ताने बाने खोले,
खुलवायेगा अपने घर के
डरते-डरते भेद अबोले ! 

फिर खाली हो मुस्काएगा
विश्रांति की फसल उगाने,
भर-भर कर झोली उमंग से
गायेगा फिर गीत, तराने !

गुरुवार, नवंबर 10

मन दीवाना


मन दीवाना

कोई नजर नहीं आता जब
जाने किससे बतियाता है,
मन को दीवाना कहने का
पूरा-पूरा हक है हमको !

कोई दुःख देने वाला जब
दूर-दूर तक नजर न आये,
केले के पत्ते सा कांपे
जाने क्या खलिश है इसको !

दुनिया अपनी राह चल रही
रोती हो या हंसती खुद पर,
मन जाने किस भोले पन में
जाने इसका कारण खुद को !

वार्तालाप चला करता है
निशदिन जाने किसके साथ,
भूत, भविष्य माया दोनों
दे डाला है खुद को किसको !

मंगलवार, नवंबर 8

रेशम के फाहों सी नर्म नर्म धूप


रेशम के फाहों सी नर्म नर्म धूप

(१)

पूरब झरोखे से झांक रही
धूप की गिलहरी
 उतरी बिछौने पर
जाने कब बरामदे से
उड़न छू हो गयी...
धूप वह सुनहरी !

सर्दियों की शहजादी
भा गयी हर दिल को
पकड़ में न आये
चाहे लाख हम मनाएं
देर से जगती है
धूप सुकुमारी !

(२)
तन मन को दे तपन
अंतर सहला गयी
महकाती धूप
कलियाँ जो सोयीं थीं
कोहरे की चादर में
लिपटीं जो खोयीं थीं
जाने किन स्वप्नों में
जागीं, जब छू गयी
गुनगुनी सी धूप !

मोती जो अम्बर से
छलके थे ओस बन
चमचम खिल गा उठे
मौन गीत झूम
सँग ले उड़ा गयी
अलसाई धूप
नन्हें से गालों पर
फूल दो खिला गयी
मनभाई धूप !