नन्हा रजकण सृष्टि समेटे
बाशिंदा जो जिस दुनिया का
गीत वहीं के ही गायेगा,
अम्बर में उड़ने वाला खग
गह्वर में क्या रह पायेगा !
उस अनंत स्रष्टा का वैभव
देख-देख झुक जाता अंतर,
जाने कितने रूप धरे हैं
तृप्त नहीं होता रच-रच कर !
स्वयं तो शांत सदा एकरस
कोटि-कोटि ब्रह्मांड रचाए,
भीतर भर दी चाह अनोखी
देख-देख भी उर न अघाये !
रंगों की ऐसी बरसातें
खुशबू के फव्वारे छोड़े,
रसमय उस प्रियतम ने देखो
छेड़ दिये हैं राग व तोड़े !
कुछ भी यहाँ व्यर्थ न दीखे
नन्हा रजकण सृष्टि समेटे,
तृण का इक लघु पादप देखो
सुख अपनी गरिमा में लपेटे !