मंगलवार, अगस्त 31

जीवन का स्रोत

जीवन का स्रोत


हज़ार-हज़ार रूपों में वही तो मिलता है 

हमें प्रतिभिज्ञा भर करनी है 

फिर उर को मंदिर बना  

उसकी प्रतिष्ठा कर लेनी है 

यूँ तो हर प्राणी का वही आधार है 

किंतु अनजाना ही रह जाता 

बस चलता जीवन व्यापार है 

जाग कर आँख भर उसे देख लेना है 

जन्मों की तलाश को मंज़िल मिले 

इतना तो जतन करना है 

वह आकाश की तरह फैला है 

कण-कण में छिपा 

पर पारद की तरह फिसल जाता है 

कभी दो पलों में एक साथ नहीं मिला 

अब उसे मना लेना है 

जीवन का स्रोत है वह 

उसी जगह जाकर उसे पा लेना है 

जहाँ मौन है निस्तब्धता है 

जो मन के पार मिलता है 

उसके आने से ही 

सुप्त हृदय कमल खिलता है !




रविवार, अगस्त 29

अद्भुत बड़ी कृष्ण की लीला


अद्भुत बड़ी कृष्ण की लीला

मथुरा रोयी होगी उस दिन 

कान्हा चले जब यमुना पार,

जिस धरती पर हुए अवतरित

 दे नहीं पायी उन्हें दुलार !


अभी तपस्या की बेला है 

बारह वर्षों की प्रतीक्षा,

लौट करेंगे कृष्ण किशोर

कंस के कृत्य की समीक्षा !


अभी तो गोकुल जाते कान्ह 

नन्द, यशोदा को हर्षाने,

ग्वालों, गैयों, साथ खेलने

संग गोपियों रास रचाने !


माखन चोरी, मटकी फोड़ी

असुर-वध किये  नित नव लीला,

मनहर नृत्य, बाँसुरी वादन

ब्रज वासी कान्हा रंगीला !


पलक झपकते बीता बचपन

 मथुरा जाने का दिन आया,

तड़पा हर ब्रज वासी का उर

नन्द यशोदा को तड़पाया !


राधा की आँखें बरसीं थीं 

विरहा की पीड़ा थी भारी,

अद्भुत बड़ी कृष्ण की लीला,

 अब तक सारी दुनिया वारी !




गुरुवार, अगस्त 26

दूर और पास

 दूर और पास 

दूर से सूरज की आभा में 

 नीला पर्वत लग रहा था मोहक 

और उसके नीचे फैला हरा

मैदान बुला रहा था 

पर तपती दोपहरी में 

चला नहीं जाता पर्वत पर 

और मैदान के कंटक पैरों में चुभते थे 

थोड़ी सी दूरी तो चाहिए न 

आकर्षण बनाये रखने के लिए 

नील नभ पर बादल भले लगते हैं 

पर फट कर आंगन में गिर जाएँ तो दुःख देते हैं 

बच्चा नहीं जानता वह माँ के निकट है 

अलिप्त है सो सुंदर है उनके मध्य बहता प्रेम 

ज्यादा निकटता

कुरूपता को जन्म दे सकती है 

मान लेना ही काफी है 

 ‘वह’ सदा हमारे साथ है 

शायद उससे दूरी ही 

उसके प्रति प्रेम को बनाये रखती है ! 


मंगलवार, अगस्त 24

थिर शांत झील में

थिर शांत झील में 


दूर कहीं जाना नहीं 

निज गाँव आना है 

संसृति को निहारा 

ध्यान अब जगाना है 

खुद को बचाया सदा 

जीवन के खेल में 

भेद सभी खुल गये  

खुद को मिटाना है 

भोर सदा से जहाँ 

मधू ऋतु खिली रहे 

भावों के लोक से 

गुजर वहाँ जाना है 

भ्रम की दीवार गिरे 

पुनः आर-पार दिखे 

सधे होश कदम उठे 

राग मिलन गाना है 

युगों युग बीत गए 

चक्रव्यूह में घिरे 

तोड़ हर राग-द्वेष 

पाना ठिकाना है 

रहा सदा से वहीँ 

सूत भर हिला नहीं 

थिर शांत झील में 

चाँद को समाना है 

दूर नहीं जाना कहीं

निज गाँव आना है 


 

शनिवार, अगस्त 21

रक्षा बंधन पर हार्दिक शुभकामनाएँ



राखी के कोमल धागों में 


दीर्घ शृंखला में पर्वों की 

उत्सव एक अति है पावन, 

राखी कह कर कोई पुकारे 

कोई कहता रक्षा बंधन !


श्रावण की जब पड़ें फुहारें 

भीगा-भीगा सा हो कण-कण, 

कोमल भाव जगाता उत्सव 

याद दिलाता स्वर्णिम बचपन !


लघु कलाई में सजती थी 

रंग-बिरंगी राखी सुंदर,

बहनों का दिल खिल जाता था 

भाई को मिष्ठान खिलाकर !


एक मधुर प्रेम की धारा 

बहे निरंतर कभी न टूटे, 

रेशम के धागे हों कच्चे

किंतु अटल है प्रीत न छूटे !


कुशल कामना श्वास-श्वास में 

भाई के हित बहनें माँगे, 

रक्षा का जो वचन दिया है 

हर क़ीमत पर भाई निबाहें !


राखी के कोमल धागों में 

छिपी हुईं कितनी गाथाएँ, 

चिरकाल से पर्व अनूठा 

मानवता का पाठ पढ़ाए !







गुरुवार, अगस्त 19

इक अकुलाहट प्राणों में

इक अकुलाहट प्राणों में

 

इक दुःख की चाहत की है

जो मन को बेसुध कर दे,

कुछ कहने, कुछ ना कहने

दोनों का अंतर भर दे !

 

इक पीड़ा माँगी उर ने

जो भीतर तक छा जाये,

फिर वह सब जो आतुर है ​

आने को बाहर आये !

 

इक बेचैनी सी हर पल

मन में सुगबुग करती हो,

इस रीते अंतर्मन का

कुछ खालीपन भरती हो !

 

इक अकुलाहट प्राणों में

इक प्यास हृदय में जागे,

सीधे सपाट मरुथल में

चंचल हरिणी सी भागे 

 

शनिवार, अगस्त 14

तू अरूप है भारत माता


तू अरूप है भारत माता



पुण्य भूमि, हे भारत माता  

हर वासी मुस्काता, गाता,

आज़ादी का जश्न मनाने 

लो एक हुजूम चला आता !


तेरे ही आंगन में हे माँ

गूँजी थी ऋषियों की वाणी,

तेरे सपूत थे महा वीर

कर्मठ, उत्साही औ दानी !


फिर समय की ऐसी पड़ी मार

वे सुख मदिरा में मत्त हुए,

तेरे सम्मान को रख गिरवी

गैरों से बंधे, परास्त हुए !


लेकिन चिंगारी भीतर थी

क्रांति का बिगुल बजाया था,

सुलगी पहले फिर भड़की थी

स्वराज्य का स्वप्न दिखाया था !


जाने कितनों का रक्त बहा

कितनी माँओं का दिल रोया,

कितने कवियों ने गीत लिखे

जेलों में गए, चैन खोया !


बापू, नेहरू, सुभाष, तिलक

आजाद, भगत, ऊधम भी लड़े,

करवट ली देश की जनता ने

बन सेनानी जांबाज बड़े !


लहराया था परचम प्यारा

छूने फिर नीले अम्बर को,

तीनों रंगों में सजा चक्र

प्रेरित करता जो बढ़ने को !


फिर जनगणमन था गूँज उठा

थे कोटि-कोटि जन हर्षाये  ,

आज उसी की याद लिए उर 

हम भारतवासी हैं आए !


तेरे चिरकाल ऋणी हैं हम

ओ ममतामयी, कल्याणी माँ,

तेरे सुंदर नव रूपों पर

हम जाते हैं बलिहारी माँ !


तू अरूप है भारत माता

रूप झलकता है जन-जन में,

तू ही लहराती फसलों में

तू ही मुस्काती हर मन में !


भारत का हर जन तेरा ही

तुझसे ही उसका हर नाता,

तेरे कारण हम एक हुए

तेरा आँचल हमको भाता !


हर प्रान्त तेरा खिल-खिल जाये

शहर-शहर, गाँव मुस्काए,

तेरी गलियों में मस्ती हो

बाजारों में रौनक छाये !


द्वार-द्वार पर सजे रंगोली

हर छत पर ध्वजा लहराए,

हर बच्चे में जोश भरा हो

हर दिल झूम तराने गाए !




सोमवार, अगस्त 9

वही जानता एक हुआ जो

खो जाए जिसके दर पे, ‘मैं’ का यह सिलसिला ​​

उसके यहाँ ही जाकर, सिर को झुकाना होगा 


फ़िक्रों को छोड़ देना, रस्ते में जाते-जाते 

हर सुख वहीं मिलेगा, जहाँ नाम उसका होगा 


वही जानता एक हुआ जो 

सुख को चुन लेते फूलों सा 

दुःख के काँटे नहीं माँगते, 

मधुर याद से दामन भर लें 

हर कटुता को रहे भुलाते !


मन की ऐसी ही माया है 

अनुयायी है राग-द्वेष का,

भला-बुरा औ' प्रेम घृणा में 

बाँटा जग को पूर्ण न देखा !


दो में बाँटा जिस पल हमने 

भ्रम बढ़ता जाता जीवन में, 

पार हुआ जो देखे इसको 

वही टिका रहता है सच में !


रात छोड़कर दिन को पकड़े 

ऐसा कहाँ हुआ है संभव, 

मिले लक्ष्मी नारायण तजे  

शिव बिना मिले शक्ति असंभव !


डूबे दो में, पार हुए जब 

एक में अंतर को विश्राम, 

वही जानता एक हुआ जो 

टुकड़ों में नहीं मिलते राम !

 

शुक्रवार, अगस्त 6

मौन समर्पण



मौन 


प्रकाश कहा नहीं जाता 

अंधकार की कहे कौन ?

असीम शब्दों में नहीं समाता 

अच्छा है रहें मौन 

 मुखर जब मौन होगा 

सुवास बन खुद बहेगा 

चकित हुआ मन जहाँ 

मधु रस में पगेगा 



समर्पण 


हो समर्पित उर उन्हीं चरणों पे ऐसे 

धूलि जिनकी करे पावन 

बन सके फिर मन यह दर्पण 

 झलक जाए जग यह सारा 

पर छू न पाए एक कण भी 

तैरता इक जल के ऊपर 

हो अछूता कमल जैसे 

हो समर्पित उर किन्हीं कदमों में ऐसे 

मार्ग पाए चल पड़े फिर 

भूलकर सारी व्यथाएँ 

एक ही पथ चुन ले राही 

 कदम फिर उस पर बढ़ा दे  

इक तने पर खड़ा है वट 

अनगिनत शाखाएँ धारे 


रविवार, अगस्त 1

टूटी अंतर की हर कारा

टूटी अंतर की हर कारा 

जिस क्षण तजा प्रमाद मनस ने 
एक उमंग सहज भर जाती, 
कुछ पाने की मिटी चाह जब 
हर दुविधा भी संग मर जाती !

लोभ-लाभ की भाषा भूली 
प्रतिद्वंद, स्पर्धा भी छूटे, 
चित्त उदार बनेगा, उस क्षण 
आनंद घट हृदय में फूटे !

कंपित था भयभीत हुआ मन 
खो जाए ना प्रेम किसी क्षण, 
अभय मिला बाँटा भी सबको 
शुभ  का निर्झर फूटा उर में !

भय की इक चट्टान पड़ी थी 
रोक रही थी प्रेमिल धारा, 
 राह उसी की चला दो कदम 
टूटी अंतर की हर कारा !

दुःख के बादल सदा घिरे थे 
सुख का सूरज कब दिखता था, 
जब से झुका हृदय चरणों पर 
मिटा विषाद अमोद बहा था !