जीवन का स्रोत
हज़ार-हज़ार रूपों में वही तो मिलता है
हमें प्रतिभिज्ञा भर करनी है
फिर उर को मंदिर बना
उसकी प्रतिष्ठा कर लेनी है
यूँ तो हर प्राणी का वही आधार है
किंतु अनजाना ही रह जाता
बस चलता जीवन व्यापार है
जाग कर आँख भर उसे देख लेना है
जन्मों की तलाश को मंज़िल मिले
इतना तो जतन करना है
वह आकाश की तरह फैला है
कण-कण में छिपा
पर पारद की तरह फिसल जाता है
कभी दो पलों में एक साथ नहीं मिला
अब उसे मना लेना है
जीवन का स्रोत है वह
उसी जगह जाकर उसे पा लेना है
जहाँ मौन है निस्तब्धता है
जो मन के पार मिलता है
उसके आने से ही
सुप्त हृदय कमल खिलता है !