गुरुवार, सितंबर 30

वही

वही 


एक अनंत विश्वास 

छा  जाता है जब 

जो सदा से वहीं था 

सचेत हो जाता है मन उसके प्रति 

तो चुप लगा लेता है स्वतः ही 

वह अखंड मौन ही समेटे हुए है अनादि काल से 

हर ध्वनि हर शब्द को 

सारे सवाल और हर जवाब भी वहीं है 

उसमें डूबा जा सकता है 

मगन हुआ जा सकता भी 

पर कहने में नहीं आता 

वह कभी स्वयं को नहीं जताता 

क्योंकि वहाँ दूजा कोई नहीं है 

प्रेम की उस गली में 

केवल एक वही रहता है 

जिससे यह सारा अस्तित्त्व 

बूँद बूँद बन कर बहता है !




सोमवार, सितंबर 27

अस्तित्त्व और चेतना

अस्तित्त्व और चेतना 

ज्यों हंस के श्वेत पंखों में 

बसी है धवलता 

हरे-भरे जंगल में रची-बसी हरीतिमा 

जैसे चाँद से पृथक नहीं ज्योत्स्ना 

और सूरज से उसकी गरिमा 

वैसे ही अस्तित्त्व से पृथक नहीं है चेतना 

अग्नि में ताप और प्रकाश की नाईं

शक्ति शिव में समाई 

ज्यों दृष्टि नयनों में बसती है 

मनन मन में 

आकाश से नीलिमा को कैसे पृथक करेंगे 

हिरन से उसकी चपलता 

वैसे ही जगत में है उसकी सत्ता 

लहरें जल से  हैं बनती 

जल क्या नहीं उसकी कृति !


बुधवार, सितंबर 22

गीता

गीता 


सत् के आधार पर ही 

असत् की नौका डोलती है 

कभी दिखती 

कभी हो जाती ओझल 

खुद अपना भेद खोलती है 

विशालकाय तारे भी 

टूटा करते 

जन्मे थे जो एक दिन 

इसी अंतरिक्ष में 

जो अजन्मा है 

गीता बात उसी की बोलती है 

स्वप्न की तरह मिट जाएगा

 यह जीवन किसी पल 

है चिन्मय जो आधार 

आँख उसके प्रति खोलती है 

डर-डर कर व्यर्थ ही जीता है मन 

अभय की सुवास 

सहज ही घोलती है !


रविवार, सितंबर 19

​​​​​​एक हँसी भीतर सोयी है

​​​​​​एक हँसी भीतर सोयी है 


रुनझुन-झुन धुन जहाँ गूंजती

एक मौन भीतर बसता है,

मधुरिम मदिर ज्योत्सना छायी

नित पूनम निशिकर  हँसता है !


निर्झर कोई सदा बह रहा 

एक हँसी भीतर सोयी है, 

अंतर्मन की गहराई में 

मुखर इक चेतना सोयी है !


जैसे कोई पता खो गया 

एक याद जो भूला है मन, 

भटक रहा है जाने कब से 

सुख-दुःख में ही झूला है तन !


ज्यों इक अणु की गहराई में 

छिपी ऊर्जा  है अनंत इक, 

एक हृदय की गहराई में 

छिपा हुआ है ​​​​कोई रहबर !



गुरुवार, सितंबर 16

चाह और प्रेम


चाह 


हर चाह नश्वर की होती है 

शाश्वत को नहीं चाहा जा सकता  

वह आधार है चाहने वाले का 

हर याचक आकाश से उपजा है 

और पृथ्वी की याचना करता है 

पृथ्वियां बनती-बिगड़ती हैं 

आकाश सदा एक सा है 

याचक नहीं जानता खुद का स्रोत 

वह अंधकार में टटोलता है 

प्रकाश का नहीं उसे बोध 

पृथ्वी घूम रही है 

इसका भी नहीं प्रबोध ! ​​


प्रेम 


प्रेम की डोर 

जो हमें बांधती है 

एक दूजे से 

टूटने न पाए 

यही आधार है 

प्रेम पंख देता है 

उड़ने को तो सारा आकाश है 

विश्वास की आंच में 

इसे पकना होता है 

और समर्पण की छाँव में 

पलना होता है 

प्रेम की डोर बांधे रहे परिवार 

समाज और राष्ट्रों को 

तभी जीवन का फूल महकता है !

मंगलवार, सितंबर 14

हिंदी दिवस पर शुभकामनाएँ

हिंदी दिवस पर शुभकामनाएँ


सदियों से चले आ रहे 

अविरल विचार प्रवाह के साथ 

जोड़ती है हमें हमारी भाषा 

जिसे  जीवित रखना है 

तो समृद्ध बनाना होगा 

तकनीक से जोड़कर 

रोजगार लायक सिखाना होगा 

हिंदी दिवस पर जरा रुककर देखें 

मंज़िलें तय की हैं कितनी

  कितना सफ़र और तय करना है इसे 

समय-समय  पर बदला है 

हिंदी का स्वरूप भी

अपभ्रंश से प्रकटी

अमीर खुसरो से भारतेंदु हरिश्चंद्र तक 

हिंदी की गंगा बहती रही है 

अवधी और ब्रज से होती 

खड़ी बोली के रूप में विकसित होती आज 

हिंगलिश के जाल में फंसती जा रही है 

शुद्ध भाषा का स्वरूप 

अब सिर्फ किताबों में मिलता है 

सबकी जबान पर एक खिचड़ी भाषा 

चढ़ती जा रही है  !

सोमवार, सितंबर 13

हिंदी दिवस

हिंदी दिवस 


हिंदी दिवस पर अंग्रेजी में ट्वीट करते लोग

 हिंदी प्रेम होने का दम भरते हैं 

हिंदी के एक वाक्य में 

बस दो-चार अंग्रेजी के शब्द मिलाते 

मॉर्निंग में वाक और इवनिंग को योगा करते हैं 

आँख, नाक, कान से पहले 

जान जाता है शिशु आइज, नोजी और इयर

नौनिहालों को अंग्रेजी में झगड़ते देख 

भीतर तक निहाल होते हैं 

दीवाली और होली तो हैप्पी थी ही 

अब कहीं हिंदी दिवस भी 

हैप्पी बोल देने तक ही सीमित न हो जाये 

अंग्रेजी का जो जादू सर पर चढ़ा है 

नई पीढ़ी को अपनी जड़ों से दूर न ले जाये 

हिंदी फल-फूल रही है अपने बूते पर 

सर्व को ग्रहण करती है 

शुद्ध रहे, हमें रखना है ध्यान 

दिल बहुत विशाल है उसका 

कैसा भी रूप धरे वह हिंदी 

ही कही जाती है !




रविवार, सितंबर 12

फिर सुनहली भोर आयी


फिर सुनहली भोर आयी


पंछियों  के स्वर अनोखे 

बोल जाने भरे कैसे, 

क्या सुनाते गा रहे हैं 

भोर होते गूंजते से !


तोड़ते निस्तब्धता जो 

यामिनी भर रही छायी,  

दे रहे संदेश मानो 

फिर सुनहली भोर आयी !


कूक कोकिल की सुरीली 

चेतना में प्राण भरती, 

उल्लसित उर सहज होता 

रात का ज्यों अलस हरती !


कंठ में सुर कौन भरता

वाग्देवी ! वाग्देवी ! 

कह रहे हर बोल में वे 

कर रहे ज्यों वंदना ही ! 


शुक्रवार, सितंबर 10

गणपति का पूजन करते हैं

गणपति का पूजन करते हैं


मूल आधार में स्थित रहते 

हैं शुभता का प्रतीक गणेश, 

प्रिय अबोध बालक देवी के 

चैतन्य परम प्रसाद गणेश !


विघ्नों की बाधा हरते हैं 

मानवता को राह दिखाते, 

पवित्रता असीम फैलाएँ 

पुण्य शक्ति की रक्षा करते !


अंतर सहज समृद्ध बनाते 

गणपति का पूजन करते हैं, 

मानवों की बुद्धि सीमित है 

गज का वह मस्तक धरते हैं !


भीतर जब शुचिता छायी हो 

माँ की तभी कृपा बरसेगी, 

नित्य साधना गणपति की जब 

शुभ शक्ति तभी जागृत होगी !


मेधा को पावन करते हैं 

सत् असत् का रहस्य बताते, 

दृष्टि हो पावन चित्त भी स्थिर 

नीर-क्षीर मनीषा जगाते !


गुरुवार, सितंबर 9

गाकर कोई गीत मुक्ति का


 गाकर कोई गीत मुक्ति का 


मन नि:शंक हो, ठहरे जल सा 

जब इक दर्पण बन जाए,

झांके कहीं से आ कोई

निज प्रतिबिम्ब दिखा जाए !


मन उदार हो, जलते रवि सा 

जब इक दाता बन जाए, 

 हर ले सारी उलझन कोई

निज मुदिता से भर जाए !


मन बहता हो,निर्मल जल सा 

जब इक निर्झर बन जाए, 

 आकर कोई सारे जग की 

शीतलता फिर भर जाए !


मन विशाल हो, छाया हर सूँ 

विमल गगन सा बन जाए, 

 गाकर कोई गीत मुक्ति का 

हर बंधन को हर जाए !




मंगलवार, सितंबर 7

प्रेम उस के घर से आया

प्रेम उस के घर से आया 


बन उजाला, चाँदनी भी 

इस धरा की और धाया


वृक्ष हँसते कुसुम बरसा

कभी देते सघन छाया 


नीर बन बरसे गगन से  

लहर में गति बन समाया


तृषित उर की प्यास बुझती 

सरस जीवन लहलहाया 


खिलखिलाती नदी बहती 

प्रेम उसकी खबर लाया 


मीत बनते प्रीत सजती 

गोद में शिशु मुस्कुराया 



 

शनिवार, सितंबर 4

नींद

नींद 


हर रात हम अपने घर जाते हैं 

अनजाने ही 

और भोर में पोषित होकर लौटते हैं 

जाहिर है घर पर कोई है 

यदि रात सो न सका कोई

तो वह घर का पता ही भूल गया है 

या भटक गया है आधी रात को 

अथवा घर से दूर निकल गया है 

जाना चाहता है 

पर कोई वाहन नहीं मिलता 

भय और थकान भी उसे घेर लेते हैं 

नींद न आने पर अगले दिन 

लोग कैसे खोये-खोये से रहते हैं !


गुरुवार, सितंबर 2

देह दीप में तेल हृदय यह


देह दीप में तेल हृदय यह


ज्योति पुष्प उर के उपवन में 

खिला सदा है उसे निहारें,

सुख का सागर भीतर बहता 

सदा रहा है उसे पुकारें !


नयनों में उसी का उजाला 

अंतर में विश्वास बना है, 

वही चलाता दिल की धड़कन 

रग-रग में उल्लास घना है !


ज्योति वह दामिनी बन चमके 

सूर्य चंद्रमा में भी दमके, 

उसी ज्योति से पादप,पशु हैं 

वही ज्योति हर जड़ चेतन में !


देह दीप में तेल हृदय यह 

ज्योति समान आत्मा ही है, 

माटी का हो या सोने का 

दीपक आख़िर दीपक ही है !


ऐसे ही हैं तेल जगत में 

कुछ सुवास से भरे हुए मन, 

कई आँखों में धुआँ भरते 

किंतु ज्योति न होती कभी कम !