रविवार, अप्रैल 20

घर इक मंज़िल

घर इक मंज़िल 

 इन वक्तों का यही तक़ाज़ा

 रहे ह्रदय का ख़्वाब अधूरा, 


बनी रहे मिलने की ख्वाहिश 

जज़्बा क़ायम कुछ पाने का !


है स्वयं पूर्ण, जगत अधूरा

मिथ्या स्वप्न, सत्य है पूरा, 

 

 क्षितिज कभी हाथों ना आता

चलता राही थक सो जाता !


 फूलों के दर्शन हो सकते

मंज़िल कहाँ मिलेगी मग में, 


लौट जरा अपने घर आना 

वहीं मिलेगा सरस ठिकाना !


5 टिप्‍पणियां:

  1. सबकुछ छिपा अपने भीतर फिर भी भटकता है , नजर बाहरी दुनिया को सच मानती है इसलिए छल प्रपंच कलुष क्रोध लोभ मोह के अज्ञान अंधेरे को ही सच मानकर जीवन का मधुरतम खो बैठती है और जो सुंदर है जो अंतस में विराजित परम चैतन्य मधुरता की पाग है उसे देख ही नहीं पाती । जब अंतस में जाकर देखेंगे तभी दुनिया को पहली बार सही मायनों में देख पायेंगे । उसका साक्षात्कार कर उससे दिल का संवाद कर पायेंगे वहीं सुकून भी मिलेगा ।

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    1. कितने सुंदर शब्दों में आपने कविता के मर्म को व्यक्त किया है, स्वागत व आभार प्रियंका जी !

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  2. बहुत बहुत आभार रवींद्र जी !

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