केंद्र और परिधि
परिधि पर ही खड़ा हो कोई
तो याद केंद्र की
भूले-भटके ही आती है
मिल जाये जीवन का केंद्र
तो परिधि फैलती चली जाती है !
परिधि से केंद्र पर जाना
ऐसा ही है
जैसे सतह से तल तक जाना
सागर से कुछ मोती-माणिक
पा लेना
टूटे शंख व सीपियाँ ही
मिलती हैं सतह पर !
केंद्र पर पहुँचा हुआ
लौट नहीं सकता
उसी परिधि पर
जहाँ से चला था
वह अनंत हो जाती है
भीतर-बाहर हर सीमा
खो जाती है !
बहुत सुन्दर सृजन । सादर नमस्कार अनीता जी !
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार मीना जी !
हटाएंसत्यं शिवं सुंदरं
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार प्रियंका जी
हटाएंसत्य एवं सुन्दर अभिव्यक्ति
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार शालिनी जी !
हटाएं