मंगलवार, अप्रैल 22

वेद ऋषि

वेद ऋषि 

वे जो भावों की नदियाँ बहाते हैं 

वे जो शब्दों की फसलें उगाते हैं 

बाड़ लगाते हैं विचारों की 

उन्हें कुछ मिला है 

शायद किसी बीज मंत्र सा 

जिसे बोकर वे बाँटना चाहते हैं 

कुछ पाया है जिसे लुटाना है 

माना कि वे बीजों के जानकार नहीं 

पर आनन्दग्राही हैं 

प्रेम को चखा है 

और रस से भरा है 

लबालब उनका अंतर 

वे अनायास ही आ गये  हैं 

उस घेरे में 

जहाँ मौन प्रखर हो जाता है 

और वहीं कोई कान्हा 

बंसी बजाता है !


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