चलो घर चलते हैं
बहुत देख लिए दुनिया के रंग ढंग
छूट ही जाता है यहाँ हर संग
चलो घर चलते हैं...
बज रहे हैं जहां ढोल और मृदंग !
कभी शहनाई का स्वर गूंज उठता है
जहां रोशनियों का एक हुजूम उठता है
फिर से आएंगे पाकर नई दृष्टि
नजर आयेगी नई सी यह सृष्टि !
अभी तो सब जगह गोलमाल ही नजर आता है
साहब से ज्यादा चपरासी दमखम दिखाता है
चमचा नेता से ज्यादा उड़ाता है
अपनी ही सम्पत्ति को जलाते हैं नक्सलवादी
चाहते हैं गरीबी की गुलामी से आजादी
नई पीढ़ी कैसी है कुम्हलाई
दिन रात कृत्रिम प्रकाश में आज के बच्चे पलते हैं
चलो घर चलते हैं
थका हुआ आदमी और कर भी क्या सकता है
उतारता है क्रोध कभी सरकार पर कभी मौसम पर
जले हैं दिये पर नजर को छलते हैं
चलो घर चलते हैं....