थम जाता सुन मधुर रागिनी
कोमल उर की कोंपल
भीतर
खिलने को आतुर है
प्रतिपल,
जब तक खुद को
नहीं लुटाया
दूर नजर आती है
मंजिल !
मनवा पल-पल इत-उत
डोले
ठहरा आहट पाकर
जिसकी,
जैसे हिरण
कुलाँचे भरता
थम जाता सुन मधुर
रागिनी !
जिसके आते ही उर
प्रांगण
देव वाटिका सा
खिल जाता,
हौले-हौले कदम
धरे जब
मन नव कुंदन बन
मुस्काता !
स्वयं ही दूर-दूर
रहे हम
दुःख छाया में
जन्मों बीते,
सुख बदली बन वह
आता है
एक पुकार उठे
अन्तर से !
रह ना पाए अनुपम
प्रेमिल
पावन है वह करता
पावन,
अर्पित मन को
करना होगा
युग-युग से हो
रहा अपावन !
आह्लादित है
सृष्टि प्रतिपल
खिला हुआ वह नील
कमल सा,
धरे धरा बन छाँव
गगन की
पंछी सा नव सुर
में गाता !
कोई उसका हाथ थाम
ले
बरबस कदमों में
झुक जाये,
दूरी नहीं भेद नहीं शेष
तृप्त हुआ सा
डोले गाये !