तंतु प्रेम का
कितना भी हो
पीढ़ियों का अंतर
उन्हें प्रेम का तंतु जोड़े रहता है
क्या कहें, कितना कहें
यह ज्ञान नहीं होता
जब अहंकार के तल से बोलता है मन
वहाँ आत्मा को मुखर होना पड़ता है
कभी-कभी शस्त्र उठाने पड़ते हैं अर्जुन को
और कृष्ण को सारथी बनाना पड़ता है !
सही को सही, ग़लत को ग़लत
कहने का साहस यदि भीतर नहीं है
तो जीवन के मर्म तक नहीं पहुँच सकते
यदि अपने भीतर झाँक कर
खुद को नहीं बदल पाए कोई
नहीं मिल सकता उस आनंद से
जो सबका प्राप्य है
और बन सकता सहज ही भाग्य है
जीवन नाम है परिवर्तन का
पल-पल संवरने और मन के जागरण का
उस प्रकाश में नज़र आता है
प्रेम का तंतु
जो वैसे छुपा रहता है !