शनिवार, अक्तूबर 29

तंतु प्रेम का

तंतु प्रेम का 


कितना भी हो 

पीढ़ियों का अंतर 

उन्हें प्रेम का तंतु जोड़े रहता है 

क्या कहें, कितना कहें 

यह ज्ञान नहीं होता 

जब अहंकार के तल से बोलता है मन 

वहाँ आत्मा को मुखर होना पड़ता है 

कभी-कभी शस्त्र उठाने पड़ते हैं अर्जुन को  

और कृष्ण को सारथी बनाना पड़ता है ! 

सही को सही,  ग़लत को ग़लत 

कहने का साहस यदि भीतर नहीं है 

तो जीवन के मर्म तक नहीं पहुँच सकते 

यदि अपने भीतर झाँक कर 

खुद को नहीं बदल पाए कोई 

 नहीं मिल सकता उस आनंद से

जो सबका प्राप्य है 

और बन सकता सहज ही भाग्य है 

जीवन नाम है परिवर्तन का 

पल-पल संवरने और मन के जागरण का 

उस प्रकाश  में नज़र आता है 

प्रेम का तंतु 

जो वैसे छुपा रहता है ! 




गुरुवार, अक्तूबर 27

प्रकट और अप्रकट

प्रकट और अप्रकट 


जगत 

बुना है 

प्रकट और अप्रकट 

  तन्तुओं से 

मन 

कुछ-कुछ ज़ाहिर होता है कर्मों से 

कुछ छिपा ही रहता है भीतर 

कितना छुपाना है 

कितना दिखाना 

शायद यह सीख लिया है 

सहज ही कुदरत से 

जड़ें छिपी रहती हैं 

भूमि में दूर तक अंधकार में 

और ऊपर फूल खिलाता है पेड़ 

मन की जड़ें भी फैली हैं 

रिश्तों, वस्तुओं, स्मृतियों में 

ना जाने कितने जन्मों की 

अनंत की छाँव में यह खेल चलता है 

यह धूप-छाँव का खेल ही जीवन है 

हर श्वास में उगता निःश्वास में ढलता है ! 


मंगलवार, अक्तूबर 25

दिवाली की अगली भोर

दिवाली की अगली भोर 


सूर्य ग्रहण लगने वाला है 

किंतु अभी है शेष  उजाला 

उन दीयों का 

जो बाले थे बीती रात 

जगमग हुईं थी राहें सारी 

गली-गली, हर कोना भू का 

चमक उठा था जिनकी प्रभा से 

ज्योति प्रेम की झलक रही थी 

आशा व विश्वास जगाती 

नयी भोर का 

भर लें मन में नीर कृपा का 

देवी माँ का उजला मुखड़ा

उठा वरद हस्त गणपति का 

कान्हा की मोहक मुस्कान 

हर आँगन में देव उतरते

सँग मानव के क्रीड़ा करते 

विमल प्रेम, उल्लास धरा पर 

युग-युग से लाते 

वे ही चमक हैं भारत माँ की 

देवों के सँग बातें दिल की 

गुरू ज्ञान भी 

अंधकार हर रहे मिटाता 

एक वर्ष फिर करें प्रतीक्षा 

युग-युग से यह पर्व अनोखा 

भर उमंग नव राह दिखाता !




सोमवार, अक्तूबर 24

आलोकित होगा जीवन पथ

आलोकित होगा जीवन पथ


तन माटी का इक घट जिसमें 

मन कल-कल जल सा नित बहता,

 परितप्त हुआ फिर  शीतल सा  

बन वाष्प  उड़ा  नभ में जाता !

 

या तन माटी का घट जिसमें 

उर बसा नवनीत सा कोमल, 

जिसे चुरा ले जाता नटखट 

गोकुल वाला कान्हा  श्यामल !


बना  सोम, वरुण, देव पावक

वही अनोखे खेल रचाता, 

तोड़ बंध जो आये बाहर 

निज हाथ थमाए ले जाता !


यदि तन माटी-दीप बना लें  

प्रेम स्नेह से बरबस निखरे ,  

गति जिसकी ऊपर ही ऊपर 

प्रखर आत्मज्योति जल बिखरे !


ताप हरेगा हर विकार तब 

आलोकित होगा जीवन पथ, 

ज्योति परम से सहज जुड़ेगी 

दीवाली का यही शुभ अर्थ ! 



शुक्रवार, अक्तूबर 21

दीपावली

दीपावली 


दिव्य प्रकाश, उजास, बिखेरे 

दीपावली तमस हर लेती,  

द्युति, आलोक, ज्योति, उजियारा

हर कोना जगमग कर देती !


माटी के दीपों का वैभव 

अंतर बाहर करे प्रकाशित,

 दीप्ति झर रही तिमिर तिरोहित 

लख हर नयन हुआ आनंदित !


दीप शिखा संकल्प जगाए 

जीवन पथ आलोकित करती, 

दैदीप्यमान स्वतः प्रज्जवलित

आत्मदीप में आभा भरती  !


बुधवार, अक्तूबर 19

सत्य

सत्य 


सत्य अमोघ है 

आग है 

शीतल जलाभिषेक है 

इससे कोई बच नहीं  सकता 

सत्य हुए बिना कोई चैन से जी नहीं सकता 

इसका एक कण झूठ के हजार पर्वतों से ज्यादा बलशाली है 

सत्य पीछा नहीं छोड़ता 

जब तक आप उस पर चलना आरम्भ न कर दें 

यह अंतर का उल्लास है 

वाणी की मिठास है 

और आपसी विश्वास है

सत्य प्रेम की गर्माहट है 

दिल के रिश्तों की नर्माहट है 

सत्य का दामन थाम लें तो वहीं ले जाता है 

हमें अपने आप से मिलाता है 

सत्य नारायण है 

अति पावन है 

अनंत युगों से उसका ही आराधन है 

वह शिव का नर्तन है 

स्नेह का वर्तन है 

आओ उसके पथ पर चलें 

पल पल उससे ही मिलें !!


मंगलवार, अक्तूबर 18

भाव सधे तो प्रेम खिलेगा



भाव सधे तो प्रेम खिलेगा 

जितना दौड़ो कम पड़ता है
यह जग अंधा एक कुआँ है,
कभी तृप्त  कब हो सकता यह
सदा अधूरा ही मिलता है !

दो पल थम कर खुद सँग हो ले
जिसने पाया, भीतर पाया,
नहीं छोड़ना कुछ भी बाहर
जिसको तृष्णा तजना आया !

कर-कर के भी जो ना मिलता
शांत हुए से सहज मिलेगा,
कुछ भी नहीं शांति के आगे
भाव सधे तो प्रेम खिलेगा !

जीवन का यही महा रहस्य
जिसने छोड़ा उसने पाया,
सहज रहा जो जैसा भी है
उसने साथ स्वयं का पाया !

मानव होने का आशय क्या
निज के भीतर खुद को पाना,
तोड़ के मन, बुद्धि के घेरे
आत्म शक्ति से प्रीत लगाना !

शनिवार, अक्तूबर 15

जीवन शतरंज बिछा

जीवन शतरंज बिछा


जो दर्द छुपा भीतर 

खुद हमने गढ़ा जिसको, 

नाजों से पाला है 

स्वयं बड़ा किया उसको !


हमने ही माँगा है 

ताकत यह हमारी है, 

यदि मुक्त हुआ चाहो 

मर्जी यह हमारी है !


हम ही कर्ता-धर्ता 

हमने यही भाग्य रचा, 

अनजाने में दिल पर 

दुःख वाली लिख दी ऋचा !


अब हम पर है निर्भर

नया दांव कहाँ खेलें, 

जीवन शतरंज बिछा

कैसे नयी चाल चलें !


सुख की यदि चाह हमें 

बोली तो लगाएँ अब,

क्या कीमत दे सकते

यह सर तो गवाएँ अब !


गुरुवार, अक्तूबर 13

अभय



अभय 


सूरज की एक किरण 

सागर की एक बून्द 

सारी पृथ्वी की धूल का एक कण 

अनंत ध्वनियों में एक स्वर 

हम वही हैं 

पर जब जुड़े हैं स्रोत से 

तो कोई भय नहीं !


मंगलवार, अक्तूबर 11

यज्ञ भीतर चल रहा है

यज्ञ भीतर चल रहा है



श्वास समिधा बन सँवरती

प्रीत जगती की सुलगती,

मोह कितना छल रहा था

सहज सुख अब पल रहा है !


मंत्र भी गूजें अहर्निश

ज्योति माला है समर्पित,

कामना ज्वर जल रहा था

अहम मिथ्या गल रहा है !


अनवरत यह यज्ञ चलता

प्राण दीपक नित्य जलता,

पास न कुछ हल रहा था

उम्र सूरज ढल रहा है !


खोजता था मन युगों से

छला गया स्वर्ण मृगों से,

व्यर्थ भीतर मल रहा था

परम सत्य पल रहा है !


चाह थी नीले गगन की

मृत्यू देखी हर सपन की,

स्नेह घृत भी डल रहा था

द्वैत अब तो खल रहा है !


रविवार, अक्तूबर 9

अभी शेष है जीना

अभी शेष है जीना


जीने की तैयारी में ही 

लग जाती है सारी ऊर्जा 

घर को सजाते-सँवारते 

थक जाते हैं प्राण 

 मन को सहेजते-सहेजते  

चुक जाती है शक्ति 

फिर कब जियेगा कोई 

और बिखेरेगा प्रेम 

 संगीत सुनेगा 

पंछियों और हवाओं का 

साज बैठाते-बैठाते ही 

शाम ढल जाती है 

अभी सुर सध ही नहीं पाता 

और थम जाती है रफ्तार 

हिसाब-किताब करते 

 रह जाता है पीछे हर बार इजहार !



 

मंगलवार, अक्तूबर 4

जितना खुद को बाँटा जग में

जितना खुद को बाँटा जग में 

 

जितना  ‘मैं’ ‘तुझमें’ रहता है 

उतने से ही मिल पाता है, 

खुद की ही तलाश में हर दिल 

 दूजों  के घर-घर जाता है !

 

जितना खुद को बाँटा जग में 

उतने पर ही होता हक़ है, 

बिन  बिखरे बदली कब बनती 

 इसमें नहीं मेघ  को शक है !

 

प्रियतम प्रेमी मिलने ख़ातिर  

रूप हज़ारों धर लेते हैं,  

खुद को मंदिरों में सजाया 

खुद ही सजदे कर लेते हैं !

 

कोई नहीं सिवाय उसी के 

जिससे तिल भर का नाता है, 

भेद कभी खुल जाए जिसका 

कुदरत  का कण-कण  भाता है !

 

सहज हुआ वह बंजारा फिर 

बस्ती-बस्ती गीत सुनाता , 

मुक्त हो रहो बहो पवन से 

सुख स्वप्नों के  गाँव बसाता !

रविवार, अक्तूबर 2

गाँधी जी के सपनों का भारत

गाँधी जी के सपनों का भारत 


जहाँ हर नागरिक को समानता का अधिकार मिलेगा   

मिट जायेगा अस्पृश्यता का नामोनिशान 

शिक्षा के वरदान से हर बच्चे का सामर्थ्य  खिलेगा

दिया जायेगा सत्य और अहिंसा के मूल्यों को पूरा सम्मान 

सम्प्रदाय  या जाति से नहीं

 भारतीय होने से होगी हरेक की पहचान 

विकास का फल सुदूर स्थानों तक जायेगा 

काश्मीर से कन्याकुमारी व उत्तरपूर्व से गुजरात तक 

देश अनेक रास्तों से जुड़ जाएगा 

निर्धनता और गुलामी से मिलेगी  मुक्ति 

खुशहाली और संपन्नता 

हर क्षेत्र में नजर आयेगी

हर गाँव सशक्त - स्वालंबी बने 

सही अर्थों में तब स्वराज आएगा 

मिले सहकारिता को बढ़ावा 

घर-घर में भरे हों अन्न भंडार 

माँ और शिशु को  समुचित पोषण 

हर विद्यालय  में विज्ञान का उजाला छाएगा 

भोग भूमि नहीं भारत कर्मभूमि बने सही अर्थों में 

जहाँ जीवन हो सादा,  उच्चता  विचारों में

जहाँ हिंसा नहीं प्रेम से सभी को अपना बनाया जाता हो 

योग साधना से आत्मशक्ति को जगाया जाता हो !