शनिवार, अक्तूबर 25

पंख लगें उर की सुगंध को

पंख लगें उर की सुगंध को



दिल में किसी शिखर को धरना
सरक-सरक कर बहुत जी लिए,
पंख लगें उर की सुगंध को
गरल बंध के बहुत पी लिए !

जाना है उस दूर डगर पर
जहाँ खिले हैं कमल हजारों,
पार खड़ा कोई लखता है
एक बार मन उसे पुकारो !

जहाँ गीत हैं वहीं छिपा वह
शब्द, नि:शब्द युग्म के भीतर,
भीतर रस सरिता न बहती
यदि छंद बद्ध न होता अंतर !

सागर सा वह मीन बनें हम
संग धार के बहते जाएँ,
झरने फूटें सुर के जिस पल
 झरे वही, लय में ले जाये !

रिक्त रहा है जो फूलों से
विटप नहीं वह बन कर रहना,
गंध सुलगती जो अंतर में
वह भी चाहे अविरत बहना !

निशदिन जो बंधन में व्याकुल
मुक्त उड़े वह नील गगन में,
प्रीत झरे जैसे झरते हैं
हरसिंगार प्रभात वृक्ष से  !




  

6 टिप्‍पणियां:

  1. ओंकार जी, सदा जी, दिगम्बर जी व आशीष जी आप सभी का स्वागत व आभार !

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  2. अतीन्द्रिय भाव की सुन्दर अभिव्यक्ति !

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