शनिवार, फ़रवरी 28

कोंपल कोंपल रस झरता


कोंपल कोंपल रस झरता

मदमस्त हुआ आलम सारा
आया वसंत नव कुसुम खिले ,
उमड़ी आती मधुमय सुरभि
पौधों के सोये कोष खुले !

खलिहानों पर छायी मस्ती
शुभ पीताम्बर ओढ़े हँसते,
जल धाराएँ बह निकलीं हैं
हटा शीत की चादर तन से !

तंद्र तज जागे वन प्रान्तर
जीवन से फिर हुआ मिलन,
छूट गया अवांछित था जो
जाग उठा कोई नव रंग !

जाना पहचाना सा प्रियतम
आया मनहर रूप धरे,
बासंती जब पवन बहे तो
सूने अंतर भये हरे !

जीवन फिर अंगड़ाई लेता
नव रूप लिये हँसता खिलता,
ऋतु फागुनी मादक मोहक
कोंपल कोंपल रस झरता !



शुक्रवार, फ़रवरी 27

मन कैसा मतवाला

मन कैसा मतवाला


छोटी सी गठरी को छाती से लगाया
कैसे हो बड़ी इस आस को जगाया
मांग को ही प्रेम समझा कुछ हाथ न आया
फूल तोड़ने चले, था बबूल उगाया

ईंट-पत्थर जोड़े थे भरम हीरों का पाला
गंवाने के डर से खुद को कैद में डाला
जो था न कहीं व्यर्थ ही उस भय को सम्भाला
बेसहारा से सहारा माँगा मन कैसा मतवाला

कुछ होने का जूनून बेहोश किये था
खुद का भी अभी जिसे होश नहीं था
उस मन के इशारों पर क्या-क्या नहीं सहा
फकत याद रही जिसकी वजूद न रहा 

गुरुवार, फ़रवरी 26

वह हँसी

वह हँसी


परमात्मा सबसे बड़ा विदूषक है
वह जिसे कहते हैं न हंसोड़ !
उसने पट्टी बाँध दी है आँखों पर
और छोड़ दिया है स्वयं को खोजने के काम में
कभी कोई खोल देता है आवरण
तो खिलखिला कर हँस देता है
व्यर्थ के जंजाल से उबर कर
 वही चैन की नींद सोता है

छ्न्न से फूट पडती है हँसी
जब स्वप्न से जग जाता है कोई रात आधी
हमीं थे जो खुद को दौड़ाए जा रहे थे
शेर बनकर खुद को खाए जा रहे थे
और दिन में जो स्वप्न बुने चले जाता है कोई
टूटें...तब भी ऐसा ही हँस देना होगा
जानता है जो... वही असल में जीता है


बुधवार, फ़रवरी 25

नई दुनिया में


नई दुनिया में



नहीं, उसका मिलना ऐसा नहीं था
जैसे कोई बिछड़ा मीत मिल जाये
उसने तो छुड़ा दिए थे सारे नाते और
फिर से मिला दिया था सबसे किसी और तल पर
दुनिया भी अब पहले वाली नहीं रही थी न ही वह खुद !
सारे समीकरण ही बदल गये थे इस नई दुनिया में
यहाँ पाने का अर्थ देना होता था   
व्यर्थ को त्याग सार को लेना होना होता था

नहीं, उसका होना ऐसा नहीं था
जैसे कोई दिखाए अपनी जायदाद को
उसने तो छीन लिए थे
आत्मा के वस्त्र तक
और फिर से दिला दी थी चाँद-तारों की वसीयत
अस्तित्त्व भी पहले की तरह नहीं रहा था मौन
न ही उसके कान बहरे !

मंगलवार, फ़रवरी 24

पंख बिन ही उड़ रहा है

पंख बिन ही उड़ रहा है



मिट गया चुपचाप भू में
खिल उठा वह ही गगन में,
गंध बन कर डोलता भी
मुस्कुराता है चमन में !

हट गया चुपचाप मग से
घट भरा वह ही मिलन से,
पंख बिन ही उड़ रहा है
प्रीत की सोंधी लगन से !

खो गया जो व्यर्थ ही था
पा लिया इक अर्थ सुंदर,
झर गया ज्यों जीर्ण जर्जर
नव मिला तब लक्ष्य मनहर !

सोमवार, फ़रवरी 23

विपासना



विपासना

चेतना की नदी देह के घाट से बहती है जब कभी
मन बाँध कर रख लेना चाहता है
मात्र अपने लिए
सड़ने लगता है बंधा हुआ पानी
जम जाती है शैवाल कहीं उठ जाती हैं चट्टानें
मन की अपरिमित लालसा की
हड़प जाने की वासना की
जब तब उठता है उबाल जिसमें
अकुलाता है मन का वह पानी
पर रित का नियम उसे थमने नहीं देता
 कतरा-कतरा भेजता ही रहता है देह के घाट तक
होश जगते ही सब स्पष्ट होने लगता है
राज बेचैनी का खुलने लगता है
टूट कर झरने लगती हैं दीवारें
कल-कल बहती जाती है नदी चेतना की...

रविवार, फ़रवरी 8

शुभकामना

प्रिय ब्लॉगर मित्रों,

आज ही इस वर्ष की पहली यात्रा पर निकलना है, सो आने वाले शिवरात्रि के पर्व के लिए शुभकामना के साथ दो सप्ताहों के लिए विदा.

महाशिवरात्रि

ब्रह्मा रचते, विष्णु पालक, हे शिव ! तुम हो संहारक
तीनों देव बसें मानव में तीनों जन-जन उद्धारक !

किन्तु आज शक्ति के मद में, भुला दिये मूल्य मानव ने
स्व-विनाश की करे व्यवस्था, जगह देव की ली दानव ने !

दुरूपयोग सृजन शक्ति का, व्यर्थ आणविक अस्त्र बनाये
पंचतत्व को करता दूषित, अपनी बुद्धि पर इतराए !

पालन करना भूल गया वह, विष्णु को है दिया सुला
असुरों का ही खेल चल रहा, देवत्व को दिया भुला !

हे शिव ! प्रकटो, मृत हो कण-कण, नव जीवन पुनः पाये
सड़ा गला जो भी है बासी, हो पुनर्गठित खिल जाये !

हे काल पुरुष ! हे महाकाल ! हे प्रलयंकर ! हे अभयंकर !
कर दो लीला, जड़ हो चेतन व्यापे विप्लव, हे अग्निधर !

सदियों से जो लगी समाधि, तोड़ नेत्र खोलो अपना   
कल्याणमय हे शिव शम्भु ! परिवर्तन न रहे सपना !  

तुम महादेव ! हे देव देव ! कर तांडव सृष्टि को बदलो
जल जाये लोभ का असुर आज, चेतना अंतर की बदलो !

हे पशुपति ! पशुत्व मिटाओ मानव की गरिमा लौटे
अज्ञान मिटे, अमृत बरसे गुमी हुई महिमा लौटे !

सर्प धर ! हे सोमेश्वर ! प्रकटो हे सौम्य चन्द्रशेखर !
मुंडमाल, जटा धारी, हे त्र्यम्बकम ! हे विश्वेश्वर !

तुम शमशान की राख लपेटे वैरागी भोले बाबा !
हे नीलकंठ ! गंगाधारी ! स्थिर मना, हे सुखदाता !

तुम करो गर्जना आज पुनः, हो जाये महा प्रलय भीषण  
हे बाघम्बर ! डमरू बोले, हो जाये विलय हर एक दूषण !  

शुभ शक्ति जगे यह देश बढ़े सन्मार्ग चलें हर नर-नारी
हे अर्धनारीश्वर ! हे महेश ! हे निराकार ! हे त्रिपुरारी !

धर्म तुम्हारा सुंदर वाहन, नंदी वाहक ! हे रसराज !  
हे अनादि ! अगम ! अगोचर ! काल भैरव ! हे नटराज !

शुक्रवार, फ़रवरी 6

अब जब कि


अब जब कि

अब जब कि हो गयी है सुबह
क्यों अंधेरों का जिक्र करें,
चुन डाले हैं पथ से कंटक सारे
क्यों पावों की चुभन से डरें !

अब जब कि छाया है मधुमास
अँधेरी सर्द रातों को भूल ही जाएँ,
खिले हैं फूलों के गुंचे हर सूं
क्यों दर्द को गुनगुनाएं !

अब जब कि धो डाला है मन का आंगन
आँधियां धूल भरी क्यों याद रहें,
सुवासित है हर कोना वहाँ
क्यों कोई फरियाद आये !

अब जब कि हो गया है मिलन
विरह में नैन क्यों डबडबायें
बाँधा है बंधन अटूट एक
भय दूरी का क्यों सताए !



गुरुवार, फ़रवरी 5

सुर में भरकर गा लेना है

सुर में भरकर गा लेना है


प्रस्तर में मूरत तो है ही
केवल व्यर्थ हटा देना है,
इस जीवन में अर्थ घटेगा
केवल व्यर्थ घटा देना है !

शब्दों में ही छुपा गीत है
केवल उन्हें बिठा देना है,
छंदों से संगीत बहेगा
सुर में भरकर गा लेना है !

माटी में ही गंध छिपी है
उपवन एक बना लेना है,
सुमनों से ही मधु टपकेगा
भ्रमरों को चुरा लेना है !

हर अंतर में प्रीत छिपी है
नयनों में बसा लेना है,
हाथों में सौभाग्य की रेखा
आगे बढ़कर पा लेना है !





मंगलवार, फ़रवरी 3

प्रीत की बौछार

प्रीत की बौछार


आज हुई है जो बात फिर कभी वह बात न होगी
आज की रात जैसी हसीं कभी रात न होगी
आज चाँद ने खोल दिया है अन्तर अपना
चाँदनी की हो रही बरसात फिर ऐसी बरसात न होगी
आज हुई है किसी मीत से मुलाकात
शायद फिर ऐसी मुलाकात न होगी
आज बरसा है टूट कर मेघ शायद फिर न बरसे
आज पुकारा है किसी ने दूर से
फिर यह घटे न घटे
आज बजती हैं झाँझरें और खिलते हैं कमल

आज सजती हैं बहारें और उमड़े आते हैं बादल !