रविवार, नवंबर 25

दिल के तो पास है


प्रिय ब्लॉगर साथियों,  मैं बनारस व बैंगलोर की यात्रा पर जा रही हूँ, अब दिसंबर के तीसरे सप्ताह में मुलाकात होगी. आने वाले वर्ष के लिए तथा क्रिसमस के लिए अग्रिम शुभकामनायें...


दिल के तो पास है 

अंबर की झील में 
चंदा की नाव है 
तारों की मीन सुंदर 
रंगो का गांव है  !

जाने किस लोक में 
परियों के गांव हैं 
फूल जहाँ बातें करते 
रोशन सी छाँव है !

मोती का नूर है 
ज्योति की हूर है,
दिल के तो पास है 
हाथों से दूर है ! 

गुरुवार, नवंबर 22

प्रेम की सीढ़ी मन चढ़ता है



प्रेम की सीढ़ी मन चढ़ता है


रेशमी ख्वाब बुनने हैं, रोशनी के गीत गुनने हैं
चांदनी चादर बिछा दो, फूल कुछ खास चुनने हैं


पांखुरी पांखुरी बोल रही है
कली ने सुगबुग ऑंखें खोलीं,
सज गयी बारात सुरभि ले
फूलों की ही सजी है डोली !

कमल नयन हैं जिसके सुंदर
कमल उसे भाते हैं मनहर,
मंदिर मंदिर कमल सजे हैं
कमल खिले हैं मन के भीतर !

गीत गूंजते मधुर निरंतर
नूर, नाद, अमृत भी बरसे,
हीरे, मोती, माणिक चमके
पल-पल द्युति अनुपम इक बरसे !

भीतर जब सूरज उगता है
प्रेम की सीढ़ी मन चढ़ता है,
झिलमिल ज्योत जिस दीये की
दिल के मंदिर में जलता है ! 




सोमवार, नवंबर 19

पारिजात क्यों झर जाते हैं






फूलों, रंगों, झरनों वाले, क्यों भाते हैं गीत
तू बसता है इनमें स्वयं ही, तू जो सबका मीत !


कुहू कुहू कूजन वूजन
सब तुझसे ही घटती है,
एक लोक है इससे सुंदर
सदा वहीं से आती है !

यह हल्की सी छुवन है तेरी
पत्तों की सरसर भी तुझसे,
शरद काल का नीला अम्बर
कहता तेरी गाथा मुझसे !

हरी कोंपलों पर किरणों की
 चमक रूप नए धरती है,
स्वर्णिम तेरा रूप अनोखा
छवि कैसी पुलक भरती है !

केसरिया, श्वेत तन वाले
पारिजात क्यों झर जाते हैं,
तेरे सुरभि कोष से लेकर
कतरे चंद बिखर जाते हैं !

धूप-छाँव का खेल अनोखा
दिवस-रात्रि का मेला अद्भुत,
तूने सहज रचा है प्रियतम
तू ही बदली तू ही विद्युत !  

शुक्रवार, नवंबर 16

कवयित्री डॉ माधुरी लता पाण्डेय का काव्य-संसार - खामोश ख़ामोशी और हम में


खामोश खामोशी और हम की अगली कवयित्री हैं, वाराणसी में जन्मी व पढीं डा. माधुरी लता पाण्डेय. सम्प्रति माधुरी जी अध्यापनरत हैं. इनका इ-मेल पता है- mip.7.n.63@gmail.com तथा ब्लॉग का पता है- http:/kavyanjali-madhuri.blog.spot.com, लिखना-पढ़ना, भारतीय संगीत सुनना एवं गुनगुनाना, घूमना और प्रकृति को निहारना उन्हें भाता है. इन्होंने अपना काव्यात्मक परिचय कुछ ऐसे दिया है-

मुझ से मत पूछो मेरा गांव
सृष्टि विद्या का अंग बनी हूँ
पवन सरीखा बहता जीवन
इक तरुवर पारा पाया ठांव
है आदि अंत, अनभिज्ञ अनंत
सुदृढ़ तटबंधों वाली सरिता सा
पड़ता नहीं किनारे पांव

इस पुस्तक में इनकी छह कवितायें हैं. विभिन्न विषयों पर लिखी ये कवितायें गहरे भावों तथा सुंदर, सहज भाषा के कारण पठनीय हैं. इनमें प्रकृति का भी मनहर चित्रण हुआ है. पहली कविता है-  

मैं नदी हूँ
लहर के प्रतिघात को
थामे हुए तटबंध वाली
मैं नदी हूँ
बह रही हूँ

...
उल्लसित सी
गान करती
..
संताप हरती
सजल विस्तार हूँ
मैं नदी हूँ
बह रही हूँ

उफनती जब गांव में
तो सिमट आते
तप्त आदम
जर्जरित से शाख-तरु
..
हृदय में धार लेती
सिमट आती पुनः अपनी ही
छाती में-
बड़ी आधार हूँ !
मैं नदी हूँ
बह रही हूँ

चटकती धरती गुजरते
मेघ का परिहार करती
आम्र, वट, पीपल सरीखे
गर्भ का संभार वरती
..
मैं नदी हूँ
बह रही हूँ

बोलो अब क्या राग सुनाऊं एक बंजारन की कथा-व्यथा है जो अपनी टोली से दूर है और दूर है अगले पड़ाव से भी-

मैं बंजारन ठाठ लिए पथराई बैठी
बोलो अब क्या गीत सुनाऊं?
मस्ती भूली, टोली बिखरी
ढपली पर क्या थाप लगाऊँ?

...
रात घिर रही बियाबान है
..
कितनी दूरी पर सराय है
अब यह कैसे पता लगाऊँ?

बस्ती पर्वत नाप लिए हैं
रस्सी पर चलकर देखा है
दो तली दो सिक्के बांधे
मन में किसका ठौर लगाऊँ?

...
धौल धूम, धुप्पल के आगे
बोलो अब क्या राग सुनाऊं

पृष्ठ का श्रृंगार एक साक्षी भाव में लिखी गयी एक सुंदर कविता है, जिसमें कवयित्री पंक्ति दर पंक्ति कोरे पन्ने को शब्दों से सजते हुए देखती है जब कोई कवि या लेखक अपने भावों व विचारों को उस पर अंकित करता है-

हाशिए पर खड़ी रहकर
देखती हूँ-
पृष्ठ की सजती हुई हर पंक्ति !
...
कहीं बेबाक सी हैं पंक्तियाँ
कहीं है भाव विह्वल
थके-हारे दिखलाई पड़े
विश्राम स्थल.
..
प्रश्न-उत्तर के
क्रमों की डोर थामे
हाशिए पर खड़ी रहकर
मौन होकर देखती हूँ
..
काफिये और हाशिए के बीच का संवाद
फिर रचेगा व्यूह उपसंहार का
पृष्ठ का श्रृंगार यूँ ही
बन पडेगा
जब फिर रचेगा व्यूह उपसंहार का

इनकी अगली कविता है, अम्बर के साये में बैठा एक परिंदा जिसमें पंछी के बहाने जीवन के परिवर्तन और हर पल घटती हुई एक प्रतीक्षा, एक भय का बखूबी चित्रण हुआ है-

अम्बर के साये में बैठा एक परिंदा
ऋतुओं के सैलानीपन को भाँप रहा है
सड़क-सड़क से पगडंडी से पगडंडी तक
आने-जाने वाला रास्ता नाप रहा है

...
दाने-दाने, तिनके-तिनके
इनके-उनके, उनके-इनके
लिए चोंच में प्राण-पखेरू
जन-मन, तन-धन आंक रहा है
...
आखेटक हैं जल बिछाए
...
अंदर रखे सुनहले पिंजरे
को वह भोला तक रहा है

आने-जाने वाला रास्ता नाप रहा है
अम्बर के साये में बैठा एक परिंदा

स्वप्न और जीवन एक दूसरे में गुंथे है, स्वप्न देखना और उन्हें कभी पूर्ण होते हुए तो कभी टूटते हुए देखना मानव की नियति है, स्वप्न निर्झर से बहे हैं में इन्हीं स्वप्नों की करुण कहानी है-

स्वप्न निर्झर से बहे हैं
स्रोत है दीखता नहीं है
कहीं छुपते, कहीं रुकते
गिरे गहरे अतल में
कितने दुःख सहे हैं !
स्वप्न निर्झर से बहे हैं


..
..
पारदर्शी रूप ले
अभिसार कर
मोहिनी सुधि ले
हर पल चले हैं !
स्वप्न निर्झर से बहे हैं !
..
अंधकारों में उलझते
ज्योत्स्नाओं से सुलगते
हर सुबह कुछ सर्द
बूंदों में ढले हैं !
स्वप्न निर्झर से बहे हैं

माधुरी जी की अंतिम कविता रहस्यवादी है, सखि की सजनी, सजनी की सखि में उस अनजाने सजन की प्रतीक्षा में रत सखि के माध्यम से गहन जीवन दर्शन व्यक्त हुआ है-

सुंदर बन्दनवार सजाये
खुले द्वार पर आँख टिकाये
किसको देखा करती पगली ?
जो तेरे होकर न आए ?

सपनों में झिलमिल तारे भर
...
चल उठ उनकी अगवानी कर
..
आहा ! निशा के वलय क्रोड में
किसकी गरमाई सांसे हैं ?
कौन सुहागन सिसकी भरती
किसकी शरमाई सांसे हैं ?
..
द्वंद्व जगत का ताना-बाना
यहाँ सदा ही आना-जाना
..
बांच रही है पाती किसकी
जग है जिसका तू है जिसकी ?
यहीं ठहर जा, समझ गयी तू
सखि की सजनी, सजनी की सखि.

कवयित्री माधुरी की कविताएँ प्रकृति के सहज उल्लास, भावनाओं की मधुरता और सामान्य जीवन में छुपे सौंदर्य की ओर पाठक का ध्यान सहज ही ले जाती हैं, आशा है सुधी पाठकों को भी ये भाएँगी.


सोमवार, नवंबर 12

“इक काव्य रचा जाता है पल पल इस सृष्टि में “


इक काव्य रचा जाता है
पल पल इस सृष्टि में


जाने कहाँ से आ रही
खुशबू रुहानी सी !

तन मन डुबोए जा रही
खुशबू सुहानी सी !

मदमस्त यह आलम हुआ
खुशबू है जानी सी !

नासपुटों में भर रही
खुशबू पुरानी सी !

जाने से पहले रख गया
खुशबू निशानी सी !

रग-रग में बहे रक्त सी
खुशबू रवानी सी !

यादों के तार छेड़ गयी
खुशबू कहानी सी !

आयी नहीं जब राह तकी
खुशबू है मानी सी !

शुक्रवार, नवंबर 9

सब घटता है सहज यहाँ


सब घटता है सहज यहाँ


रात ढली, दिन उगा
बोलो किसको श्रम हुआ,
हवा बही सुरभि लिए
बोलो किसने दाम दिए !

शिशु जन्मा, पांव चला
किसने उसको खड़ा किया,
कली खिली, पुष्प बना
किसने रंग उड़ेल दिया !

नदी बही, सिंधु मिला
किसने उसका मार्ग गढ़ा,
सलिल उठा, मेघ बना
किसने उसको गगन दिया !

सब घटता है सहज यहाँ
मात्र यहाँ होना होता है,
होने में भी श्रम न कोई
बस खुद को मिटना होता है !

मिटना भी तो सहज घटे
जीवन का रहस्य मृत्यु है,
उससे ही सौंदर्य मिलता
वही मात्र परम सत्य है !




सोमवार, नवंबर 5

हर जगह है हाथ कोई


हर जगह है हाथ कोई

बेसुरी न बांसुरी हो
शहद जैसी माधुरी हो,
जिंदगी यह कीमती है
ज्यों कमल की पाँखुरी हो !

प्रीत सुर भीतर जगे
शांति का उपवन उगे,
बोल जो भी सहज फूटें
चाशनी में हों पगे !

सत्य जब आकार लेगा
सहज सब स्वीकार होगा,
जो थे हम वह ही दिखें
बस यही संदेश देगा !

गूँजता अस्तित्व सारा
ज्योतियों से तमस हारा,
हर जगह है हाथ कोई
राह दे, देकर सहारा !

शनिवार, नवंबर 3

कवि मुकेश का कविता संसार -खामोश ख़ामोशी और हम में


खामोश ख़ामोशी और हम के अगले कवि हैं, श्री मुकेश कुमार तिवारी. मध्य प्रदेश के निवासी मुकेश जी पेशे से इंजिनियर हैं,कविता व व्यंग्य लेखन करते हैं,. इन्होंने जीवन को करीब से देखा है व कविता से उर्जित होकर जीवन के हर पड़ाव का सामना किया है. इस संकलन में कवि की दस कवितायें हैं. कविताओं के विषय-वस्तु समाज, मन, भाषा, परिवार है. इंसान का बदलता हुआ चरित्र इनकी पहली व दूसरी कविता का विषय है, पहली का शीर्षक है इंसान के करीब से गुजरते हुए तथा दूसरी का इंसान के बारे में –
१.
साँप,
यदि अब भी साँप की तरह ही होते
...
...
जब से
परियां आसमान से
नहीं उतरीं जमीन पर
और मेरे पास वक्त नहीं बचा  
न दादी के लिए और न अपने लिए
साँप,
पहनने लगे हैं इंसानी चेहरा
और बस्तियों में रह रहे हैं
बड़ा खौफ बना रहता है
किसी इंसान के करीब से गुजरते हुए

२.
मुझे
यह लगता था कि
इंसान बातों को समझता है
...
अपने तर्कों को औजार बनाया था मैंने
उनसे बातें करने को
..
यह भी लगता था कि
सभी इंसान दिल से अच्छे होते हैं
..
और मैं सबसे दिल खोल के मिलना चाहता था

...
यही सीखा था कि
इंसान जब समूह में रहते हैं तो
समाज का निर्माण करते हैं
मैं सबको साथ ले के चलना चाहता था

मैं
ये ही सीख पाया कि
धीरे धीरे समाज विघटित होता है
और यूनियनों में बिखरने लगता है
गाली, गलौच और नारों के साथ
..
वही इंसान अपनी केंचुली बदल
जब किसी निगोशिएशन में आता है सामने तो
मुझे देखता है किसी सपेरे की तरह
और फुफकारने लगता है
..
भ्रमित हो जाता हूँ
मैंने जो सीखा था अब तक
इंसानों के बारे में
क्या वह बकवास था ?

कवि की तीसरी कविता है प्रश्नों की चिंगारी जिसमें वह कहता है कि मन की जिज्ञासा की चिंगारी को कैसे आग बनाया जाता है ताकि वह सार्थक सिद्ध हो सके-

मन में,
न जाने कितना
कुछ चल रहा होता है एक साथ
....
मन जैसे कोई शांत झील हो
और कोई प्रश्न
अचानक किसी कंकड़ की तरह
उठा देता है तरंगें
..
लेकिन
...
हर एक,
प्रश्न चिंगारी की तरह होता है
जिसे सहेजना होता है
आग में बदलने के लिए
खुद जलते हुए 

कवि मुकेश को भाषा और लिपि की सीमा का आभास है, अगली दोनों कविताएँ जब आदमी ने पैदा किये शब्द जब, गुम हो जाएँ लिपियाँ भाषा की अपेक्षा मौन महत्व देती हैं, क्योंकि कवि के अनुसार शब्दों के माध्यम से सच नहीं सिखाया जा सकता...
१.
जब
आदमी ने
नहीं पैदा किये थे
अक्षर
और शब्द तो कहीं थे ही नहीं
तब मौन बदलता था संवाद में
भंगिमाओं के सहारे
और दुनिया
तब भी चल रही थी
..
यदि मैंने नहीं सीखा होता पढ़ना
और समझना
तो शायद कभी नहीं मारता
अपने मन को
..
मुझसे
यह पहले पूछा ही नहीं गया कि
क्या मैं चाहता हूँ
पढ़ना-लिखना
और बदल जाना एक भीड़ में
...
ऐसे
कई मौकों पर
सिर्फ इस अपराध बोध से
घोंट लेता हूँ गला कि
मैं समझ पा रहा हूँ
मुझे परोसा गया है सच !
न जाने कितने अर्धसत्यों या झूठों को मिलाकर
और मेरा विवेक
होंठों को सी देता है

गुम हो जाएँ लिपियाँ इस कविता में कवि उस वक्त की कल्पना करता है जब सारी लिपियाँ खो जाएँगी और उसका नाम किसी पत्थर पर उकेरा गया होगा तो कौन उसे जानेगा, यदि वह किसी के दिल में बसे तो उम्मीद है कि तब तक जिन्दा रहे...

मैंने,
कभी नहीं चाहा कि
जोड़कर अंजुरी भर लूँ
अपन हिस्से की धूप
और अपने सपनों को बदलने की
कोशिश करूं हकीकत में
...
आकाश मेरे लिए सहेज कर  रखे
एक टुकड़ा छाँव सुख भरी
...

मेरे आस-पास आभामंडल बने
....
जब मैं अपनी ही खोज किसी कतार में खड़ा
आरम्भ कर रहा हूँ सीखना
रौशनी कैसे पैदा की जाती है
खून को जलाते हुए हाड़ की बत्ती से
..
नहीं चाहा कि
मेरा नाम उकेरा जाये दीवारों पर
या पत्थर के सीने पर
और वर्षों बाद भी जब गुम हो जाएँ लिपियाँ
मैं अपने नाम के साथ जिन्दा रहूँ
अनजानी पहचान के साथ
जब मैं चाहता रहा कि
मेरा नाम किसी दिल के हिस्से पर
बना सके अपने लिए कोई जगह
और धड़कता रहे
किसी दिन शून्य में विलीन होने से पहले

जूड़े में गुंथे सवाल कवि की अगली सशक्त कविता है, जो अपने सहज प्रवाह और गहरे भाव के सरलता से प्रकट किये जाने के कारण दिल को छू जाती है-

मैं,
जनता हूँ
तुम्हारे पास कुछ सवाल हैं
जो,
अक्सर अनुत्तरित ही रह जाते हैं
मुट्ठी में बंद अनाज के दानों की तरह
जो सारी उम्र इंतजार ही करते रह जाते हैं
उनकी
मिटटी की तलाश पूरी ही नहीं होती
...
..
उनमें से ही कोई सवाल
रह-रहकर उभरता है
तुम्हारे चेहरे पर
फिर कसमसोस कर घुट जाता है
तुम्हारे सिर झटकने में या बिलावजह मुस्कुराने में
..
वो सारे सवाल
जो नहीं कर पाए, जो जी में आया
रात को बिखरने लगते हैं
..
और तलाशते हैं वजूद अपना
तुम्हारी कुरेदी गई लकीरों में
चादर में बुनी गयी सिलवटों में
या चबाये गए तकिये के कोने में
इससे पहले कि
सुबह तुम बटोर लो उन्हें
और,
गूँथ लो अपने जुड़े में

मुकेश जी की अगली कविता है दिन-शाम-रात आज की सभ्यता मानव को एक अंतहीन दौड़ में खड़ा कर देती है, इसी त्रासदी का चित्रण हुआ है इस प्रभावशाली कविता में-
दिन,
जैसे सुबह निकला ही नही हो
उठते से ही
प्लान तैयार थे दिन पर
यह करना, वह करना है
...
सभी घंटे बंटे हुए थे
...
एक सिर्फ
अपने लिए वक्त नहीं था

शाम
अभी हुई ही नहीं है
भले ही चांद चढ़ आया हो
आसमान में..
अभी भी मेरा दिन चल रहा हो
अपनी सुस्त चाल से
...
जैसे ऑफिस नहीं हुआ
किसी ब्लैकहोल को भरने की मजबूरी हो

रात
कब आ पाती है
..
तब भी लगता है
जैसे अभी वो सब तो करना बाकी है
जो पिछली रात भी
घुला हुआ था सपनों में
..
मैं सिर्फ एक कैदी से ज्यादा
नहीं महसूस करता
जब भी ऑफिस में होता हूँ
या घर पर
...

उगती दीवारों के बीच में कवि जीवन पथ पर निरंतर होने वाले परिवर्तन को देखता है जिसको हर हाल में घटना ही है.

कुछ
पता नहीं चलता कि
कब तुम नींव से बदले स्तम्भ में
फिर दीवारों में वक्त के साथ
और
तुम्हारी उपयोगिता पर ही
उठने लगे सवाल
नए रास्तों के लिए  

रास्ते
जिन पर न जाने
कितने लोगों ने पायी होंगी मंजिलें
...
तब जमीन में होने लगती हैं
हलचल
...
दीवारें कुर्बान होने लगती हैं
नए रास्तों के लिए
..
एक खत पापा के नाम  जैसा कि शीर्षक से स्पष्ट है, यह कविता एक खत के रूप में लिखी गयी है, अपने पिता से जुडी यादों को उकेरते हुए कवि एक दिन ऐसा पत्र लिखना चाहता है जो महज औपचारिकता नहीं होगी-
पापा,
कोई जमा तेईस सालों बाद
मुझे आज यह लगा कि
अपनी राजी-खुशी का हाल लिखूं
...
मैं
अपनी जिंदगी में शायद
यही नहीं सीख पाया हूँ, चिट्ठी लिखना
...
गिनती की कुल जमा तीन-चार
चिट्ठियां ही मिली होंगी मेरी अब तक
...
सिर्फ अपने आने की, भेजे जाने की
औपचारिकताएँ निभाती चिट्ठियाँ
..
अब
किसी दिन मैं सीखूंगा
आपसे चिठ्ठी लिखना, ‘उसके खत’ की तरह
...
माँ, केवल माँ भर नहीं होती इस संकलन में कवि की अंतिम रचना है, न जाने कितनी कविताओं में कवियों ने माँ को परिभाषित करने की चेष्टा की है, लेकिन माँ कभी नहीं समाती शब्दों में..वह प्रेम की तरह असीम है-
माँ
किसी भी उम्र में
केवल माँ भर नहीं होती
...
माँ
के होने का मतलब है
जिसकी छाती पे चिपका सकते हो
तुम डरावने ख्वाब
..
मांग सकते हो कुछ भी चाहे उसके पास हो या न हो
पर वह कोशिश जरूर करती है खोजने की
मुँह उठा के मना नहीं करती

माँ
इस उम्र में भी
अपने से ज्यादा चिंता तुम्हारी करती है
...
माँ अपनी पूरी उम्र में
कभी जी ही नहीं पाती है अपने लिए
या तो बुन रही होती है स्वेटर तुम्हारे लिए
या तो पाल रही होती है कोख में तुम्हें
..
माँ
केवल माँ भर नहीं होती
अपनी जिंदगी भर


मुकेश जी की कवितायें पढकर मुझे भुत आनंद आया और उससे भी अधिक उन्हें आप सभी के साथ बाँटने में , आशा है आप भी इनका रसास्वादन करेंगे. इनके ब्लॉग का पता है-http:/tiwarimukesh.blogspot.com
और इनका इमेल पता है-mukuti@gmail.com

.