सोमवार, जनवरी 30

बेगानी है हरी दूब भी


बेगानी है हरी दूब भी

मरुथल बियाबान के वासी
फूलों से रहते अनजाने,
बूंद-बूंद को जो तरसे हैं
नदियों से रहते बेगाने !

स्वप्न सरीखे उनको लगते
उपवन, सरवर, झरने, पंछी,
जिसने मीलों रेत ही देखी
बेगानी है हरी दूब भी !

शब्दों में न सत्य समाता
मरुथल से सूने सपाट हैं,  
अंतर में बहार न छाती
जब तक न खुलते कपाट हैं !

सम्बन्धों में खुशी छिपी थी  
रहे कैद हम निज सीमा में,
एक ऊर्जा का प्रवाह था
रोक दिया है जिसको हमने !

जीवन इक अनंत पर्व है
संबंधों में राज छिपा है,
पहले खुद से, फिर उस रब से
फिर जग से संवाद हुआ है !   

शुक्रवार, जनवरी 27

आज नमन करते हैं तुझको


आज नमन करते हैं तुझको


माँ कुछ ऐसे दिल में रहती
होने का भ्रम भी न देती,
दुनिया से हो जाये रवाना
मन से कभी न रुखसत होती !

जिसके द्वारा जग में आये
जिसके होने से निज होना,
जिसकी अंगुली थाम के सीखा
नन्हें पैरों पैरों चलना !

जिसने भाषा संस्कार दिये
वह धैर्य, प्यार की मूरत है,  
वात्सल्य का एक खजाना
हर बच्चे की जरूरत है !

जिसको बहुत सताया हमने
जिसको बहुत रुलाया हमने,
उसने बस मुस्कान बिखेरी
उसको कहाँ हंसाया हमने !

बच्चों को आशीषें देती
उनकी झोली भर-भर देती,
खुद तो भूखी रह सकती थी
घर भर को तृप्त कर देती !

माँ की छाया कितनी कोमल
उसका साया सदा साथ है,
स्मृति ही सम्बल भर देती
सिर पर उसका सदा हाथ है !

जन्मदिन तो याद नहीं है
उसने कभी मनाया कब था,
आज मनाते पुण्यतिथि हम
अंतिम वह क्षण आया जब था !

इतनी घुली-मिली थीं खुद में
जान नहीं पाए तुम क्या थीं,
बच्चों का बस भला चाहतीं
ख्वाहिश और तुम्हारी क्या थी !

माँ रब जैसा रखे कलेजा
तभी सभी कुछ सह जाती है,
रेशा-रेशा प्रेम पगा है
बिन बोले सब कह जाती है !

आज नमन करते हैं तुझको
तेरे बहाने हर इक माँ को,
मातृभूमि व मातृभाषा को
जग जननी जगदम्बा माँ को !
   
  


बुधवार, जनवरी 25

गणतन्त्र दिवस की शुभकामनायें !


गणतन्त्र दिवस की शुभकामनायें !


तिरंगा सुनाता है अपनी कहानी
 राजा है इसमें न ही कोई रानी,
शहीदों के खूं से लिखी यह गयी है
हजारों की इसमें छुपी क़ुरबानी !

गुलामी का दर्द भयानक बड़ा था
घुट घुट के जीते थे शासन कड़ा था, 
आजादी की शमा जब जली लहराती  
तिरंगा गगन में ऊँचा उड़ा था !

बापू ने इसमें भरे रंग प्यारे
चरखा बना चक्र, संदेश धारे,
बढ़ते चलें तोड़ बाधायें पथ की
मंजिल सदा दे, आशा पुकारे !

केसरिया सुनाये साहस की गाथा 
हरियाला भारत स्वप्न सजाता,  
सच्चाई, शांति का संदेशा देकर   
तिरंगा दिलों में आकांक्षा जगाता !

मंगलवार, जनवरी 24

जाने कौन सिवाय तेरे


जाने कौन सिवाय तेरे

तेरी धरा नीर भी तेरा
तेरी अगन पवन भी तेरा,
तेरे ही आकाश के नीचे
सकल रूप डाले हैं डेरा !

देह भी तेरी मन भी तेरा
श्वासें तेरी चिंतन तेरा,
तेरी ही प्रज्ञा के कारण
कैसा जगमग हुआ सवेरा !

तू ही चला रहा सृष्टि को
जाने कौन सिवाय तेरे,
एक बीज में छिपा सकल वन
एक शब्द से सबको टेरे !

यही एक राज  पाना है
होना क्या फिर खो जाना है,
तू ही है अब तू ही तो था
तुझको ही बस रह जाना है !

एक झलक जो तेरी पाए
तेरा दीवाना हो जाये,
गा गा कर फिर तेरी गाथा
मस्त हुआ सा दिल बहलाए !  





रविवार, जनवरी 22

वह और हम


वह और हम

जब परमात्मा हमारे द्वार पर खड़ा होता है
हम नजरें झुकाए भीतर उसे पत्र लिख रहे होते हैं
भोर की पहली किरण के साथ हर सुबह जब
वह हमें जगाने आता है
करवट बदल कर हम मुँह ढक के सो जाते हैं
जब किसी के अधरों से कोई सूत्र बन कर
वह कानों तक आता है हमारे,
हम कंधे उचका कर कह देते हैं, अभी जल्दी क्या है
सोचेंगे आपकी बात पर फिर कभी
वह दस्तक देता है अनेकों बार
कभी सुख कभी दुःख की थपकी लगाकर
हमने उसकी ओर न देखने की कसम खाली हो जैसे
नजरें चुराते निकल जाते हैं....
प्रीति भोज में पेट भर जाने पर वह टोकता है भीतर से
अनसुना कर उसे नई प्लेट में
बस एक मिठाई और परोस लेते हैं हम
परमात्मा भी थकता नहीं
वह बुलाए ही जायेगा...
हम भी कुछ कम नहीं...
पर जीत तो उसकी ही होगी
आखिर वह हमारा बाप है...

गुरुवार, जनवरी 19

जो घर खाली दिख जाता है


जो घर खाली दिख जाता है


एक-एक कर चुन डाले हैं
पथ के सारे पत्थर उसने,
कंटक चुन-चुन फूल उगाये
हरियाली दी पथ पर उसने !

ऊपर-ऊपर यूँ लगता है
पर भीतर यह राज छिपा है,
वह खुद ही आने वाला है
उसी हेतु यह जतन किया है !

जिस दिल को चुनता घर अपना
उसे सँवारे  सदा प्रेम से,
जो घर खाली दिख जाता है
डेरा डाले वहीं प्रेम से !

उसकी है हर रीत निराली
बड़ा अनोखा वह प्रियतम है,
एक नयन में देता आँसू
दूजे में भरता शबनम है !

वह जो है बस वह ही जाने
हम तो दूर खड़े तकते हैं,
वही पुलक भरता अंगों में
होकर भी हम कब होते हैं ! 

मंगलवार, जनवरी 17

बीज से फूल तक


बीज से फूल तक


कृषि भवन के विशाल कक्ष में
शीशे के जार में बंद एक नन्हा सा बीज
था व्याकुल बाहर आने को
नयी यात्रा पर जाने को....
खरीदने की मंशा लेकर तभी आया एक किसान
तैयार थी माटी, रोपा गया वह बीज उसी शाम
तृप्त हुआ था बीज
 पाकर सिंचन
और ऊष्मा धरा की
उठने को आतुर था
गगन और पवन के सान्निध्य में
मर मिटने को था वह तैयार
मिलाने पंच भूतों की काया पंच भूतों से
पर नहीं था तैयार उसका खोल
जो आज तक था रक्षक
बना था बाधक
कांप उठा वह
क्या इस बार भी
भीतर ही भीतर सूख जायेगा
नन्हा सा अंकुर
नहीं... पुनः नहीं
जाना ही होगा इस खोल को
ताकि एक दिन फूल बनने की
 सम्भावना को तलाश सके बीज
एक नयी पीढ़ी को सौंप जाये अपनी विरासत
पूरी शक्ति से भेद डाला आवरण
आ ऊपर धरा के ली दीर्घ श्वास
अभी लंबी यात्रा तय करनी है
कितने मौसमों की मार सहनी है
कितनी हवाओं से सरगोशियाँ
तितली, भंवरों से
गुफ्तगू करनी है
वह उत्सुक है जीवन को एक बार फिर जीने के लिए
उत्सुक है हवा, जल और ऊष्मा को पीने के लिये   
 फूल बन कर अस्तित्त्व के चरणों में समर्पित होने के लिए
कैसा होगा वह पल जब
अपना सौंदर्य और सुरभि सौंप
बच जायेगा यह बीज उन हजार बीजों में
अस्तित्त्व भी प्रतीक्षा रत है
बनने साक्षी उस घड़ी का...    

सोमवार, जनवरी 16

अम्मा के लिये

आठ महीने कोमा में रहने के बाद हमारे परिचित परिवार की बुजुर्ग महिला ने देह त्याग दी, दो बच्चों की शादी उसी दौरान हुई, जो पहले से तय  थी. विवाह के कुछ ही दिनों बाद यह घटना घटी.
अम्मा के लिये 

अम्मा ! तुम चली गयीं
उस लोक में चली गयीं
जहाँ हम सब को जाना है एक दिन
जाते-जाते भी निभा गयीं अपना कर्त्तव्य
जैसे निभाती रहीं पूरे जीवन...
चुपचाप करतीं रहीं प्रतीक्षा सही समय की
जब पूर्ण हो गए मंगल कार्य
तुम्हारे प्रिय वंशज बंध गए विवाह सूत्र में
तब चुना तुमने प्रस्थान का दिन...
इतना स्नेह जीवन भर लुटाया तुमने
और जाते-जाते भी उलीच गयीं
अपने अंतर की सारी ऊष्मा
नई पीढ़ी के नाम...

अम्मा, तुम्हारा होना घर की छत के समान ही तो था
एक छायादार वृक्ष की तरह भी
स्नेह और ममता का साया ही तो थीं तुम
जो बांधें रहीं सारे परिवार को एक सूत्र में
बहुत जीवट भरा था तुममें...
माँ और पिता दोनों की भूमिका निभातीं
घंटों पारिवारिक व्यवसाय में हाथ बंटाती
परिश्रम और धैर्य की मूर्ति बनी
काम करते हुए तुम्हारी छवि
भुलाई नहीं जा सकती...

ऊँचा कद, चौड़ा भाल
लाल बिंदी, श्वेत मोतियों की माल
दायें हाथ में एक अंगूठी, कांच की चूडियाँ
नासिका में कील और चेहरे पर झलकता आत्मविश्वास...
मन मोहने वाली थी तुम्हारी मुस्कान भी
लंबी बाँहों वाला ब्लाउज और सीधे पल्ले की साड़ी
तुम्हें याद करते हुए सब याद आते हैं...

पूजा के लिये सुबह सवेरे उठ कर फूल लाना
ढलती उम्र में भी कहाँ छोड़ पायीं थीं तुम
रामायण का पाठ सुनते हुए ही बीते
तुम्हारे अंतिम दिन भी...
कितनी भाग्यशालिनी थीं तुम..

अम्मा, तुम चलीं गयीं पर छोड़ गयी हो
एक विरासत...परिवार में एकता की
बुजुर्गों के प्रति श्रद्धा और सम्मान की
उन्नत संस्कार की
सेवा और सहयोग की भावना की
तुम्हारा भौतिक रूप भले न हो
पर तुम सदा रहोगी इस घर के हर कोने में
हर उस मन में जिनसे तुम मिली जीवन में
अम्मा तुम चली गयीं
पर सिखा गयीं कितना  कुछ
तुम्हें अर्पित हैं ये श्रद्धा सुमन ! 

शुक्रवार, जनवरी 13

लड़कियों की प्रार्थना


लड़कियों की प्रार्थना


अच्छा घर हो अच्छा वर हो
बड़ी नौकरी न कोई डर हो,
इतना तो सब माँगा करतीं
‘स्वयं’ कैसी हों नहीं सोचतीं !

बाहर सब हो कितना अच्छा
भीतर के बल पर ही टिकता,
भीतर को यदि नहीं संवारा
बाहर का भी शीघ्र बिखरता !

जो होना है वह हो जाये
सहज हुआ मन दीप जलाये,
फेरे, वेदी, मंगल वाणी
जीवन को आगे ले जाये !

लम्बा रस्ता, दूर है मंजिल
अपनी राह स्वयं गढनी है,
कैसा मधुर खेल चलता है
एक पहेली हल करनी है !

गुरुवार, जनवरी 12

गीत समर्पण का गाते हैं


गीत समर्पण का गाते हैं

पुलक भरे जब अपने उर में
साँझ ढले झर जाते हैं,
सँग हवा के इक झोंके पर
झूम झूम इठलाते हैं !

मनहर, कोमल, पुष्प धरा पर
गीत समर्पण का गाते हैं !

लय और गति के सँग बंधे
निज कक्षा में रह सिमटे,
जाने किस अनादि काल से
मंद मंद मुस्काते हैं !

चाँद सितारे ऊपर नभ में
गीत समर्पण का गाते हैं ! 

बुधवार, जनवरी 11

आँसू भी सीढ़ी चढ़ते हैं


आँसू भी सीढ़ी चढ़ते हैं

माँ को सम्मुख जब न पाए
शिशु का कोमल उर घबराए,
उसके नन्हें से कपोल पर
बूंदों की सुछवि गढ़ते हैं

आँसू भी सीढ़ी चढ़ते हैं !

प्रिय से दूरी सह न पाए
व्यथा नहीं भीतर रह पाए ,
जार-जार बहे थे आँसू
कॉपी के पन्ने कहते हैं

आँसू भी सीढ़ी चढ़ते हैं !

आँसू जब परिपक्व हो गए
अपना खारापन खो गए,
विरह भाव में पगे हुए से
शीतलता भीतर भरते हैं

आँसू भी सीढ़ी चढ़ते हैं !

कभी बहे थे जो रोष में
दुःख, विषाद या किसी शोक में,
वही आज पर दुःख कातर हो
समानुभूति में बढ़ते हैं

आँसू भी सीढ़ी चढ़ते हैं !