नीलगगन सा जो असीम है
शब्दों से आहत होता मन
शब्दों की सीमा कब जाने,
शब्द जहाँ तक जा सकते हैं
मात्र वही स्वयं को जाने !
नीलगगन सा जो असीम है
अंतर का आकाश न देखा,
दिल को रोका चट्टानों से
खिंच गयी जिन पर दुख रेखा !
एक ऊर्जा हैं अनाम सभी
क्योंकर इतना मोह नाम से,
नाम-रूप बस छायायें हैं
बिछड़ गयीं जो परम धाम से !
वैखरी, मध्यमा, पश्यंती
के पार परावाणी बसती,
माँ शारदा नित्य महिमा में
वीणा हाथ में ले विहँसती !