मंगलवार, मई 27

रास रचाएं संग वनमाली

रास रचाएं संग वनमाली



चलो झटक दें हर वह पीड़ा
जो उससे मिलने में बाधक,
सभी कामना अर्पण कर दें
बन जाएँ अर्जुन से साधक !

चलो उगा दें चाँद प्रीत का
उससे ही करें प्रतिस्पर्धा,
या फिर अंजुरी भर-भर दें दें
भीतर उमग रही जो श्रद्धा !

चलो गिरा दें सभी आवरण
गोपी से हो जाएँ खाली,
उर के भेद सब ही खोल दें
रास रचाएं संग वनमाली !

गुरुवार, मई 22

अनकहे गीत बड़े प्यारे हैं

आज एक पुरानी कविता 

अनकहे गीत बड़े प्यारे हैं

जो न छंद बद्ध हुए
बिल्कुल कुंआरे हैं
तिरते अभी नभ में   
गीत बड़े प्यारे हैं !

जो न अभी हुए मुखर
अर्थ क्या धारे हैं
ले चलें जाने किधर
 पार सिंधु उतारे हैं !

पानियों में संवरते
पी रहे गंध माटी
जी रहे ताप सहते
मौन रूप धारे हैं !

गीत गाँव की व्यथा के
भूली सी इक कथा के
गूंजते से, गुनगुनाते
अंतर संवारे हैं !

गीत जो हृदय छू लें
पल में उर पीर कहें
ले चलें अपने परों  
उस लोक से पुकारें हैं !


गुरुवार, मई 15

एक सनातन वृक्ष जगत है

एक सनातन वृक्ष जगत है


प्रकृति में ही सदा अवस्थित
सुख-दुःख दो फल धारण करता,
त्रिगुण रूप की हैं जड़ें हैं गहरी
एक सनातन वृक्ष जगत है !

पंच भूत, मन, बुद्धि आदि
है अष्ट शाखाओं वाला
सप्त धातुएं छाल बनी हैं
एक सनातन वृक्ष जगत है !

नव द्वार के कोटर धरता
दस प्राण हैं पत्ते जिस पर
रस देता पुरुषार्थ रूप में
एक सनातन वृक्ष जगत है !

पंच इन्द्रियों से जाना जाता
उत्पन्न होकर बढ़ता, मिटता
दो पंछी रहते हैं जिस पर
एक सनातन वृक्ष जगत है !


गुरुवार, मई 8

आना-जाना

 आना-जाना

न कोई किसी से दूर जाता है
न कोई किसी के पास आता है,
स्वयं से दूर और स्वयं के पास
हर मानव यहाँ आता-जाता है !

केंद्र से परिधि की यात्रा चलती है
दिन भर हलचल परिधि पर घटती है,  
निद्रा में केन्द्र पर विश्राम पाता है
थका हारा जब अपने घर जाता है !  

मंगलवार, मई 6

नदी मन की

 नदी मन की


संकल्प और विकल्प
 दो तटों के मध्य
नदी बहती है
हम किनारों पर ही बैठे बैठे
देखते रहते, जान नहीं पाते
वह क्या कहती है !

कभी घने जंगलों से गुजरती
कभी कठोर स्थलों से फिसलती
हम लुटते-कटते, अंजान से बिंधते
देख नहीं पाते
वह क्या सहती है 

शुक्रवार, मई 2

पाने को सारा आकाश है

पाने को सारा आकाश है



खोने को कुछ भी नहीं यहाँ
पाने को सारा आकाश है !

जाने या ना जाने कोई
होती उसकी ही तलाश है !

मेघ उसी की गाथा गाते
होता पल्लवित पलाश है !

जोड़ तोड़ मन जो करता है
अक्सर होता वही निराश है !

प्रीत नीर भरते मनघट से
झर जाता भीतर प्रकाश है !

 उसको जिसने सौंप दिया सब
खो जाती हर एक आश है !