शुक्रवार, जून 29

छू सकते आसमान





छू सकते आसमान 

जो मिला ही हुआ है
नहीं देखते आँख उठाकर भी
उसकी ओर..
बिछड़ने ही वाला है जो
 थामना चाहते हैं उसे
जो है, अस्वीकार करने में उसे
नहीं लगती पल भर की भी देर...
जो हो नहीं सकते
दौड़ लगाते हैं उसकी ओर...

 विद्यार्थी, बना रहे विद्यार्थी यदि
आत्महत्याएँ हों न शिक्षालयों में
पत्नी हो पाए एक पत्नी
 सीख ले पति, पति होना
बच जाएँ कितने घर गृहयुद्धों से
बच्चे निभाने दें
माँ पिता को अपनी भूमिका
तो प्रेम की एक डोर
बांधे रहे उन्हें आजीवन....

अध्यापक तज देता है अध्यापन
करने के लिये व्यापार
दुरूपयोग करे अधिकारी, अधिकार
बेमन से करे कृषि कर्म कृषक
हर इक गाँव बनना चाहता हो शहर..
हिल जायेगी सारी व्यवस्था
एक नन्हा सा पुर्जा भी मशीन का
 हिल जाये जब
दिख ही जाती है उसकी व्यर्थता

हम जो हैं, रखे गए हैं जहाँ
बेशकीमती है वह स्थान
छूया जा सकता है आकाश
उस स्थान से भी...
नाप सकते हैं सागरों की गहराई
उस स्थान से भी....

पूर्ण है हर कर्म
पूर्ण है हर प्राणी
पूर्ण है हर सम्बन्ध
यदि समझ है पूर्ण इंसान की...  



बुधवार, जून 27

जमीन से जुड़े लोग


जमीन से जुड़े लोग

आपके पावों में अभी
चुभा नहीं है कांटा
दर्द आप कैसे जानेंगे
फूंक फूंक कर पीते हैं वे छाछ भी
दूध के जले हैं, इतना तो मानेंगे....

नहीं लगी आग कभी
आलीशान महलों में आपके
फूस की झोंपड़ी थी, जल गयी
बस कहकर यह, लंबी तानेंगे...

पानी बाढ़ का भला, कैसे
करे हिमाकत
चढ़ने की सीढियाँ, महलों की आपके
गाँव के गाँव डूब गए जिसमें
उस सैलाब को
उड़ के आसमां से जानेंगे...

सुलगती रेत में जले नहीं
तलवे जिनके
क्या जानेंगे वे राज माटी का
बरसती आग में न झुलसे तन
बरसते सावन का मजा
खाक जानेंगे...

बारिशें उड़ा ले गयीं न छप्पर जिनका
कैसे भिगोएँगे भला, बादल उनको
उगाते हैं जमीं से जो सोना
पसीने को उन्हीं के, धोयेंगे बादल

कडकती शीत में न कटकटायीं
हाड़ें जिनकी
तपिश अलाव की, न दे पायेगी सुकून
गल न गयीं बर्फ में
 उंगलियाँ जिसकी
क्या कदर होगी गर्म वस्त्रों की उसे...

मुश्किलों से जो दो चार हुआ करते हैं
वही श्वासों की कीमत अदा करते हैं
जमीन से जुड़े हैं जो लोग यहाँ
वही जगत की जीनत बना करते हैं !




रविवार, जून 24

याद तेरी


याद तेरी

तू प्यार समोए है अनंत
छू जाता पवन झंकोरे में,
कभी लहराती शाखाओं में
कभी झूम रहे इन पत्तों में !

बन सुंदर कीट चमकता है
जुगनू की आभा में छिपता,
कभी कलरव कूकू कोकिल की
कभी हरी दूब में तू हँसता !

सरगोशी सांय सांय की जो
जब पवन सुनाया करती है,
पीपल के पल्लव नाच रहे
बदली छा जाया करती है !

जब सूर्य चमकता है नभ में
मेघों के पार रजत बन के,
जब किरणें तन को छू जातीं
वृक्षों के पत्तों से छन के !

जब कोमल पुष्प की पंखुडियां
झर झर झर जाती हैं यूँही,
तब दिल में तेरी परछाई
इक मौन सी भर जाती यूँही !  

शुक्रवार, जून 22

जाने कब फिर मिलना हो


जाने कब फिर मिलना हो


कुछ तुम कह दो, कुछ हम सुन लें
कलियों का कब खिलना हो
जाने कब फिर मिलना हो !

चंद श्वास लेकर आये थे
कुछ ही शेष रही हैं जिनमें,
कहीं अधूरा न रह जाये
किस्सा, हम तुम मिले थे जिसमें !

तुम झाँकों मेरे नयनों में
फुरसत ऐसी कल ना हो,  
जाने कब फिर मिलना हो !

कितने संगी चले जा चुके
अभिनय करते थके थे शायद,
मंच कभी खाली न हुआ यह
स्मृतियाँ भी खो जाती अक्सर !

पलकों को न बंद करो तुम
जाने किस पल चलना हो
 जाने कब फिर मिलना हो !

जितना साथ मिला सुंदर था
इक-दूजे में झलक भी पायी,
स्वप्नों में वह छिपी न रहती
जग कहता है जिसे खुदाई !

हाथ थाम लो पल भर को तुम
अधरों का कब सिलना हो
जाने  कब फिर मिलना हो !


बुधवार, जून 20

यदि मेरे हाथों में शासन की बागडोर हो


यदि मेरे हाथों में शासन की बागडोर हो

.....तो खोल डालूं पांच सितारा होटल के द्वार
उन निर्धन मजदूरों के लिये
जिन्होंने कड़ी धूप में तपकर खड़े किये थे
 वे गगनचुम्बी महल....

और दूर दराज के गावों में
जहाँ न सड़के हैं न बिजली
रहने को भेज दूँ मोटे-मोटे खादी धारियों को...

आलीशान बंगलों में
खाली पड़े हैं जो, सन्नाटा गूंजता है जहाँ
स्कूल और अस्पताल चलाऊँ
विवश हैं जो लम्बी कतारों में लगने को
उनको वहाँ दाखिला दिलाऊँ...

मिलावट करने वाले हों या कालाबाजारी
भेज दूँ उनको, उनकी सही जगह
और मेहनतकश, कर्मठ हाथों को
ईमानदारी से शुद्ध सामान बेचने में लगा दूँ...

जो भूल गए हैं ड्यूटी पर आना
ऐसे अध्यापकों, डाक्टरों, अधिकारियों या पायलटों को
रिटायर कर दूँ किसी भी उम्र में
और काम करने को आतुर लोगों की
रिटायरमेंट उम्र बढा दूँ जितनी वे चाहें....

जहरीली दवाएं और जहरीली खादें 
धरती को विषैला न बनाएँ
ऐसा फरमान निकालूं
विकलांग न हों जिससे
दूषित भोजन को खाकर और बच्चे...

टीवी पर आने वाले झूठे विज्ञापनों के जाल से
मुक्त करूं आम जनता को
बढ़ावा मिले योग और सात्विकता को
हर बच्चे की पहुँच हो
संगीत व नृत्य तक
पेड़ लगाना अनिवार्य हो जाये
हर बच्चे के जन्म पर....

विज्ञान के साथ-साथ
साहित्य पढ़ने वाले विद्यार्थी भी
उच्च पदों पर आयें
कलाविहीन मानव
पशु रूप में और न बढ़ने पाएँ...

गर्व हो अपनी संस्कृति पर ऐसे
मंत्री बनाऊँ
सरकारी ठेके की दुकानों पर दूध-लस्सी की
नदियाँ बहाऊँ...

ख्वाब तो यही है कि
न हो अन्याय किसी के साथ
हर किसी के पास हो
सम्मान से जीने का अधिकार... 

सोमवार, जून 18

एक रागिनी है मस्ती की


एक रागिनी है मस्ती की

एक ही धुन बजती धड़कन में
एक ही राग बसा कण-कण में,
एक ही मंजिल, एक ही रस्ता
एक ही प्यास शेष जीवन में !

एक ही धुन वह निज हस्ती की
एक रागिनी है मस्ती की,
एक पुकार सुनाई देती
दूर पर्वतों की बस्ती की !

मस्त हुआ जाये ज्यों नदिया
पंछी जैसे उड़ते गाते,
उड़ते मेघा सँग हवा के
बेसुध छौने दौड़ लगाते !

खुले हों जैसे नीलगगन है
उड़ती जैसे मुक्त पवन है,
क्यों दीवारों में कैद रहे मन
परम प्रीत की लगी लगन है !

एक अजब सा खेल चल रहा
लुकाछिपी है खुद की खुद से,
स्वयं ही कहता ढूंढो मुझको
स्वयं ही बंध कर दूर है खुद से ! 

शुक्रवार, जून 15

प्रतिबिम्बित होता वह हममें


प्रतिबिम्बित होता वह हममें


गीत मिलन के गाओगे गर
विरह का दुःख भी कट जायेगा,
उजले दिन की राह तको तो
घोर तमस भी छंट जायेगा !

संदेहों को गले लगाते
दुःख वीणा भी वही बजाते,
उर आशा, विश्वासी अंतर
बाधा पथ की हर ले जाते !

उस प्रियतम की हम छाया हैं
इक-दूजे पर सदा आश्रित,
प्रतिबिम्बित होता वह हममें
हमसे जुड़ने को है बाधित !

जो भेजे संदेशा उस तक
 वही लौटकर भी पायेगा,
क्यों न पाती प्रीत की लिख दें
भीतर कलरव बस जायेगा !

अपने ही भावों में रच दी
उसने जीवन गाथा सबकी,
जो चाहें फिर चुन ले आयें
राग प्रलय का, धुन जीवन की ! 

बुधवार, जून 13

तब भी तू अपना था


तब भी तू अपना था


तब भी तू अपना था
लगता जब सपना था,
दूर तुझे मान यूँ ही
नाम हमें जपना था !

चाहत कहो इसको
या घन विवशताएँ,
दोनों ही हाल में
दिल को ही फंसना था !

स्मृतियों की अमराई
शीतल स्पर्श सी,
वरन् विरह आग में
जीवन भर तपना था !

तेरी तलाश में
छूट गए मीत कुछ,
मिथ्या अभिमान में
पत्ते सा कंपना था !

पेंदी में छेद है
नजर मन पे पड़ी,
इसको भरते हुए
व्यर्थ ही खपना था ! 

मंगलवार, जून 12

जीवन में भर दिया सवेरा



जीवन में भर दिया सवेरा

जब-जब तुझे पुकारा दिल ने
छुपा हुआ था वहीं कहीं तू,
उस पुकार में ही दब जाती
होगी, तेरी मंद गुफ्तगू !

जब-जब सुख के पीछे दौड़े
सुखस्वरूप तू वही कहीं था,
उसी दौड़ से दूर निकल गए
क्या तू तब धीरे से हँसा था !

जब-जब अहंकार जगाया
तूने ही तो चूर किया था,
तुझसे दूर चले हम जाएँ
यह तुझको मंजूर नहीं था !

जब-जब भय का दानव जागा
सम्बल से तू ने ही भरा था,
हद से बढ़ी कामना जब-जब
दुःख देकर अज्ञान हरा था !

पल-पल भीतर जाग रहा था
जब-जब अलस प्रमाद ने घेरा
 खींच-खींच कर रहा जगाता
जीवन में भर दिया सवेरा !


गुरुवार, जून 7

मौन का उत्सव


मौन का उत्सव

ठठा कर हँसा वह
नजरें जो टिकीं थीं सामने
लौटा लीं खुद की ओर
और तभी गूंज उठा था सारा जंगल
उस मुखर अट्टाहस से....
ठिठक गए पल भर को
आकाश में गरजते मेघ
सुनने उस हास को
थम गया सागर की लहरों का तांडव
थमी थी जब वह हँसी
और भीतर मौन पसरा था
वहाँ कोई भी नहीं था
जैसे चला गया था कोई परम विश्राम को
अनंत समय बीता कि क्षणांश
कौन कहे
जब एक स्पंदन हुआ फिर
द्वार दरवाजे खुलने लगे
झरने लगे जिसमें से
सुगीत और आँच नेह की
जिसमें डूबने लगा था
सारा अस्तित्त्व
आज उसने स्वयं को उद्घाटित होने दिया था
अब महोत्सव की बारी थी..