शुक्रवार, मार्च 29

शाम अब ढलने लगी है



शाम अब ढलने लगी है


आसमां से चाँद झांके
इक चमकती गेंद जैसे रोशनी की
नील अम्बर पर खिला हो
पीतवर्णी पुष्प कोई...
गुलमोहर की पत्तियों से
देखता है खिलखिलाकर
तक रही है इस धरा से
इक कमिलिनी मुस्कुरा कर !
मौन में संवाद घटता
प्रकृति से उल्लास झरता
शाम अब ढलने लगी है
पंछियों का झुण्ड लौटे
कूजते अंतिम स्वरों को
रात्रि की गरिमा लपेटे
तिमिर बढता जा रहा है
कालिमा के पंख खोले  
नीड़ में विश्राम पाकर
फिर जगेंगे कल सुबह वे
सिमट अपने शावकों संग
आँख मूंदे सो गए जो
चहचहाते गीत गाते
दिवस भर जो उड़ रहे थे !

मंगलवार, मार्च 26

होलिका दहन से होली मिलन तक


होलिका दहन से होली मिलन तक



बासंती मौसम बौराया
मन मदमस्त हुआ मुस्काया,
पवन फागुनी बही है जबसे
अंतर में उल्लास समाया !

रंगों ने फिर दिया निमंत्रण
मुक्त हो रहो तोड़ो बंधन,
जल जाएँ सब क्लेश हृदय के
अगन होलिका की है पावन !

जली होलिका जैसे उस दिन
जलें सभी संशय हर उर के,
शेष रहे प्रहलाद खुशी का
मिलन घटे सबसे जी भर के !

उड़े गुलाल, अबीर फिजां में
जैसे हल्का मन उड़ जाये,
रंगों के बहाने जाकर
प्रियतम का संदेशा लाए !

सीमित हैं मानव के रंग
पर अनंत मधुमास का यौवन,
थक कर थम जाता है उत्सव
चलता रहता उसका नर्तन !

शनिवार, मार्च 23

एक बूंद मानव का देय



एक बूंद मानव का देय


रंगों की बौछार हो रही
पल-पल इस सुंदर सृष्टि में,
लाखों-लाखों रंग छिपे हैं
नहीं समाते जो दृष्टि में !  

सजा मंच है इक अनंत का
प्रकृति नटी दिखाती खेल,
जैसे कोई बाजीगर हो
क्षण-क्षण घटे तत्व का मेल !

अनल दमकता, रक्तिम लपटें
स्वर्णिम आभा, हँसीं दिशाएँ,
सतरंगी उर्मियाँ रवि की
कण-कण वसुधा का रंग जाएँ !

धरा गंध का कोष लुटाती
बहे सुवासित पवन पुष्प छू,
ध्वनियाँ कैसी मधुरिम गूंजें
खग कूजित मुखरित नभ भू !

है अनंत, अनंत का सब कुछ
एक बूंद मानव का देय,
उतना ही रिसता जब उससे
मिल जाता जीवन में श्रेय !

गुरुवार, मार्च 21

श्याम रंग में भीगा अंतर



श्याम रंग में भीगा अंतर


रंग डाला किस रंग में तूने
कान्हा रंग रसिया है मन का,
राधा रंगी थी मीरा जिसमें
हुआ सुवासित कण-कण तन का !

श्याम रंग में भीगा अंतर
भीगी मन की धानी चूनर,
कोरा जिसको कर डाला था
विरह नीर में डुबो डुबोकर !

जन्मों से से जो सूखा सा था
जैसे कोई मरुथल बंजर,
कैसे हरा-भरा खिलता है
श्याम रंग में रंग के अंतर !

एक डगर थी सूनी जिस पर
पनघट नजर नहीं आता था,
काँटों में उलझा था दामन
श्यामल रंग से न नाता था !

भर पिचकारी तन पे मारी
सतरंगी सी पड़ी फुहार,
शीतल पोर पोर हो झूमा
फगुनाई की बही बयार !

मंगलवार, मार्च 19

ठिठक गयी कोयल की कूक



ठिठक गयी कोयल की कूक


मुरझाई सी आम्र मंजरी
ठिठक गयी कोयल की कूक,
जाने कौन निगोड़ी आकर
गई कान में उसके फूँक !

कैसे घोलें रंग अनूठे
भीगा-भीगा सा मौसम है,
पिचकारी भी सहमी सी है
गुब्बारों पर बैन लगा है  !

नफरत के कुछ रंग डालते
कुछ दहशत आतंक बांटते,
कुछ को दौलत रंगी लगती
ताकत, सत्ता, रक्त मांगते !

ऐसे में क्या होगा फाग
लगी हुई है द्वेष की आग,
शायद होली उसे बुझाये
सोये हैं जो जाएँ जाग !

सोमवार, मार्च 18

होली है !


होली है !

लो फिर आ गया रंगों का त्योहार
उमंगों-तरंगों में डूबने का वार
पर न जाने किसने रोक रखी है भीनी फुहार
ललक नहीं दिखती गाल रंगाने की
कौन जहमत उठाये घंटों रंग छुड़ाने की
ऐसी होली तो पहले कभी आयी न थी
मुंहतोड़ कभी ऐसी महँगाई न थी
कैसे बनें गुझियाँ खोये में मिलावट नजर आती है
तेल के दाम चढ़े कड़ाही कहाँ अब चढ़ाई जाती है
माना कि रंगों में अब उतनी चमक नहीं है
रसायनों के कारण वह मीठी सी गमक नहीं है
पर फागुन क्या जाने दुनिया का व्यवहार
आ ही जाता है डोलते-डुलाते हर बार
मदमाती ऋतु पर किसी का बस नहीं चलता
होली मनवाये बिना फागुन नहीं ढलता...    

गुरुवार, मार्च 14

पांखुरी-पांखुरी मन खिलता है


पांखुरी-पांखुरी मन खिलता है


एक निर्झरी सी भावों की
जाने कहाँ से फूटी भीतर,
हटा पत्थरों की सीमा को
उमड़े ज्यों जलधार निरंतर !

जाने कहाँ छिपा रखा था
पाहन सा दिल भारी तो था,
जाने किसकी करे प्रतीक्षा
आखिर एक पुजारी तो था !

आज उमड़ ही आया अभिनव
इक सैलाब विमल अविरल सा
डूबे जिसमें संशय सारे
ज्यों संगम का तट निर्मल सा !

मीलों तक अब बिछा मोद है
सहज हुआ हर पल मिलता है,
जैसे नभ में तिरते पंछी
पांखुरी-पांखुरी मन खिलता है !

एक ही जीवन, एक ऊर्जा
विष भी वही, वही है अमृत,
मिल जाती पगडंडी सच की
नहीं सुहाए जिसको अनृत !


सोमवार, मार्च 11

महाकुम्भ के समापन पर



महाकुम्भ के समापन पर

कल-कल छल-छल बहती गंगा
यमुना जिसमें आ कर मिलती,
यही त्रिवेणी है प्रयाग की
छुपी है जिसमें सरस्वती !

इस अति पावन तीर्थराज में
कुम्भ पर्व की शोभा न्यारी,
हरिद्वार, नासिक, प्रयाग में
तब उज्जैन की आती बारी !

देव उतर आते हैं भू पर
सूर्य, चन्द्र, गुरु भी मिलते,
घुल जाता है मानो अमृत
लाखों अंतर भाव से खिलते !

सूर्य मकर राशि में  होता
दिग दिगांतर हुए प्रफ्फुलित,
आए दूर से जन सैलाब
श्रद्धा के हों दीप प्रज्ज्वलित !

भगवद गाथा संत सुनाते
अद्भुत साधुजन आते हैं,
नव इतिहास गढ़ा जाता है
मिल कर सारे कुम्भ नहाते !

एक अजूबा है धरती का
 भारत भू का पर्व निराला,
नागा साधुओं के अखाड़े
इक तिलस्म सा ज्यों रच डाला 

शनिवार, मार्च 9

महाशिवरात्रि के अवसर पर शुभकामनाओं सहित



शम्भो शंकर हे महादेव


शूलपाणि, हे गंगाधर, हे महादेव, औघड़ दाता
हे त्रिपुरारी, शंकर शम्भो, हे जगनायक, जग के त्राता !

हे शिव, भोले, मृत्युंजय हे, तुम नीलकंठ, जटाधारी
हो आशुतोष, अनंत, अनादि, हे अडोल, नागधारी !

 हे अंशुमान, त्रिनेत्रधारी, अभयंकर, हे महाकाल
विश्वेश्वर, हे जगतपिता, हे सुंदर आनन, उच्च भाल !

कैलाशपति, हे गौरीनाथ, हे शक्तिमान, डमरू धारी
हे महारूद्र, काल भैरव, तुम भूतनाथ, गरल धारी !  

हे शार्दूल, हो तेजपुंज, हे सर्वेश्वर, नन्दीश्वर हे
त्रयम्बक, पशुपतिनाथ, हे आदिदेव हर हर हर हे !

हे विरूपाक्ष, निराकार, हे महेश, चन्द्रशेखर
सदाशिवं, हे चिदानंद, विशम्भर, हे शैलेश्वर !

भस्म विभूषित, करुणाकर, प्रलयंकर, सुंदराक्ष
हे विश्वात्मा, तुम जगतबीज, ताण्डवकर्ता, हे नटराज !  

महेश्वरा, त्रिभुवन पालक, काशीनाथ हे जगदीश्वर
नमोः नमः हे शम्भुनाथ, नमोः नमः हे सोमेश्वर !

तुम बहाते ज्ञान गंगा, मौनधारी तत्व हो तुम
हे अडोल पर्वत जैसे, कैलाश पति अमृत हो तुम !

विमल तुम्हारा मन भी, ज्यों शुभ्र श्वेत धवल हिम
अंतर्ज्योति से जलते भीतर, आकार है ब्रह्मांड सम !

गुरुवार, मार्च 7

विश्व महिला दिवस पर ढेर सारी शुभकामनाओं के साथ


स्त्री विमर्श

स्त्री, स्त्री है उसके पूर्व मानवी है
मानव होना भूल गए हैं आज हम
देह मात्र नहीं है मानव
मनन ही बनाता है मानव को मानव....पर
मनन करने की फुरसत किसे है आज..
दौड़ते हैं सुबह से शाम तक
मायावी स्वप्नों के पीछे
न समय है प्रकृति के सान्निध्य में वक्त गुजारने का
न अपने भीतर झाँकने का..
उपभोक्ता बनकर गिर गया है मानव अपनी गरिमा से
चाहे पुरुष हो या स्त्री...
और...समय काटने को ही नहीं क्या
  उछाल देते हैं कोई न कोई नारा...
छेड़ देते हैं कोई विवाद
और घिर जाते हैं स्वयं भी उसी के घेरे में..
मुक्ति चाहती है स्त्री
उठा था यह नारा पश्चिम में
उठा था किन्तु हजारों वर्ष पूर्व भारत में भी
मुक्ति चाहता है मानव
मुक्ति किससे ?
अपनी भीरुता से, अज्ञान से, अशिक्षा से,
मुक्ति प्रमाद से, जड़ता से, रूढियों से..
भला कौन नहीं चाहता ऐसी मुक्ति
पर नहीं...नारों में खो जाते हैं मूल प्रश्न
कोई नहीं सोचता इस मूल मुक्ति की बाबत...

तथाकथित मुक्ति मिली भी तो नारीत्व से...
जो उसका गौरव था
प्रेम, सहिष्णुता, और समर्पण
उसकी कमजोरी नहीं थी
यही थी उसकी गरिमा..
लेकिन प्रेम को तिलांजलि दे
पुरुष विहीन जीवन को अपनाने वाली स्त्री
क्या एकांगी नहीं होती गयी..
हाँ...देखा है मैंने भी दादा को चिल्लाते हुए
दादी पर, जो चुपचाप सुन लेती थी सिर झुकाए ..
बाद में हंसकर बताते
वे काबू नहीं रख सकते गुस्से पर, जैसे मैं रख सकती हूँ
और यह भी कि कठिन परिस्तिथियों में
बनीं थीं सम्बल साथ निभाया दादा का हर हाल में...
देखा है पुत्र का फोन न आने पर करवटें बदलते पिता को
श्रम से कमाई धन राशि को
थमा देते पति को पत्नी के हाथों...
लाकर देते अच्छी पुस्तकें एक दूसरे को  
ताकि ज्ञान का प्रकाश पा सकें
कर सकें अपनी ऊर्जा, समय का सदुपयोग
ऐसे जोड़े जो सहभागिता का जीवन जीते हैं..
अस्तित्त्व में दो नहीं हैं स्त्री और पुरुष
जीवन रथ के दो पहिये
आश्रित हैं एक दूसरे पर
साहस, बल व उदारता जहाँ आभूषण हैं मानवीयता के
वहाँ कैसे कोई भेद करेगा कि ये मिलते हैं
स्त्री हृदय में या पुरुष हृदय में..

स्त्री होने का सुख चाहती हैं जो
वे साथ आयी जिम्मेदारियों से
मोड़ सकती हैं कैसे मुँह..
क्यों कोई माँ या दादी नवजात पुत्री को नहीं
स्वीकारती उसी चाव से ...
क्यों ईर्ष्या की आग में जलने लगती हैं
एक ही पुरुष के लिये चाहे वह उनका प्रिय क्यों न हो..
क्यों नहीं कचोटती उनकी आत्मा
निरीह बालिका से घर का काम कराते
बिना माथे पर शिकन डाले भर लेती हैं झोली
पिता की मेहनत की कमाई दहेज के नाम पर
क्यों नहीं पूछतीं सवाल पति के बेहिसाब लाए पैसों का
दहेज के नाम पर जलाई जाती हैं स्त्रियां
क्या घर की स्त्रियों का नहीं होता उसमें हाथ
प्रदर्शन करना देहयष्टि का..
महंगे जेवरों व साड़ियों का
लगता है क्यों जरूरी...
क्यों नहीं करतीं विरोध
अपने आसपास होती नोच-खसोट का
चाहे वह पर्यावरण के प्रति हो या मानव के प्रति..
आजादी का अर्थ खुलेआम सिगरेट या शराब पीना तो नहीं
आधी रात तक डिस्को में नाचना भी नहीं
बिताना बहुमूल्य समय को
उबाऊ धारावाहिकों को देख आंसू बहाने में
या किटी पार्टियों में एक दूसरे को नीचा दिखाने में..

सही है कि नहीं आँख मूंद सकते हम
स्त्रियों पर होता है अत्याचार
 घरेलू हिंसा का होती हैं शिकार
सहती जाती हैं मूक हुई निराधार
नहीं..शक्ति उन्हें भीतर जगानी होगी
अपनी इज्जत, अपने सम्मान की डोर
अपने हाथों में थमानी होगी
पुरुष जैसी होकर नहीं स्वयं होकर
ही यह कीमत चुकानी होगी
स्त्री, स्त्री होकर कर सकती है जो
आधा अधूरा पुरुष होकर नहीं ...
वह उसके विपरीत जायेगा
 वह लड़ेगी अपने आप से और हारेगी
उसकी जीत नहीं है पुरुष होने में...
और न ही अपनी पहचान खोने में
उसकी असली जीत तो पूर्ण स्त्री होने में है

 स्त्री विमर्श का अर्थ है
जागरूक होना स्त्री का अपने प्रति..
परिवार के प्रति..समाज के प्रति
इसके नाम पर भ्रमित ही होती आ रही है स्त्री..
एक होना चाहता है हर मानव
अपने भीतर के आधे सच से
हरेक के भीतर सोया है एक विपरीत लिंग...
वही पूर्णता है
उसी की तलाश है...
अर्ध नारीश्वर की अमूल्य खोज
जगत को देने वाले इस देश में
हास्यास्पद जान पड़ती है स्त्री विमर्श की बात
यदि पानी है स्त्री को अपनी गरिमा
तो जगाने होंगे मानवीय मूल्य भीतर
रचनी होंगी नई परम्पराएँ भय को मिटाकर
जहाँ दोनों मित्र हों, प्रतिद्वंद्वी नहीं
पूरक हों एक दूजे के विरोधी नहीं
लड़ाई लंबी है पर लड़ाई अज्ञान के विरुद्ध है
जिससे पिसते पुरुष भी हैं सताए वे भी जाते हैं
अशिक्षा का दानव उन्हें भी खा रहा है
पर जागना होगा अपने अधिकारों के प्रति 
तभी लायेंगी सुखद आशा, नव निर्माण की
भविष्य की संतानें.....