गुरुवार, अप्रैल 30

अलविदा इरफ़ान

अलविदा इरफ़ान 

जब हजारों जीवन ज्योतियाँ रोज बुझ रही हों 
महामारी ने मजबूती से अपने पैर पसार लिए हों विश्व में 
दूर तक छाए हों अनिश्चय के बादल 
तो मन उम्मीद के सहारे स्वयं को संभाले रहता है 
गाता है आशा के गीत 
नकार देना चाहता है मृत्यु की आती हुई हर आहट
और दूर कहीं सो जाती हुआ जिंदगियों से 
उसका नाता ही नहीं बनने देता 
पर जब एक कोई अपना चला जाता है जहान से 
जिसकी आँखों में झाँका था 
जिसकी मुस्कान को सराहा था 
जिसके दर्द को महसूस किया था 
जिसकी सादगी और दिल की साफगोई पर 
कुर्बान हुए थे 
जो कभी खलनायक होकर भी नायक पर भारी था 
उस कलाकार की मौत पर 
सभी गमगीन नजर आते हैं 
हम उन्हीं के लिए अश्रु बहाते हैं 
जिनसे बन जाते दिल के नाते हैं !

बुधवार, अप्रैल 29

जिस दिन लिखने को कुछ शेष न रहे

जिस दिन लिखने को कुछ शेष न रहे 

जिस दिन लिखने को कुछ शेष न रहे 
कहने को कोई शब्द न मिले 
नत मस्तक हो जाना ही होगा 
उस अनाम के आगे 
जो परे है वाणी के 
मौन में वह स्वयं का पता दे रहा है 
हमसे हमारा ‘अहम’ ले रहा है 
जो निःशब्द में सहज ही मिलता है
शब्दों के अरण्य में खो जाता है 
जैसे खो जाती है सूर्य किरण घने वनों में 
जहां वृक्षों की शाखाएँ सटी हैं इस तरह 
कि सदियों से नहीं पहुँची सूर्य की कोई किरण 
नहीं छुआ वहां की माटी को अपने परस से 
जहाँ काई और नमी में डेरा बना लिया है 
कीट-पतंगों ने 
मन में शब्दों का जमघट ‘उसे’ आने नहीं देता 
जो सदा ही उजास बनकर आसपास है 
इस सन्नाटे में उसी से भरना होगा मन का कलश 
और छलक-छलक कर वही रिसेगा 
भर जायेगा कण-कण में तन के 
ऊर्जा की एक लहर बन कर समो लेगा जब 
यह सत्य तभी स्पष्ट होगा कि 
एक लहर के सिवा क्या हैं हम ....? 

मंगलवार, अप्रैल 28

तू ही दाता

तू ही दाता


‘देने’ को कुछ न रहा हो शेष 
जब आदमी के पास 
तब कितना निरीह होता है वह ! 

देना ही उसे आदमी बनाये रखता है 
मांगना मरण समान है 
खो जाता जिसमें हर सम्मान है !
देना जारी रहे पर किसी को मांगना न पड़े 
ऐसी विधि सिखा रहा आज हिंदुस्तान है !

पिता जैसे देता है पुत्र को 
माँ  जैसे बांटती है अपनी सन्तानों को 
उसी प्रेम को भारत के जन-जन में प्रकट होना है 
ताकि ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ मानन वाली इस संस्कृति की 
बची रहे आन,आँच न आए उसे !

जहां अनुशासन और संयम 
केवल शब्द नहीं हैं शब्दकोश के 
यहां समर्पण और भक्ति
 कोरी धारणाएं नहीं हैं 
यहां परमात्मा को सिद्ध नहीं करना पड़ता 
वह विराजमान है घर-घर में 
कुलदेवी, ग्राम देवी और भारत माता के रूप में !

सोमवार, अप्रैल 27

हम और दुनिया

हम और दुनिया 


हम जैसे हैं, 
वैसे ही स्वीकार करे दुनिया 
चाहते हैं हम, 
क्योंकि बदलना हमें भाता नहीं 
इसमें श्रम लगता है, खुद को तराशना पड़ता है 
जो हमें  आता नहीं !
अपनी भूलें भी सहज लगती हैं 
आखिर वे किसी का क्या बिगाड़ती  हैं ?
पर... दुनिया को तो बदलना होगा 
हमारी ख्वाहिश यही है !
वहां असत्य है ( जैसे कि हम सत्य के अवतार हैं )
वहां अन्याय है ( हम तो न्याय के पुजारी हैं )
वहां अधर्म है ( जैसे कि हम धर्म का पाठ पढ़कर ही जन्मे थे )
वहाँ हमें कोई समझता नहीं (जैसे हमने हर किसी को समझने का प्रयास कर ही लिया है )
हम स्वीकारते हैं स्वयं को सारी भूलों सहित 
तो क्यों न स्वीकार लें जगत को जैसा वह है !
परमात्मा हर जगह उतना ही समाया है 
जिसे वह कमल और कीचड़ दोनों में नजर आया है 
वह जानता है
 कमल खिल नहीं सकता बिना कीचड़ के 
हाँ, उससे ऊपर उठता है जो 
वह यह राज देख पाता है 
धर्म-अधर्म दोनों के परे जाकर ही 
कोई उस एक से जुड़ पाता है !

रविवार, अप्रैल 26

भेद - अभेद

भेद - अभेद 


शब्दों को मार्ग दें तो वे 
भावनाओं के वस्त्र पहन 
 बाहर चले आते हैं 
यदि राह में कण्टक न हों 
बेहिसाब इच्छाओं के 
प्रमाद के पत्थर न रोक लें उनका मार्ग 
तो विमल सरिता से वे बहते चले आते हैं 
धोते हुए अंतर्जगत 
और बाहर भी उजास फैलाते हैं 
शब्दों में छुपा है ऋत
और वाग्देवी ने उन्हें तराशा है 
मानव के पास अस्तित्त्व का 
अनुपम उपहार उसकी भाषा है 
इन्हें मैला न होने दें  
इन्हें तोड़ने का नहीं जोड़ने 
का साधन बनाएं 
मानवता को सुलाने के लिए लोरी न बनें ये 
इनमें क्रांति की चिंगारी सुलगाएँ
कि गिर जाएँ मिथ्या दीवारें 
खो जाएँ सारे भेद 
एक गुलदस्ते की तरह 
नजर आये दुनिया 
घटे अभेद !

शनिवार, अप्रैल 25

एक है दूजे के लिए

एक है दूजे के लिए 

सूरज जलता है, तपता है 
ताकि जीवन की ज्योति जले धरा पर !
धरती गतिमय है रात-दिन 
बिना क्लांत हुए 
ताकि मौसमों का आना-जाना लगा रहे !
जब वह निकट हो जाती है सूर्य के 
ग्रीष्म की हवाएँ बहती हैं 
दूर हो जाती है तो पर्वतों पर 
बहने लगते है हिम के झंझावात 
मौसम बदलते हैं 
ताकि हरियाली और जीवन खिलता रहे !
हरे-भरे चारागाह भोजन देते हैं 
पशुओं को 
 वनस्पति और प्राणी एक-दूसरे के लिए हैं !
पर समय की धारा में 
जाने कब ऐसा हुआ कि
मानव जीने लगा
 मात्र अपने लिए ! 

शुक्रवार, अप्रैल 24

कृष्ण

कृष्ण 


कृष्ण कहते हैं 
जीवन एक यज्ञ है 
इसे युद्धक्षेत्र मत बनाओ 
किन्तु यदि कोई चारा न हो 
तो अपने-अपने गांडीव उठाओ !

कृष्ण की आँखों से जग को देखें 
तो कुरुक्षेत्र, यज्ञक्षेत्र ही नजर आता है 
यहां आहुति दे रहे हैं सभी 
अपने-अपने हिस्से की 
 अपने लिए नहीं हर 
युद्ध औरों के लिए लड़ा जाता है 

निज सुखों की आहुति देकर 
आज भी लड़ रहे हैं सैनिक 
कुछ सीमाओं पर कुछ अस्पतालों में 
सड़कों पर और मोहल्लों में 
जिन्हें रोक नहीं पाता
मृत्यु का भय 
कर्त्तव्य का पालन करते हुए यहाँ
हर रोज एक-एक कदम आगे बढा जाता है !

गुरुवार, अप्रैल 23

घर पर ही रहें

घर पर ही रहें


जिंदगी गणित के सूत्रों से नहीं चलती 
एक छोटा सा वायरस 
जो छुपा है एक आदमी में 
अनेक आदमियों में फैल सकता है 
एक वायरस... 
सारे गणित को फेल कर रहा है 
जो ग्रस लेता है 
पूरे परिवार को देखते-देखते 
वायरस ने आपको छुआ है या आपने उसे 
पता भी नहीं चलने देता 
आप मुस्कुराते-मुस्कुराते मिल लेते हैं चंद लोगों से 
या रख देते हैं अपना रुमाल मेज पर 
जो बन चुका है जैविक हथियार 
अनजाने में जो भी उठाएगा 
वह भी धोखे में आ जायेगा 
एक दिन आपका माथा तपता है 
आप अस्पताल चले जाते हैं 
वहां भी यदि नही रहे सचेत तो
सरक जाते हैं कुछ वायरस स्वास्थ्य कर्मी या नर्स पर 
... या कभी डॉक्टर पर 
अनजाने में आप बन चुके हैं वाहक 
भगवान न करे कभी ऐसा घटे  
इसीलिए घर पर ही रहें  ! 

बुधवार, अप्रैल 22

पालघर

पालघर 

जो घर है और जो पालता है 
वहाँ नरभक्षी घुस आये हैं 
जिनसे भयभीत हैं जनता के रक्षक भी 
सुना है 
रावण ऋषि-मुनियों को मरवाया करता था 
निरीह साधुओं पर यह घिनौना अत्याचार 
शायद लौट आयी है 
वही अपसंस्कृति और आसुरी अनाचार 
जहाँ मनों में सद्भाव शेष न रहा हो 
जहाँ साधुओं के प्रति अनास्था का विष घोला जा रहा हो 
जहां मानवता की शिक्षा भी लुप्त हो गयी 
वह समाज कैसे सफल हो सकता है 
गांव जो आश्रय देते थे कभी 
अजनबियों को 
शक की निगाह से देखने लगे हैं अपनों को 
जहाँ जलाया जा रहा हो 
बापू के सपनों को 
जानना होगा उस भीड़ का अभिप्राय 
जो लॉक डाउन में आधी रात को 
बाहर निकल आ जाती है 
केवल संदेह की बिना पर जानवरों की तरह 
घात लगाती है 
किसने भरा
 यह अविश्वास उनके मनों में 
क्यों घेर लिया निरीह यात्रियों को 
क्रोध से अंधे हुए इन आदिवासी जनों ने 
रक्षक भी बेबस हुए देखते रहे 
पालघर में हिंसा के खेल चलते रहे !

मंगलवार, अप्रैल 21

राम

राम  

ग्रीष्म-शीत आते औ' जाते, 
सदा वसन्त राम अंतर में, 
संध्या के स्वर सदा गूँजते 
रात्रि-दिवस की हर बेला में !

कोना-कोना होता गुंजित 
कोकिल के मधुरिम गीतों से,
सदा महकता उर का उपवन 
ब्रह्म कमल की मृदु सुगन्ध से !

समता का शुभ अनिल विचरता 
रस की खानों से मधु रिसता,
शशधर की शीतल आभा से 
भीगा हुआ प्रेम भी झरता !

उर सरिता के ठहरे जल में 
प्रातः अरुण निज मुखड़ा धोता,
दिन भर विचरण करता नभ में 
 आ पुनः वहीं विश्रांति पाता  !

सोमवार, अप्रैल 20

कौन हैं वह

कौन हैं वह 

सिंह जैसा शौर्य पाया है 
माँ जैसी करुणा अंतर में, 
 धैर्य धरे दृढ चट्टानों सा
प्रामाणिकता है शब्दों में ! 

अन्याय कभी सहन न होता  
दीनों की रक्षा हित आए,
सारे जग में डंका बजता
दोष शत्रु भी ढूंढ न पाए !

जन-जन को आधार दिया है 
भारत का सम्मान बढ़ाया,
लेने पड़े कठोर निर्णय पर 
मस्तक पर इक बल न आया !

कर्मठ जैसे वीर योद्धा
प्रहरी सजग समर्पित सेवक, 
कौन बखाने व्यक्तित्व महान 
निज स्वार्थ को आये तजकर !

उर में जग कल्याण भावना 
सारा जग ही लोहा माने, 
आशा भरी हुई नजरों से 
जैसे उनकी ओर निहारे !



रविवार, अप्रैल 19

साया बनकर साथ सदा है

साया बनकर साथ सदा है

 

कोई अपनों से भी अपना 
निशदिन रहता संग हमारे,
मन जिसको भुला-भुला देता 
जीवन की आपाधापी में !

कोमल परस, पुकार मधुर सी 
अंतर पर अधिकार जताता,
नजर फेर लें घिरे मोह में 
प्रीत सिंधु सनेह बरसाता !

साया बनकर साथ सदा है 
नेह सँदेसे भेजे प्रतिपल,
विरहन प्यास जगाये उर में 
बजती जैसे मधुरिम कलकल  ! 

जगो ! वसन्त जगाने आया 
कोकिल गूंज गूंजती वन-वन,
भरे सुवास पुष्पदल महकें 
मदमाता सा प्रातः समीरण !

जागें नैना मन भी जागे
चेतनता कण-कण से फूटे,
मेधा जागे, स्वर प्रज्ञा के 
हर प्रमाद अंतर से हर ले ! 

अखिल विश्व का स्वामी खुद ही 
रुनझुन स्वर से प्रकट हो रहा,
भू से लेकर अंतरिक्ष तक
कैसा अद्भुत नाद गूँजता ! 

कान लगाओ, सुनो जागकर 
वसुधा में अंकुर गाते हैं,
सागर की उत्ताल तरंगे 
नदियों के भंवर भाते हैं !

शनिवार, अप्रैल 18

देव और मानव


देव और  मानव 


कोटि-कोटि ब्रह्मांडों के सृजन का 
जो है साक्षी 
अरबों-खरबों आकाश गंगाओं की रचना का भी 
जिसके सम्मुख प्रतिक्षण
 जन्मते और नष्ट होते हैं लाखों नक्षत्र 
वही जो कहाता है महानायक ! 
शिव ! तांडव नर्तक !

इस अपार आयोजन का
 एक नन्हा सा अंश है वसुंधरा 
 सागरों, वनों, पशु-पंछियों संग 
जिस पर मानव उतरा
सृष्टि चालन में शिव का सहायक 
चाहता तो देव बन सकता था मानव 
किन्तु काल की इस अनंत धारा में 
बहता हुआ हो गया वह दानव !

स्वयं को शक्तिशाली समझ 
अन्य जीवों के प्राणों की कीमत पर 
दुर्बलों पर बल प्रयोग कर 
अंतहीन क्षुधा को 
तृप्त करने हेतु 
धरा का किया निरंकुश दोहन 
हिंसा की प्रवृत्ति को बढ़ावा दिया 
कर अनवरत युद्धों का आयोजन !

कृषकों से भूमि छीनी 
बच्चों के मुख से दूध 
प्रसाधनों के लिए 
निरीह पशुओं को सताया 
 लोभ की पराकाष्ठा हुई अब 
अपरिमित साधन सिमटते ही जाते  
हजारों आज भूखे ही सो जाते 
अब मौसम भी अपने समय पर नहीं आते 
समय रहते चेत जाये 
इसी में उसका भविष्य समाया है 
सृष्टि का वह रखवाला सचेत करने आया है !


शुक्रवार, अप्रैल 17

इक राह नई चुननी है

इक राह नई चुननी है 


इक राह नई चुननी है 
रक्षित दुर्ग बनाना है, 
इस अनजाने दुश्मन से
सबको ही बचाना है !

धीरज की बाँह पकड़कर 
सहना है हर अनुशासन ,
मन ना कोई विचलित हो
 शुभ संदेश सुनाना है !

थोड़े में गुजारा हो 
मिल बांट के हम खाएँ,
कोई भी अकेला हो 
उसे ढूंढ के लाना है !

मीलों की भले दूरी 
दिल से नहीं दूर रहें, 
करुणा जगे अंतर में 
यही फूल खिलाना है !

गुरुवार, अप्रैल 16

संकल्प से सृष्टि

संकल्प से सृष्टि 


संकल्प से सृष्टि का निर्माण होता है 
इस सूत्र को अक्सर भुला देते हैं हम 
और स्वयं ही कर बैठते हैं 
संकल्प अनिष्ट का !
हमारी प्रार्थनाएं भी हमारे भय से उपजी हैं 
हे ईश्वर ! कहीं ‘कुछ’ हो न जाये !!
और वह ‘कुछ’ हमारे मनों में स्पष्ट होता जाता है 
फिर एक दिन धर लेता है मूर्त रूप  
‘कंटेजियन’ जैसी फ़िल्में 
मनों में आशंका के बीज बोती हैं 
सभी हॉरर कहानियां भय को जगाती हैं 
और एक दिन वह फलीभूत होता है 
अस्तित्त्व हमें वही लौटाता है 
जो हम मांगते हैं 
जीवन सुंदर है, कहीं नहीं है कोई अन्याय 
दूर हो रही हर विषमता…
 ऐसे संकल्प कौन उठाता है ?
बच्चे बिगड़ रहे हैं... कहते-कहते वे बिगड़ ही जाते हैं 
हमने जाने-अनजाने जो भी चाहा है 
वही अपने इर्द-गिर्द पाया है 
ज्ञान, इच्छा, क्रिया का सही संतुलन 
मानव को नहीं आया है  !


बुधवार, अप्रैल 15

उतर आये हैं वे सड़कों पर


 उतर आये हैं वे सड़कों पर 


छा गयी  है जैसे भय की इक विशाल बदली 
आस का सूरज कहीं नजर नहीं आता  
अनिश्चितता के इस वातावरण में 
आशंकाओं के दंश चुभते ही जाते हैं 
खाली हाथ, क्षुधा से पीड़ित, मनों में चिंता 
मजदूरों की रोजी ही नहीं  छिनी 
छिना है उनके जीवन का आधार 
उनका आत्मसमान, 
अपने हाथों से कमा कर खाने का सुख
उनके सपने 
परिवार के स्नेह से वंचित परदेस में
वे जी रहे थे जिस श्रम के बलबूते 
वही छिन गया है...
उनके जीवन का 
सहज मार्ग ही जैसे छूट गया है !
मजबूर होकर ही शायद 
वे उतर आये हैं सड़कों पर 
मिलकर उन्हें थामना होगा 
इससे पहले कि वे धैर्य छोड़ दें 
मालिक मजदूर का नाता तोड़ दें 
उनका देय उन्हें देना होगा  
झाँकना होगा उनके मनों में 
भीतर जितनी आशंका होगी 
बाहर उतनी दूरी बढ़ेगी 
उन्हें बताना होगा, यह लड़ाई लंबी है 
बदले हुए हालात में वे भी एक सैनिक हैं 
उन्हें सहन होगा यह दर्द 
जीवन के लिए, देश के लिए 
परिवर्तन आएगा, इतना तो तय है !


मंगलवार, अप्रैल 14

उर दर्पण में उसको देखा

उर दर्पण में उसको देखा 


उर दर्पण में ‘उसको’ देखा 
‘उसको’ यानि स्वयं को देखा,
आश्वस्ति की लहर छू गयी
जब-जब भीतर जाकर देखा !

पहले-पहले गहन बवंडर 
झंझावात बहुत उठेंगे, 
अनजाने रस्तों पर मन के 
बीहड़ कंटक पाहन होंगे !

लेकिन दूर कहीं से कोई 
झरने की कल-कल भी आती, 
कभी किसी पंछी की कुह-कुह
मधुरिम कोई प्यास जगाती !

निकट कहीं ही वह बसता है 
श्रद्धा दीप न बुझने पाए, 
बढ़ता रहे निरन्तर राही 
मंजिल इक दिन सम्मुख आए !

एक झलक जो भी पा लेता 
जग में नहीं अजनबी रहता,
पर्वत नदिया बादल उपवन 
सबसे दिल का नाता बनता ! 

कुदरत से संघर्ष नहीं हो 
मानव उसका एक अंश है, 
माँ से दूर गया हो बालक 
चुभता उर में सदा दंश है !

अवसर एक हाथ आया है 
अंबर से हम नाता जोड़ें, 
धरती पर जब पाँव धरें तो 
माँ कहकर ही नमन भी करें ! 

सोमवार, अप्रैल 13

आशा ज्योति जलानी है

आशा ज्योति जलानी है


खेतों में झूम रही फसलें 
कोई भंगड़ा, गिद्दा, न डाले,  
चुप बैठे ढोल, मंजीरे भी
इस बरस बैसाखी सूनी है !

यह किसकी नजर लगी जग को 
नदियों, सरवर के तट तकते, 
नहीं आचमन न कोई डुबकी 
यह कैसी छायी उदासी है !

बीहू का उत्सव भी फीका 
कदमों को किस ने रोका है,
आया 'पहला बैसाख'  लेकिन  
कोई जुलूस ना मेला है !

केरल में विशु गुमसुम मनता
यह कैसा सन्नाटा छाया, 
संशय के बादल हों कितने  
पर आशा ज्योति जलानी है !


रविवार, अप्रैल 12

अमर आत्मा का सुगीत फिर


अमर आत्मा का सुगीत फिर 


हम अनुशासन पर्व मनाएं 
भारत की अस्मिता बचाएं,
अमर आत्मा का सुगीत फिर 
मिलकर गोविन्द संग गायें !

मृत्यु से नहीं डरे भारती 
गीत प्रलय के नित्य सुनाएँ,
आज उसी गौरव गाथा को 
निज शक्ति से फिर दोहराएं !

युग परिवर्तन का चले यज्ञ  
दे आहुति कर्त्तव्य निभाएं, 
बार-बार इस भू पर लौटें 
मात प्रकृति को शीश झुकाएँ  !

आयु दीर्घ हो यही न माँगें 
भीतर गहरा बोध जगाएं, 
आत्मशक्ति का करें जागरण 
घर-घर दीपक योग जलाएं !

अनुशासन का पालन करके 
दुनिया को नव मार्ग सुझाएँ, 
भारत की संस्कृति अपूर्व है 
इस सच को जीकर दिखलाएँ !


शनिवार, अप्रैल 11

आकर ही रहता है प्रभात

आकर ही रहता है प्रभात


हमें आकाश से उतारा गया 
सड़कों से भगाया गया 
रेल, बस, कार, साईकिल सभी हुए वर्जित 
बाजार, मॉल, थियेटर से किये गए निष्कासित 
किया गया कैद अपने ही घरों में 
निर्वासित हुए हम नगरों, गाँवों से 
थम गए हैं घर-आंगन में कदम 
जिसकी कद्र करना भूल गए थे हम 
बन गया था जो 
केवल एक रात्रि आश्रय स्थल 
जहाँ से भागा फिरते थे, ढूंढते कुछ राहत के पल  
आदत हो गयी थी शहर-शहर घूमने की
पर्यटन स्थलों पर कितनी भीड़ जमा कर दी 
हमने घरों को साफ रखा 
पर बाजारों को गंदा किया 
पहाड़ों को मैला किया 
नदियों, जंगलों की नैसर्गिकता को हर लिया 
हमने धन को विलासता में उड़ाना चाहा
पर प्रकृति कुछ और ही चाहती थी 
उसने हमें सत्य से अवगत कराया 
हमें अपनी सीमा दिखाई 
लाखों बेघरों की मजबूरी से मिलवाया 
अपने ही देश में पनप रही 
दकियानूसी सोच से रूबरू करवाया 
स्वच्छता की नई परिभाषा सिखाई 
जीने की नई राह दिखाई 
परिवार को जोड़ने का मन्त्र दिया 
एक सुखमय सादी जीवनशैली का सूत्र दिया 
माना कोरोना ने छीन लिया है मानवता से बहुत कुछ 
थोड़ा सा लौटाया भी है 
मेडिकल प्रोफेशन को सम्मान खोया हुआ 
पुलिस को एक नए अवतार में प्रस्तुत किया 
केंद्र व राज्यों में एका सिखाया 
देशवासियों को  एक सूत्र में बाँधा 
अभी लड़नी है एक लम्बी लड़ाई 
नई ऊर्जा और विश्वास के साथ 
अँधेरा कितना भी घना हो 
आकर ही रहता है प्रभात !


शुक्रवार, अप्रैल 10

गीत यह अनमोल

गीत यह अनमोल

मीरा ने गाया था कभी गीत यह अनमोल लीन्हा री मैंने कान्हा.. बिन मोल ! कोई कृत्य जहाँ नहीं पहुँचता न कोई वाणी कोई पदार्थ तो क्या ही पहुँचेगा उस लोक में है जहाँ का वह वासी आज भी वह मिल रहा है अमोल ! क्यों उस निराकार को आकार दे नयन मुंद जाते हैं उस निरंजन को हम हर रंज में आवाज देते हैं वह जो है सदा हर जगह खो गया मानकर उसे पुकारते हैं ! जब तन अडोल हो और मन शून्य तब जो भीतर सागर सा गहरा और अम्बर सा विशाल कुछ भास आता है उसके पार ही वह प्रतीक्षारत है कुछ करके नहीं कुछ न करके ही, यानि बिन मोल उसे पाया जाता है वहाँ हमारा होना उसके होने में समा जाता है !

गुरुवार, अप्रैल 9

नींद


नींद 


कल रात फिर नींद नहीं आयी 
नींद आती है चुपचाप 
दबे पावों... और कब छा जाती है 
पता ही नहीं लगने देती 
कई बार सोचा 
नींद से हो मुलाकात 
कुछ करें उससे दिल की बात 
प्रतीक्षा ही प्रतीक्षा थी 
उसके आने की कहीं दूर-दूर तक आहट नहीं थी 
नींद आने से पहले ही होश को सुला देती है 
स्वप्नों में खुद को भुला देती है 
कभी पलक मूँदते ही छा जाती है खुमारी 
अब जब करते हैं उसके स्वागत की तैयारी
तो वह छल करती है 
वही तो है जो रात भर तन में बल भरती है 
चहुँ ओर दौड़ते मन को चंद घड़ी देती है विश्राम 
जहाँ इच्छाओं का जमावड़ा बना ही रहता है 
कोई न कोई अड़ियल ख्याल खड़ा ही रहता है 
जहाँ विचारों के हवा-महल बनते बिगड़ते हैं 
पल में ही मन के उपवन खिलते-उजड़ते हैं 
नींद की देवी चंद घड़ियां अपनी छाया में पनाह देती है 
पर कल रात वह रुष्ट थी क्या 
जो भटके मन को घर लौटने की राह देती है ! 


बुधवार, अप्रैल 8

सत्य होती कल्पना भी

सत्य होती कल्पना भी

स्वप्न में हम सृष्टि रचते निज भयों को रूप देते, खुद सिहरते, व्यर्थ डरते जागकर फिर खूब हँसते ! मनोमयी, भावनामयी जाग कर भी सृष्टि रचते, निज सुखों को पोषते या दुःखों की गाथा बनाते ! शब्द साझे हैं सभी के उन्हीं से हम मित्र बनते, चुन नुकीले शब्द सायक शत्रुता अथवा रचाते ! कल्पना थी जो मनों की आज उसने रूप धारा, डोलते मन व्यर्थ खुद को डाल देते अतल कारा ! हैं कहीं हथियार जैविक आदमी ने ही बनाये, सत्य होती कल्पना भी वक्त यह सबको सिखाये !

मंगलवार, अप्रैल 7

कौन भला बाहर जा भटके


कौन भला  बाहर जा भटके


छाया कैसा मौन कारुणिक 
शब्द खो गए इस पीड़ा में, 
ठहरे हैं जन जो डूबे थे  
जग की मनमोहक क्रीड़ा में  !

थमी जिंदगी सी लगती है 
दुःख है, दुःख का कारण भी है 
जूझ रहा है विश्व समूचा 
करोना का निवारण भी है ?

हाँ, पीड़ित है जन-जन इससे 
आकुल होते मन भी पूछें, 
कब तक आखिर कब तक दुनिया
आहत होकर इससे जूझे !

इक ही हल जो नजर आ रहा 
अपने-अपने घर में सिमटें,
जीवन-मरण का जहाँ सवाल  
कौन भला  बाहर जा भटके !

जाना होगा खुद के भीतर 
महाशक्ति का धाम वहीं है,
हर विपदा से पार लगाए 
देवी का वरदान वहीं है !