बुधवार, जनवरी 29

जीवन का गीत

जीवन का गीत

हर तरफ है शोर
 भीड़ और दुःख का साम्राज्य...
बहते हुए अश्रु, सिसकियाँ और अर्थहीन आवाजें
जीवन जैसे एक खोल में सिमट आया हो
उड़ने के लिए गगन तो है मगर भरा है धुँए से
त्राण यदि पाना है तो भीतर ही जाना है
बाहर का सब कुछ कितना बेगाना है
शब्द हैं, चेहरे हैं, बातें हैं खोखली
पर इन अर्थहीन बातों में ही जीवन को पाना है
सरल दृष्टि सरल  उर सब पर लुटाना है
नहीं कहीं मुक्ति और, नहीं कोई स्वर्ग और
कला की ऊंचाइयों को
ओस की बूंदों में पिरोये हुए पाना है
शब्दों के जंगल से पार हुआ मन कहे
जीवन का गीत अब मौन में ही गाना है
कमी कुछ नहीं कहीं, हर घड़ी पूर्ण है
नहीं है अभाव कोई, नहीं कहीं जाना है !

रविवार, जनवरी 26

गणतन्त्र दिवस पर हार्दिक शुभकामनायें

गणतन्त्र दिवस पर हार्दिक शुभकामनायें


अमृत बरसे है अम्बर से
सूर्य देव को करें प्रणाम,
धरती पर नदियाँ, झीलें
पुण्य धरा सींचें दिन-याम !

संतों की है दीर्घ श्रंखला
 परम सत्य भी यहीं मिला,
योग-संख्य, वेदांत अनूठे
पुष्प भक्ति का यहीं खिला !  

हिम पर्वत से धुर दक्षिण तक
सदियों से गुंजित हैं गान,
धन्य-धन्य स्वयं को मानें हम
भारत की जो हैं सन्तान !

अद्भुत भाषाएँ, बोलियाँ
वेश, खाद्य भी हैं अनगिन,
एक सूत्र बाँधें है सबको
एक भाव बहता निशदिन !

वीर बाँकुरे भारत भू के
सीमाओं पर हैं तैनात,
खलिहानों में कृषक चेतना
श्रम अकूत करती दिन-रात !

उत्सव आज मनाएं मिलकर
सुखमय हो यह विश्व कुटुंब,
गणतन्त्र दुनिया का अनोखा
जहाँ वंशी, गीता व कदम्ब !

लहर उठी है अब क्रांति की
जाग उठा है हर इक जन,
भारत की आत्मा प्रमुदित है
पुलकित है हर जन गण मन !


शुक्रवार, जनवरी 24

उन सब बालिकाओं के लिए जिनका पहला जन्मदिन आने वाला है

पहले जन्मदिन पर


ओ नन्ही मुन्नी गुड़िया !
ठीक बरस भर पहले तूने
मध्य अपनों के आँखें खोलीं
दरस दिया !

पतले नाजुक अंग
लालिमा युक्त, परी सी हल्की
स्वच्छ नयन थे, कोमल केश
स्निग्ध स्पर्श, अनूठा वेश
लेकिन तब भी नाना-नानी 
दादा-दादी को एक अनोखा
स्नेह दिया !

कभी जगाया घर भर को
कभी हंसाया भोलेपन से
इतना सा मन, छोटा सा तन
पर तूने अस्त्तित्व से अपने
सारे घर का कोना-कोना
भर दिया !

अब तू नन्हे कदम बढ़ाती
 तुतलाहट से कभी लुभाती
न जाने अंतर में कितनी
साध लिए जग में तू आयी
हों स्वप्न साकार, माँ-पापा ने जो
बुना किया !

पापा कहकर जिसे बुलाती
वह तेरे बचपन के साथी
रोता तुझे देख न पाते
झट बाँहों में ले झुलाते
पल-पल तेरे नाज उठाते
दुनिया से परिचय करवाते
दिन भर की थकन को नहीं कभी
जाहिर किया !

अभी बोल मुँह से न फूटे
 पर जो तुझसे बातें करती थी
तू जिसकी धड़कन से परिचित
एक-दूजे को खूब समझती
उस माँ की आँखों का तारा
तुझसे ही जिसका जग सारा
मुस्कानों को देख तेरी भर जाता
उसका हिया !

चाचा, बुआ, फूफा, मामा
मामी, मासी, मौसा सबके
दिल में रहती खुशियाँ देती
दादाजी को तूने ही तो
कविता करना सिखा दिया 
है सभी की लाडली तू
ओ दुलारी बिटिया !





गुरुवार, जनवरी 23

जाग कर देखें तो सही

जाग कर देखें तो सही

क्या क्या चूकते जा रहे हैं
इस नींद के आकर्षण में...
नींद जो केवल रात्रि को ही नहीं दिन में भी
स्वप्न दिखाती है
झूठ-मूठ ही सुख का भ्रम देती
वास्तव में बहकाती है
जाग कर देखें तो सही
भोर हुई है अनोखी
पंछियों का कलरव नहीं सुना ?
आई फूलों की सुगंध लिए बयार
बनाएं उसे गले का हार
न कि बदलते रहें करवटें यूँ ही पड़े-पड़े
पुनः पुनः दोहराते रहें
बार-बार देखे स्वप्नों को
वही पुराने राग रोज गाते रहें
सांता आता है वर्ष में एक दिन
जीवन उपहार लिए चला आता है हर रोज
हर घड़ी, हर दिन को उत्सव बना लें
अपनी पुलक से, छुवन से प्रीत की
इर्द-गिर्द एक जन्नत बना लें
छोटी सी अपनी झोली में
भर सकते हैं जितना समेट लें
बरस रहा है विराट रात-दिन
जीवन का गीत गा लें समय रहते
कब होगी विदाई...कौन जाने ?


मंगलवार, जनवरी 21

नींद में ही सही...

नींद में ही सही...


कुछ स्मृतियाँ कुछ कल्पनाएँ
बुनता रहता है मन हर पल
चूक जाता है इस उलझन में
आत्मा का निर्मल स्पर्श....
 यूँ तो चहूँ ओर ही है उसका साम्राज्य
 घनीभूत अडोल वह है सहज ही ज्ञातव्य
 पर डोलता रहता है पर्दे पर खेल
मन का अनवरत
तो छिप जाती है आत्मा
असम्भव है जिसके बिना मन का होना
उसके ही अस्तित्त्व से बेखबर है यह छौना
नींद में जब सो जाता है मन कुछ पल को
आत्मा ही होती है भीतर
तभी नींद सबको इतनी प्यारी है
नींद में ही हो जाती है खुद से मुलाकात
 पर अफ़सोस ! नहीं हो पाती तब भी उससे बात
जागरण में तो दूर हैं ही उससे
शयन में भी हो जाते हैं दूर उससे
कब होगा वह ‘जागरण’
जब जगते हुए भी प्रकटेगी वह और नींद में भी....




गुरुवार, जनवरी 16

हाँ

हाँ



हाँ, ढगे गये हैं हम बार-बार
छले गये हैं
 हुए हैं अपनी ही नादानियों के शिकार
कभी दुर्बलताओं के अपनी
मृत्यु से डर कर बेचे हैं अपने जमीर
घृणा के भय से सहे हैं अत्याचार
 हाँ, हुए हैं कम्पित अनिश्चय के भय से
सुरक्षा की कीमत पर तजते रहे हैं निज स्वप्नों को
कभी प्रेम के नाम पर कभी शांति के नाम पर
 कुचल डाले हैं भीतर खिलते कमल
हर बार जब इम्तहान लेने आई है जिन्दगी
 मुँह छिपाए हैं हमने भी
टाला है हर बार अगली बार के लिए
 अपनी आजादी के गीत बस स्वप्नों में गाए हैं
जब मांगी है कीमत किसी ने
नजरें झुका ली हैं हमने भी
पर सुना है.. जब बदल जाते हैं समीकरण
अचानक सब कुछ विपरीत घटने लगता है..



मंगलवार, जनवरी 14

अरुणाचल की एक छोटी सी यात्रा



अरुणाचल की एक छोटी सी यात्रा
   

पिछले वर्ष के अंतिम दिन प्रातः आठ बजे हम दुलियाजान-असम से अरुणाचल प्रदेश के शहर MIAO, जिला चांगलांग नामक स्थान के लिए रवाना हुए, उससे पहले हमें मानाभूम जाना था. माकूम, दुमदुमा और डेरौक होते हुए हमारी जीप टाटा सूमो आगे बढ़ रही थी. एक स्थान पर जहाँ हमें दाएं मुड़ना था, असावधानी वश उसे छोड़कर जीप का ड्राइवर सीधा चलता गया, पता नहीं किस अदृश्य शक्ति ने हमें सचेत किया और एकाएक सभी कहने लगे, किसी से रास्ता पूछ लेना चाहिए, पूछने पर पता चला हम १३ किमी आगे निकल आये हैं, वापस गये और उस मोड़ से कुछ अच्छे कुछ खराब रास्तों से गुजर कर साढ़े बारह बजे के लगभग मानाभूम के गेस्ट हाउस पहुंचे. जहाँ स्वादिष्ट भोजन हमारी प्रतीक्षा कर रहा था. मानाभूम में आयल का कैम्प है, भोजन में चार तरह की सब्जियां व दाल थी, पापड़ भी थे. मार्ग में सरसों के पीले फूलों से सजे खेत तो थे ही, लाल तने और फूलों वाले खेत भी मनोहारी थे. हम सभी को यह जानने की उत्सुकता थी की इन फूलों का नाम क्या है. वहाँ के एक स्थानीय व्यक्ति ने बताया इसे फाफड़ कहते हैं, यह एक अनाज है जिसके स्वादिष्ट व्यंजन बनते हैं, हमने निर्णय लिए वापसी में इस अन्न को बाजार से ले चलेंगे, नये साल के कारण बाजार तो बंद था पर बाद में गूगल में खोज करने पर पता चला यह तो कुट्टू था, जिसका व्यवहार हम व्रत में करते आये हैं, कुट्टू के खेत और उसकी फसल काटते हुए एक अरुणाचली महिला की सुंदर तस्वीर हमारे अलबम में कैद हो गयी है.

भोजन के बाद हम नोआडीहिंग नदी के तट पर आये, मार्ग में कई जगह नदी की उथली धाराओं  को पार करना पड़ा. तट पर अनेकों व्यक्ति पिकनिक मना रहे थे. काफी चहल-पहल थी, संगीत भी बज रहा था और कुछ जगह लोग पत्थरों को जोड़ कर बनाये चूल्हों में लकड़ी जलाकर भोजन बना रहे थे. हमें नदी पार करनी थी, कोई पुल नहीं था, दो नावों को जोडकर एक लकड़ी का प्लेटफार्म बनाया गया था जिसपर अत्यंत सावधानी के साथ ड्राइवर ने गाड़ी चढ़ाई कुछ लोग ड्राइवर के साथ नाव में ही रहे और कुछ नाव में बैठे, धीरे-धीरे नाव को धकेलते हुए नाविक उस पार ले गये. बड़ी और छोटी सभी गाड़ियाँ इसी तरह नावों से पार की जा रही थीं. यह भी एक रोमांचक अनुभव था.

 तट पर हजारों छोटे बड़े पत्थर थे, जिन पर पैर रखते हुए सम्भलते हुए हम पुनः गाड़ी में बैठे और MIAO के सर्किट हाउस पहुंच गये. वहाँ हमारे सिवा कोई अन्य यात्री नहीं था, वर्ष का अंतिम दिन था सो सभी कर्मचारी मस्ती के मूड में थे. पर हमारे कमरे स्वच्छ व सुविधाजनक थे. सामान रखकर हम पैदल ही निकल पड़े और कच्चे रास्ते से ढलान पर पांव रखते पुनः नदी तट पर आये, जहां पानी की स्वच्छ, निर्मल, शीतल लहरों में भीगने का आनन्द लिया. चिकने पत्थरों (काई के कारण) पर हौले-हौले कदम बढ़ाते हुए नदी पार की और रेत में बैठकर डूबते हुए सूर्य की किरणों को निहारते रहे. नीचे धरा का स्पर्श, सामने अग्नि सम सूर्य और जल का अखंड प्रवाह, बीच-बीच में हवा का सिहरन भरा स्पर्श और यह सब चल रहा था अनंत आकाश के नीचे. हमारे मन व प्राण पाँचों तत्वों का अनुभव एक साथ कर रहे थे. वहाँ से लौटकर कुछ देर सर्किट हाउस के लॉन में जिसकी घास शीत के कारण भूरी हो गयी थी तथा जिसके किनारे क्यारियों में गुलदाउदी तथा गेंदे के फूल लगे थे, हमने फ्रिस्बी का खेल खेला, बचपन जैसे पुनः लौट आया. बाहर निकल कर प्रकृति के सान्निध्य में पुनः मन बालवत् हो जाता है. शाम को हम यहाँ का नया चर्च देखने गये, जो एक पहाड़ी पर बना है तथा बहुत ऊंचा है, दूर से ही उसकी दीवार पर बनी ईसा की नीली मूर्ति दिखाई देती है. काफी सीढ़ियाँ चढकर हम ऊपर गये तो दीवारों पर बाइबिल से सम्बन्धित चित्र बने थे. जगह-जगह क्रिसमस की झांकियां सजी थीं. चर्च से लौटे तो अँधेरा हो चुका था, हमने कमरे में ही आकर हल्का नाश्ता किया और चाय पी. कुछ देर कार्ड्स का गेम खेला, और तब यहाँ के केयर टेकर शर्मा जी ने रात्रि भोजन के लिए बुलाया, वे भी जल्दी काम निपटा कर नये वर्ष के स्वागत के लिए अपने घर जाना चाहते रहे होंगे. भोजन हल्का और घर जैसा था. बाहर निकल कर आये तो आकाश जैसे नीचे सिमट आया हो, अम्बर  पर सैकड़ों तारे जगमगा रहे थे, जिनका प्रकाश प्रदूषण न होने के कारण सीधा आँखों तक पहुंच रहा था. सामने चर्च की बत्तियां भी जल चुकी थीं, ईसा की मूर्ति अब अलग ही प्रभाव डाल रही थी. हमने कुछ चित्र लिए और बढ़ती हुई ठंड के कारण कमरे में आ गये. नया वर्ष आरम्भ होने में कुछ ही घंटे शेष थे.


अगले दिन सुबह नहा-धोकर व चाय पीकर हम आस-पास का जायजा लेने निकल पड़े, विशाल वृक्ष, हरी-भरी घाटियाँ, कुछ सुंदर घर और अन्य इमारतें देखते हम एक पेड़ के पास आकर रुके, जहाँ नीचे लाल रंगे के चमकदार मोती जैसे बीज बिखरे थे, वे इतने सुंदर थे कि हमने स्मृति के लिए कुछ एकत्र किये, अरुणाचल के लोग छोटे कद के होते हैं तथा महिलाएं बहुत सुंदर होती हैं, रास्ते में कुछ सुंदर लडकियाँ परम्परागत पोशाक पहने दिखीं, पर अधिकतर आधुनिक पोशाक ही पहने थीं. कुछ सुंदर बच्चे भी थे, पर हर जगह पिछड़ापन नजर आता था, छोटे-छोटे घर तथा खेती के सहारे अपना गुजर बसर करने वाले यहाँ के लोग आधुनिक दुनिया से पूरी तरह कटे हुए प्रतीत होते हैं. नाश्ता करके हम वापसी की यात्रा पर निकल पड़े, नये वर्ष का प्रथम दिन होने के कारण MIAO Zoo तथा तिब्बतियों का कारपेट सेंटर बंद था. वापसी में जागून होते हुए हम दुलियाजान वापस आये, सहयात्री परिवार के घर स्वादिष्ट भोजन का आनन्द लिया और इस तरह हमारी छोटी सी यात्रा सम्पन्न हुई.

सोमवार, जनवरी 13

मकर संक्रांति पर शुभकामनायें




मकर राशि में सूर्य का हो रहा प्रवेश
संक्रांति काल लेकर आया पर्व विशेष !

उत्तर में खिचड़ी कहें दक्षिण में है पोंगल
लोहड़ी जो पंजाब में असम में बीहू मंगल !

लकड़ी का एक ढेर हो शीत मिटाए आग
बैर कलुष जल खाक हों पर्व मनायें जाग !

मीठे गुड में तिल मिले नभ में उड़ी पतंग
लोहड़ी की इस आ ने दिल में भरी उमंग !

दाने भुने मकई के भर रेवड़ियाँ थाल
अंतर में उल्लास हो चमकें सबके भाल !

शनिवार, जनवरी 11

रस मकरंद बहा जाता है

रस मकरंद बहा जाता है



अंजुरी क्यों खाली है अपनी
रस मकरंद बहा जाता है,
साज सभी सजे महफिल में
सन्नाटा क्यों कर भाता है !  

रोज भोर में भेज संदेसे
गीत जागरण वह गाता है,
ढांप कर्ण करवट ले लेता
खुद से दूर चला जाता है !

त्याज्य हुआ यहाँ अभीप्सित
हाल ना कुछ कहा जाता है,
बैठा है जो घर के अंदर
दूर जान छला जाता है !

पीठ दिखाए उसको बैठे
बिन जिसके न रहा जाता है,
क्यों कर दीप जले अंतर में
सारा स्नेह घुला जाता है !


मंगलवार, जनवरी 7

यह तो था अपना ही घर


यह तो था अपना ही घर

पलक बिछाए वह बैठा है
दोनों बाहें भी फैलाये,
एक कदम उस ओर बढ़ें तो  
बड़े वेग से वह भी आये !

प्रियतम का घर दूर नहीं था
राह भटक कर हमीं अभागे,
हाथ थाम कर लाया वह ही
जिस पल थे प्रमाद से जागे !

जाना पहचाना आलम था
यह तो था अपना ही घर,
धूल बहुत फांकी दुनिया की
कभी नजर न डाली भीतर !

एक उजाला मद्धिम मद्धिम
 राग मधुर कोई बजता था,
शांति अगर सी फ़ैल रही थी
प्रेम दीप बन के जलता था !

नहीं छलावा नहीं झूठ का
नहीं लोभ का नाम वहाँ था,
नहीं अभाव न मांग थी कोई
मस्ती का इक जाम वहाँ था ! 

शनिवार, जनवरी 4

अब तो कुछ बात हो

अब तो कुछ बात हो


फूलों से बात करें, बिछौना बने घास
डालियों के साथ झूमें, निहारें आस-पास

चाँद संग होड़ लगे, चाँदनी संग हम भी जगें
सो लिए बरसों बरस, अब तो प्रमाद छंटे

जीवन को मांग लें, अनकही प्रीत को
सीख लें कुदरत से, बंटने की रीत को

स्वप्नों को तोड़ दें, सच से मुलाकात हो
भरमाते उम्र बीती, अब तो कुछ बात हो

आँखों में डाल आँखें, खुद से भी मिलें कभी
होना ही काफी है, बन न कुछ पाए कभी

होकर ही जानेंगे, कुदरत का हैं हिस्सा
जाने कब आँख मुँदे, बन जाएँगे किस्सा