शनिवार, सितंबर 29

इन्द्रधनुष सा ही जग सारा



इन्द्रधनुष सा ही जग सारा


एक दिवस, दिन की गुल्लक से
कुछ अद्भुत पल चुरा लिए थे,
ऋतु सुहावनी थी बसंत की
मदमाती सुरभित हवा लिए !

पर्वत के ऊँचे शिखरों पर
हिम के स्वर्णिम फूल खिले थे,
देवदार के तरुओं पर भी
आभामय कुछ छंद लिखे थे !

स्फााटिक मणि सी निर्मल शीतल
जल धारा इक बहती जाती,
फूलों की घाटी थी नीचे
तितली, भ्रमरों को लुभाती !

उन अनमोल क्षणों को दिल की
गहराई में छुपा रखा था,
आज टटोला सिवा ख्याल के
कहीं नहीं थी उनकी छाया !

काल चक्र भरमाता अविरत
चुकती जाती जीवन धारा,
अभी यहीं है, अभी नहीं है
इन्द्रधनुष सा ही जग सारा !


गुरुवार, सितंबर 27

उर से ऐसे ही बहे छंद



उर से ऐसे ही बहे छंद


मुक्त गगन है मुक्त पवन है
मुक्त फिजायें गीत सुनातीं,
मुक्त रहे मन चाह यही तो
कदम-कदम पर है उलझाती !

सदा मुक्त जो कैद देह में 
चाहों की जंजीरें बाँधी,
नयन खुले से लगते भर हैं
कहाँ नींद से नजरें जागी !

भावों की हाला पी पीकर
होश गँवाए ठोकर खायी,
व्यर्थ किया पोषण उस 'मैं' का
बुनियाद जिसकी नहीं पायी !

हो निर्भार उड़ा अम्बर में
उस प्रियतम की थाह ना मिली,
छोड़ दिया तिरने को खग सा
विश्रांति हित डाल ना खिली !

तिरने में ही उसे पा लिया
उड़ेंं बादल ज्यों हो निर्बंध,
बरस गये करने जी हल्का
उर से ऐसे ही बहे छंद !

बुधवार, सितंबर 19

अंतर्प्रवाह


अंतर्प्रवाह

बहते हैं विचार... किसी सागर की तरह
सागर.. जो बहता है लहरों में या
भाप बनकर,
जब वह आकाश में उठ जाता है
संग हवाओं के !

जीवन भी बहता है
घटनाओं में या
फिर प्रेम भरी भावनाओं में
जब मन ऊपर उठ जाता है..
 यह तर्क है निरा... या
आत्मा की आवाज
कौन जानता है ?

शब्द आते हैं जाने किस स्रोत से
कौन उन्हें गढ़ता है भीतर गहराई में
किसने भरे हैं अर्थ उनमें
और क्या उनके लक्ष्य हैं ?  

जीवन का लक्ष्य भी क्या है
किसे पता है
मौन के सिवा कुछ नहीं है वहाँ
जहाँ जाकर रुक जाते हैं सब रस्ते
एक गहन सन्नाटा
और खामोशी !

क्यों फैलाया है इतना बड़ा माया का लोक
जहाँ होना भर है
विचारों की सीमा है
पर क्या है उसके पार
जहाँ से दिव्य गंध आती है
जहाँ जीवन एक सहज अनुभव है !

रविवार, सितंबर 16

तलाश



तलाश 

जाने किसकी प्रतीक्षा में सोते नहीं नयन
जाने किस घड़ी की आस में
जिए चले जाता है जीवन
शायद वह स्वयं ही प्यास बनकर भीतर प्रकटा है
अपनी ही चाहत में कोई प्राण अटका है
सब होकर भी जब कुछ भी नहीं पास अपने
नहीं लुभाते अब परियों के भी सपने
इस जगत का सारा मायाजाल देख लिया
उस जगत का सारा इंद्रजाल भी चूक गया
मन कहीं नहीं टिका.. अब कौन सा पड़ाव ?
किस वृक्ष की घनी छाँव
कैसे मिलेगा मन का वह भाव
या फिर मन ही खो जाने को है
अब अंतिम सांसे गिनता है
अब यह पीड़ा भी कहनी होगी
जीने से पहले मरने की क्रीड़ा तो सहनी होगी
दिल की गहराई में जो वीणा बजती है
जहाँ से डोर जीवन की बढ़ती है
उस अतल में जाना होगा
असीम निर्जन में स्वयं को ठहराना होगा..
जब कोई तलाश बाकी नहीं रहती
तभी अक्सर खुल जाता है द्वार
जिस अनजाने लोक का...

बुधवार, सितंबर 12

प्रतीक्षा


प्रतीक्षा 

नहीं, अब कुछ भी नहीं रुचता
न ही बादलों का शोर
न नाचता हुआ मोर
न वर्षा का बरसता हुआ जल
न झरनों की कलकल
न पंछियों की टीवी टुट् लुभाती है
न ही रुत सावन की भाती है
अब तो उस श्याम की प्रतीक्षा है
जो इन घनघोर घटाओं से भी काला है
जो इन हवाओं से भी मतवाला है !

सोमवार, सितंबर 10

जलधाराओं का संगीत


जलधाराओं का संगीत 

नभ से गिरती हुई जल धाराएँ
जिनमें छुपा है एक संगीत
जाने किस लोक से आती हैं
धरा को तृप्त कर माटी को कोख से
नव अंकुर जगाती हैं
सुंदर लगती हैं नन्ही-नन्ही बूँदें
धरती पर बहती हुई छोटी छोटी नदियाँ
जो वर्षा रुकते ही हो जाती हैं विलीन
गगन में उठा घनों का गर्जन
और लपलपाती हुई विद्युत रेखा
दिन में ही रात्रि का भास देता हुआ अंधकार
 दीप्त हो जाता है पल भर को
जैसे कोई विचार कौंध जाये मन में
और पुलक सी भर जाये तन में !


शुक्रवार, सितंबर 7

जीवन अमृत बहा जा रहा



जीवन अमृत बहा जा रहा


कितनी बार चुभे हैं कंटक
कितनी बार स्वप्न टूटे हैं,
फिर-फिर राग लगाता यह दिल
कितने संग-साथ छूटे हैं !

सुख की फसल लगाने जाते
किन्तु उगे हैं दुःख ही उसमें,
धन के भी अम्बार लगे हों
भीतर का अभाव ही झलके !

ऊपर चढ़ने की खातिर जब
कर उपेक्षा छोड़ा होगा,
लौट-लौट आयेंगे वे पल
कितनों का दिल तोड़ा होगा !

फूलों की जब चाहत की थी
काँटों के जंगल बोये थे,
जगें स्वर्ग में नयन खुलें जब
चाहा, लेकिन खुद सोये थे !

कैसे जीवन पुष्प खिलेगा
कोई तो आकर सिखलाये,
जीवन अमृत बहा जा रहा
कोई क्यों फिर प्यासा जाये !

सोमवार, सितंबर 3

ऐसा दीवाना है कान्हा

ऐसा दीवाना है कान्हा 

आँसू बनकर जो बहता है 
मौन रहे पर कुछ कहता है
किसी नाम से उसे पुकारो
उपालम्भ जो सब सहता है ! 

  हो अनजाना कोई उससे 
तब भी वह रग-रग पहचाने
इक दिन तो पथ पर आएगा 
कब तक कोई करे बहाने! 

जब तक उसकी ओर न देखो 
नेह सँदेसे भेजा करता
कभी हँसा कर कभी रुलाकर 
अपनी याद दिलाया करता ! 

ऐसा दीवाना है कान्हा 
प्रीत पाश में ऐसा जकड़े
हाथ छुड़ा तब जाता लगता 
जब कोई खुद से ही झगड़े !

अँधियारी हो रात अमावस 
हीरे मोती सा वह दमके
काली यमुना उफन रही हो 
उजियारा बनकर वह चमके !


रविवार, सितंबर 2

कृष्ण जन्म


कृष्ण जन्म 

यह तन कारागार है अहंकार है कंस
पञ्च इन्द्रियाँ संतरी भीतर बंदी हंस !

बुद्धि हमारी देवकी मन-अंतर वसुदेव
इन दोनों का मिलन बना आनंद का गेह !

प्रहरी सब सो गए इन्द्रियाँ हुईं उपराम
हृदय बुद्धि में खो गया भीतर प्रकटे श्याम !

अविरति है कालिंदी पार है गोकुल धाम
मिटा मन का राग तो खुद आया घनश्याम !